जी हाँ, मैं तनाव में हूँ।
अब आप यह न पूछे मैं तनाव में क्यों हूँ? दुनिया को दूसरों के दुःखों को जानने की बड़ी उत्सुकता होती है। खुद की निपटती नहीं, लेकिन दूसरों के जीवन में ताका-झाँकी से बाज नहीं आते। फलां व्यक्ति निराश क्यूँ रहता है, फलां की भंवें क्यों चढ़ी हुई हैं, फलां आज कल उखड़ा-उखड़ा क्यों रहता है, फलां को बात-बात पर क्रोध क्यूं आता है, फलां की बीवी से अनबन क्यूं है, फलां के व्यापार में घाटा कैसे लग गया आदि-आदि अनंत प्रश्न लोगों के दिमागों में सवार रहते हैं। न जाने उन्हें दूसरों की क्या पड़ी है? मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि व्यक्ति वही काम करता है अथवा उन्हीं कार्यों में रुचि लेता है जिन्हें करने में उसे आनन्द आता है। तो क्या किसी व्यक्ति को गुस्से में, अवसाद में, निराशा में, दुःख में अथवा तनाव में देखकर हमें आनन्द आता है? अगर नहीं तो पराई पंचायती में इतना रस क्यों? कहीं हम दूसरे व्यक्ति के दुःखों में हमारे दुःखों की प्रतिछाया तो नहीं देख रहे? कितना सुख मिलता है यह सोचकर अथवा पता लगाकर की दुनिया में मैं अकेला दुःखी नहीं हूँ, मेरे जैसे छप्पन सौ साठ घूम रहे हैं।
खैर! मैं भी न जाने क्यूँ अपनी कहते-कहते परायों की खोपड़ी पर चढ़ गया। उनकी वे जाने मुझे तो मेरी बला टालनी है।
मैं बात अधिक देर आपसे नहीं छिपाऊँगा, अंततः तो आपको कहकर ही मेरी कहानी आगे बढ़ेगी। सच्ची बात तो यह है कि चार रोज पहले बीवी से छुपकर मैंने शेयर मार्केट में जुआँ खेला। सोचा वर्षों से बीवी गहनों का कह रही है, क्यों न एक बार भाग्य आजमा कर उसको प्रसन्न कर दूँ। शेयर मार्केट में तो एक ही दिन में लाखों के वारे-न्यारे हो जाते हैं। थोड़ी कृपा इस अकिंचन पर लक्ष्मी की हो जाय तो मैं भी अच्छा पति बनने का गौरव प्राप्त कर लूं। कितनी प्रसन्न होगी वह जब मैं अपने हाथों से उसके गले में स्वर्णहार एवं कलाइयों में कंगन पहनाऊंगा। प्रसन्न क्या होगी बाँछें खिल जायेगी। एक बार तो शायद उसे यकीन ही न हो। वर्षों से तरसती उसकी आंखें मेरे उपहार के दर्शन कर निहाल हो जायेंगी। जैसे समुद्र का ज्वार बढ़े हुए चन्द्र को देख और बढ़ता है , अपने स्वर्णकोष को बढ़ता देख वह खुशी से फूली नहीं समायेगी। ओह, वह कितना शुभ दिन होगा !
लेकिन मेरे और लक्ष्मी में तो मानो जन्म जन्मांतर का बैर है। मैं दाँव लगाऊं और मैया भृकुटि न ताने। कुल मिलाकर चार दिन के कारोबार में ही मुझे दो लाख का नुकसान हो गया। कहाँ बीवी को कण्ठहार पहनाने का स्वप्न देख रहा था , कहाँ कण्ठहार उतारने की नौबत आ गयी।
भगवान बुरा करे इन शेयर दलालों का, खुद तो सांड की तरह डकारते रहते हैं, दूसरों को बकरी की तरह मिमियाने भी नहीं देते। सैकड़ों दीये बुझाकर दूसरों के घरों में तो अंधेरा कर देते हैं, खुद मर्करी बल्ब की तरह जलते रहते हैं। बिजलियाँ गिरे इन बेईमानों पर। भोले-भाले लोगों को बहेलियों की तरह फाँस लेते हैं।
एक-दो दिन तो मैंने शेयर ब्रोकर से नजर चुराई पर चौथे दिन उसने एक मुछंदर मुस्टंडे को उगाही के लिए भेजा तो मुझे कुल मिलाकर समझ में आ गया कि रुपये तुरन्त देने होंगे। यमदूत की तरह अंगारे उगलती उसकी आंखों ने मेरे पास मात्र दो ही विकल्प छोड़े- पैसा अथवा प्राण। मैंने दो दिन की मोहलत मांगी तो आँखें तरेर कर बोला, ‘‘औकात नहीं है तो बाजार में क्यों आते हो? परसों सुबह तक रुपये दे देना अन्यथा भरे ऑफिस में ऐसी फजीती करूंगा कि नानी याद आ जायेगी।’’ भारतीय क्लर्क वैसे ही महंगाई, बाॅस की डांट-डपट आदि के चलते आधे धंसे होते हैं, उसकी धमकी सुनकर मैं पूरा धँस गया।
मेरे विवाह के समय मेरे महान श्वसुर ने अपनी प्राणप्रिय पुत्री को पूरे सौ तोले का जेवर दिया था। अब यही मेरा लाज बचावनहार था। दूसरे दिन मैंने बैंक जाकर लाॅकर खोला, कुछ बड़े-बड़े कण्ठहार निकाले एवं उन्हें बाजार जाकर चुपचाप बेच आया।
ऋण उतरने के बाद मैं तनावमुक्त तो हुआ पर इस अभागे कपाल को सुख कहाँ?
गत दो रोज से वह लगातार रट लगा रही है, “बैंक जाकर लाॅकर खोलना है। अगले माह भैया की शादी है, नया तो तुम लाने वाले नहीं, एकाध पुराना आइटम तुड़वाकर ही भैया को गिफ्ट कर देंगे।”
मुझे हजार बिच्छु एक साथ काट गये। मैंने उसे समझाते हुए कहा, “इस सप्ताह थोड़ा व्यस्त हूँ, अगले सप्ताह दोनों साथ जाकर यह कार्य करेंगेे। अकेली औरत का इन दिनों जेवर लाना ठीक नहीं है, फिर तुम्हें बैंक नियम, प्रोसिजर्स भी पता नहीं हैं। आजकल पासवर्ड और जाने क्या-क्या पूछते हैं? अकारण दो घण्टे इंतजार करोगी।” लेकिन हाजिर-जवाबी कोई मेरी बीवी से सीखे। तुरन्त उत्तर दिया, “आप भी कमाल करते हैं। मैं कोई दूधमुँही बच्ची हूँ। पिछली बार मैंने साथ चलने को कहा तब तो कह रहे थे-हर बार मुझे क्यूँ इन कार्यों के लिए घसीटती हो। औरतें जाने कहाँ से कहाँ पहुँच गई , तुम अब भी गंवारू स्त्रियों की तरह बाहर निकलने से डरती हो। अजीब व्यवहार है, घड़ी में तोला घड़ी में माशा, समझ ही नहीं आता।”
उसका उत्तर सुनकर मेरा दिल बैठ गया। लगा जैसे कोई नागिन फुफकार रही हो। मैंने मन ही मन कुबूल किया , हाँ ! मैं बेपैंदे का लौटा हूँ। लेकिन यह तो जीवन-मरण का प्रश्न था, मैंने तुरन्त बात संभाली, “पिछली बार तो ऑफिस में इंस्पेक्शन चल रहा था अतः टाल गया। उसके पहले दो बार साथ गया तो था! तुम भी जबान पकड़ लेती हो। अभी परसों मैंने अखबार में पढ़ा है बैंक से जेवर लाती हुई एक औरत को चोरों ने दिन-दहाड़े लूट लिया। एक सप्ताह में कोई आसमान तो नहीं गिर जायेगा।”
“ठीक है, लेकिन अगले सप्ताह साथ नहीं चले तो मैं खुद निकाल लाऊंगी।”
“अरे! चलूंगा क्यूं नहीं, मेरे कौन से दस साले हैं, भगवान का दिया एक ही तो साला है। मुझे क्या इच्छा नहीं होती उसके विवाह में उपहार देने की ?”
अन्तिम बात ने ब्रह्मास्त्र का असर किया। जान बची लाखों पाये।
आज उसी सप्ताह का चौथा दिन है। अब तो आप भी मेरे तनाव का कारण समझ गये होंगे। अच्छे भले दिन चल रहे थे, बस उड़ता तीर ले लिया। अब सोच-सोच कर परेशान हूँ। दो लाख का जुगाड़ करना क्या मामूली बात है। अलादीन का चिराग मिल जाये तो कर लूँ? आपको मालूम नहीं है, मेरी बीवी को जेवर से कितना प्यार है। जो सुख महाजन को अपनी तिजोरी में रखे धन को देखकर होता है , वही सुख उसे अपने जेवर देखकर होता है। देह का प्राणों से जो नाता हैं वही नाता मेरी धर्मपत्नी का उसके जेवर से हैं। जैसे सूर्य को देखकर सूर्यमुखी खिल उठती हैं , वहीं प्रसन्नता मेरी भार्या को इन गहनों को देखकर होती है। मुझे फाँसी पर लटकना मंजूर है पर उसे यह कहना मंजूर नहीं कि मैंने तेरे गहने बेच दिये। मुझे तो लगता है इस वाक्य को कहते हुए मेरे अथवा सुनते हुए उसके प्राण चले जायेंगे। सारी स्थिति को जानते हुए मेरा जो हाल है वह मैं ही जानता हूँ।
आज चौथा दिन है। इन चार दिनों से चेहरे की हवाइयाँ उड़ रही है। ‘स्ट्रेस मैनेजमेंट’ यानि तनाव प्रबन्धन के सारे पैंतरे इस्तेमाल कर लिये पर दुख तो दुःख के समाधान अथवा सुख आने से ही समाप्त होता है। सूर्य की रोशनी के अतिरिक्त अंधेरे को कौन मिटा सकता है? बाकी सब मन बहलाने के तरीके हैं।
लेकिन आज मुझे ऐसा तरीका मिल गया कि मैं निहाल हो गया। आप सोच रहे होंगे कि लाॅटरी खुल गयी अथवा फिर रुपयों का प्रबंध हो गया लेकिन ऐसा तो मेरी सात पुश्तें मिलकर भी नहीं कर सकती।
फिर ऐसा क्या हो गया?
आज सुबह दस बजे ऑफिस के लिए निकला ही था कि घर से आधे मील दूर मंदिर के बाहर मुझे हमारे पड़ौसी का बच्चा बिट्टू दिख गया। मेरे ऑफिस और उसके स्कूल का टाइम करीब-करीब एक-सा है, यानि दस से पाँच। उसकी माँ उसे रोज मंदिर तक छोड़ देती है, जहाँ से वह बस में चढ़ता है। आज थोड़ी देरी हो गयी थी। मुझे लगा वह बस चूक गया होगा , सोचा ऑफिस पहुँचने मैं थोड़ी देर तो होगी पर एक अच्छे पड़ौसी का धर्म पूरा करते हुए क्यूँ न उसे स्कूल छोड़ दूँ। स्कूटर पार्क कर मैं मंदिर के बाहर आया तो मुझे देखते ही बिट्टू का चेहरा लटक गया। मुझे देखकर तो उसे खुश होना चाहिये, फिर वह नाराज क्यूँ? मैंने पहल कर बात छेड़ी।
“आओ बिट्टू , तुम्हें स्कूल छोड़ दूँ। आज बस छूट गई लगती है।” मैंने सांत्वना देते हुए कहा।
“नहीं अंकलजी! मैंने खुद ही जान-बूझकर बस छोड़ दी है।”
“क्यों क्यों! तुमने ऐसा क्यों किया?” मैंने विस्मय से पूछा।
“टीचर ने इतना होमवर्क दिया कि मैं पूरा नहीं कर पाया। आज स्कूल जाऊंगा तो पिट्टी हो जाएगी।”
“यह तो गलत बात है, मम्मी को पता चल गया तो।” एक अच्छे गार्जियन की तरह मैंने उससे सवाल किया।
“कुछ पता नहीं चलता, ऐसा तो मैं कई बार कर चुका हूँं। जब भी होमवर्क पूरा नहीं होता मैं बस में नहीं चढ़ता। आज तक मम्मी को पता नहीं चला।’ फिर जाने क्या सोचकर बोला, ‘‘अंकलजी, स्कूल से गोत मारकर मंदिर में बैठना मुझे बहुत अच्छा लगता है। दोपहर तक आस-पास के बच्चे भी आ जाते हैं। हम दिन भर खेलते हैं, मंदिर से प्रसाद भी लेते रहते हैं।’’ इस बार बिना किसी भय के वह सारी बात कह गया।
मैं कुछ उत्तर देता उसके पहले ही वह खिलखिलाकर हँस पड़ा। उसकी हँसी में अपराध-बोध , शौर्य-दर्प दोनों साथ-साथ झलक रहे थे।
मैंने मन-ही-मन उसके साहस के लिए उसे धन्यवाद दिया। स्ट्रेस मैनेजमेन्ट का कितना प्रभावी तरीका था उसके पास। एक मैं हूँ जो चार दिन से बगले झाँक रहा हूँ। कोई उपाय ही नहीं निकल रहा। साँप-छछूंदर की तरह बीवी को कहने-ना कहने में ही प्राण निकले जा रहे हैं। चार दिन से भूख है न प्यास, सो भी नहीं पाया।
यकायक मेरे दिमाग में एक विचार कौंधा। क्यूं न एक दिन के लिए मैं भी बिट्टू बन जाऊँ। बच्चे सदैव प्रसन्न एवं प्रफुल्लित नजर आते हैं। बड़े होने के साथ-साथ हमने मन पर कितने पाप चढ़ा लिये हैं, ऐसे में हमारे तनाव कैसे मिटेंगे?
आज मैंने भी एक दिन के लिए बिट्टू बनने का निर्णय ले लिया। मैंने स्कूटर एक तरफ पार्क किया, जेब से मोबाइल निकालकर सीधे ऑफिस फोन किया, “आज मेरे पेट में दर्द है, मैं नहीं आ सकता।”
मोबाइल जेब में रखते-रखते मेरा आधा दर्द पिघल गया।
शायद मुझे बात करते देख बिट्टू राज की बात ताड़ गया। मुझे देखकर बोला, “आज आप भी मंदिर में रहेंगे?”
“हाँ बिट्टू! आज पूरे दिन मैं तुम्हारे साथ रहूंगा। हम साथ-साथ घर चलेंगे। तू आन्टी से तो नहीं कहेगा।”
पहले उसने मुँह पर दायाँ हाथ रखा फिर दोनों कान पकड़कर मंदिर की ओर देखकर बोला।
“बिल्कुल नहीं!”
“ठीक है फिर मैं भी तुम्हारी मम्मी को नहीं कहूंगा।” कहते-कहते मैंने उसके कंधे पर हाथ रखा।
यह चोर चोर मौसेरे भाई वाली दोस्ती थी।
हम दोनों अब मंदिर में भगवान की मूर्तियों के सामने-बैठे थे। कैसी मनभावन मूर्तियाँ थी। पूरा राम दरबार-राम, लखन, सीता एवं आगे घुटनों पर बैठे हनुमान। दायें गणपति की एवं बाँये शिव-पार्वती की भी छोटी-छोटी मूर्तियाँ अलग से काँच की अलमारी में रखी थीं। मूर्तियों का शिल्प इतना अद्भुत था मानो वे मुँह से बोलना चाहती हो।
मंदिर में बैठना कितना सुकून देता है, यह मैं आज पहली बार ही जान पाया। बैठे-बैठे बिट्टू ने मौन तोड़ा।
“अंकल, क्या भगवान सच्ची में होते हैं?”
“हाँ, होते हैं। सामने तो खड़े हैं।” एकाएक मुझे यही उत्तर सूझा।
“क्या वो हमें हर वक्त देखते हैं?”उसने बात आगे बढ़ाई।
“हाँ, वे सब कुछ देखते हैं एवं सब कुछ जानते भी हैं।”
“तो क्या वो मम्मी को बता देंगे कि मैं स्कूल से गोत मारता हूँ?”
मैंने मन-ही-मन सोचा, कितना कमीना है तू बिट्टू। खुद बेईमानी करता है, दूसरों से करवाता है एवं ऊपर से आडे-टेढे़ सवाल करता है। आज के बच्चे तो बाप से भी बढ़कर है। कच्चा तो मैं हूँ जो तेरे झाँसे में आ गया। खैर, बिट्टू से बिगाड़ने से तो सब गुड़ गोबर हो जायेगा, मैंने बात को संभाला
“नहीं, भगवान ऐसा नहीं करते, वे किसी की चुगली नहीं करते। वे सदैव चुप रहते हैं।”
“तो क्या वे सच कहने से डरते हैं?”
“नहीं, वे अपने तरीके से सब कुछ समझा देते हैं।”
मेरा उत्तर सुनकर वह विचारमग्न हो गया पर बोला कुछ भी नहीं, ठीक सामने वाली मूर्तियों की तरह। दोनों में मानो समान भावगम्यता आ गई थी। कुछ देर वह अपलक मूर्तियों की ओर देखता रहा। जाने क्या सोचते-सोचते उसने पुनः मौन तोड़ा।
“अंकल, गणेशजी की सूंड हाथी की और बाकी शरीर आदमी का क्यों है?”
मैंने उसे कथा समझायी तो उसकी जिज्ञासा और बढ़ गयी।
“तो क्या आदमी के ऊपर भी गधे का सर लगाया जा सकता है?” उसने प्रश्न किया।
मैंने मन-ही-मन सोचा ऐसा तो पहले से है पर बात संभालते हुए बोला, ‘‘नहीं! कुछ करतब भगवान ही कर सकते हैं। वे सर्वशक्तिमान हैं ।’’
शायद उसकी जिज्ञासा का समाधान नहीं हुआ।
इस बार उसने प्रश्न बदला। ‘अच्छा अंकल! यह बताओ, इनका वाहन चूहा क्यों हैं? क्या इन्हें ढंग की सवारी नहीं मिली? चूहा दब गया तो? इतने भारी गणेशजी चूहे पर क्यों बैठते हैं, घोड़े पर भी तो बैठ सकते हैं?”
“भगवान की इच्छा है बिट्टू! वो चाहे जिस पर सवार हों” पता नहीं मेरे उत्तर से वह संतुष्ट हुआ या नहीं पर अब उसका ध्यान हनुमानजी की ओर था।
“अंकल, हनुमानजी ऊपर से हमारे जैसे एवं नीचे से बंदर जैसे क्यूँ लगते हैं?”
इस कथा का मुझे ज्ञान नहीं था। मैंने फ्लूक मारा-
“हनुमानजी रामभक्त है। रामजी के भक्तों के साथ कुछ भी संभव है।”
उसका बस चलता तो वह प्रश्नों का अंबार लगा देता। उसे दबाते हुए मैं चिढ़कर बोला, ‘‘मैंने कहा ना, रामजी कुछ भी कर सकते हैं।’’
“फिर दादाजी के पूँछ क्यों नहीं है? वे भी तो रोज रामजी की पूजा करते हैं।” उसने सहमे-सहमे पूछ ही लिया।
मुझे मालूम नहीं था वो मेरी ऐसी गत करेगा। बचपन में सुनी एक कहावत मुझे आज गूढ़ार्थ से समझ में आयी, जबरो मारै और रोवण भी नहीं दे।
मैंने अपना सर खुजाया। मन-ही-मन सोचा एक तो तू स्कूल नहीं जाता, फिर तोप की तरह प्रश्न दागता है। अब यह नहीं पूछ लेना- अंकलजी, आपके पूँछ क्यों नहीं हैं। अगर मेरी होती तो तुझे लपेट-लपेट कर पटकनी देता। हड्डियाँ टूटती तो सब समझ जाता। लेकिन एकाएक मुझे उत्तर मिल गया।
“हनुमानजी हजारों सालों से तपस्या कर रहे हैं। दादाजी ने अभी उतनी भक्ति नहीं की।”
शायद इस उत्तर से भी वह संतुष्ट नहीं हुआ। मैंने उसके चेहरे के भाव ताड़ लिये। बात बदलते हुए बोला, “बिट्टू , भूख लगी है यार। तेरा टिफिन कहाँ है?”
वह भी मेरी होशियारी ताड़ गया। इस बार साफ ही कह डाला, “जवाब नहीं आता क्या? आपके पास कुंजी नहीं है ?”
“अरे छोड़ यार, पहले पेट पूजा पीछे काम दूजा !” मैंने उत्तर दागा।
“अगर आप आईसक्रीम खिलाओगे तो मैं खाना खिलाऊंगा।” मुझे श्रीहत देख उसने पैंतरा फेंका। मैं तुरन्त मान गया।
उसने टिफिन निकाला। एक पराठा उसने खाया, एक मैंने। वादे के अनुसार मैंने उसे आईसक्रीम खिलायी। आईसक्रीम खाकर हम दोनों प्रसन्न थे।
हम पुनः मंदिर के प्रांगण में थे। मंदिर परिसर बहुत बड़ा था।
इसके बाद कई देर तक हम मंदिर में लगे झूलों पर झूलते रहे। लकड़ी के बेलेंस सी-साॅ पर हम दोनों उपर नीचे हो रहे थे। यहाँ से थके तो फिसलपट्टी पर। दोनों कितने प्रसन्न थे। सुबह बारिश होने से फिसलमपट्टी के नीचे गड्डे में पानी भर गया था। हम नीचे आते तो पानी छपाक से मुँह पर उछलता।
अब तक दो बजे थे। लंच लेने के बाद उसे ऊंघ आने लगी। उसने अंगूठा मुँह में डाला और सो गया। मुझे याद आया बचपन में मैं भी अंगूठा चूसता था। मैंने इधर-उधर देखा, मंदिर में कोई नहीं था। मैंने भी एक मिनट अंगूठा चूसा। ओह, अंगूठा चूसने में कितना सुख है, पल भर में सारे दुख चले गये। न जाने अंगूठा चूसने पर हम बच्चों को क्यूँ टोकते हैं?
तीन बजे उसके कुछ साथी आ गये। वह भी नींद से उठ गया। इसके बाद हम सबने मिलकर कई खेल खेले- गोल गोल पानी, मम्मी मेरी रानी, पापा मेरे राजा… फिर ‘जल-थल’। कभी थल पर तो कभी गड्डे के जल पर, छपाक…….छपाक। कपड़े खराब हो गये पर परवाह कहाँ। बाद में अक्कड़-बक्कड़, लुका-छिपी और जाने क्या-क्या खेल मैंने बिट्टू के साथ खेले। खेलते-खेलते बच्चे कई बार रूठ जाते, कई बार झगड़ लेते लेकिन अगले ही पल समझौता हो जाता। उनके हृदय का निर्मल प्रवाह द्वेष एवं दंभ के कीचड़ को यूँ बहा ले जाता।
इसी दरम्यान एक गुब्बारे वाला आया। मैंने सब बच्चों को गुब्बारे दिलाये एवं एक गुब्बारा लेकर खुद भी खड़ा हो गया। ओह, आज मैं कितना प्रफुल्लित था, लगा जैसे गुब्बारे के साथ उड़ रहा हूँ। इस छोटे से अंतराल के शैशवबोध ने मेरे सारे दुःखों को सोख लिया। मन बच्चे की तरह निर्मल हो गया। गत चार दिन का दुख एवं तनाव कपूर की तरह उड़ गया। लगा जैसे एक दिन का बादशाह बन गया हूँ।
इंसान अगर एक दिन, मात्र एक दिन बच्चे की तरह निर्मल हो जाये, उसी की तरह हँसे, उसी की तरह रोये, उसी की तरह गुदगुदाये तो उसके वर्षों का दुख पिघल सकता है। निर्मल, स्वच्छंद मन में ही प्रसन्नता निवास करती है। हम पापाचार करते हैं, झूठ बोलते हैं, अहंकार एवं दंभ पालते हैं, लोभ और मोह में ग्रस्त रहते हैं फिर प्रसन्नता हमारे समीप कैसे आयेगी?
अब पाँच बजे थे। करीब इसी समय मैं आफिस से एवं बिट्टू स्कूल से घर पहुँचते थे। मैंने स्कूटर उठाया एवं बिट्टू को पुकारा।
स्कूटर पर चढ़ने के पहले बिट्टू एक पल ठिठक गया, पूछा तो बोला, ‘‘अंकलजी, मैं चार दिन से स्कूल नहीं जा रहा। आज मैं मम्मी को सब कुछ सच- सच बता दूंगा।’’
“फिर पिटाई होगी तब।”
“कोई बात नहीं! आप ही ने तो कहा था भगवान सब देखते हैं। हमें झूठ नहीं बोलना चाहिये।”
मैं फिर फँस गया।
“मेरी बला से। लेकिन आज मैं तुम्हारे साथ रहा, यह बात तुम्हारी मम्मी को नहीं बताना। एक तो तेरे चक्कर में अवकाश लेना पड़ गया फिर इल्जाम और भुगतो।” मुझे लगा होम करते हुए हाथ जल गये, नकाम पड़ौसी की नजरों में गिर जायेंगे।
वह मात्र मुस्कराकर रह गया, मंदिर की निर्मल मूर्तियों की तरह।
घर पहुँचा तो मेरे मन में द्वंद्व मचा था। मन कह रहा था अधूरा शैशव क्यों जीते हो। बिट्टू बने हो तो पूरे बनो। तुम भी बीवी से सच क्यों नहीं कह देते कि तुमने उसका जेवर बेचा है। क्या तुममे बिट्टू जितना भी साहस नहीं?
तालाब से मानो काई हट गयी। नीचे सिर्फ स्वच्छ, निर्मल जल था।
रात मैंने बीवी को सब कुछ बता दिया। सच कहते-कहते मेरी आँखें डबडबा आयी। आखिर इस तनाव को मैं कब तक झेलता ?
पर यहाँ तो बात उल्टी हो गयी।
मुझे देखकर उसकी आँखें भर आयी,”बस इतनी-सी बात को लेकर आप तनाव में हैं। अरे, मेरा असली गहना तो तुम हो। मेरे लिए यही क्या कम है कि आपने यह सब मेरे लिए किया। मुझे प्रसन्न करने के लिये इतना बड़ा दाव लगाया। इससे बड़ा उपहार क्या हो सकता है ! आज मैं सब कुछ पा गयी।”
कहते-कहते वह मुझसे लिपट गयी। दो निर्मल मन दो तारों की तरह आज सुख के आकाश पर चमक रहे थे।
दूसरे दिन सुबह ऑफिस जाने लगा तो बिट्टू की माँ ने इशारे से पूछा,”बिट्टू तो आज बस में चला गया। आपका क्या इरादा है?”
इस प्रश्न का उत्तर मेरे पास कहाँ था। मैं अगले ही क्षण स्कूटर पर हवा की तरह उड़ रहा था।
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15.11.2006