बिना मरेे स्वर्ग नहीं मिलता। आखिर मैंने मन कड़ा करके सेठ किशोरीलाल से पचास हजार रुपये रिश्वत के ले ही लिए। सारे कुएँ में जब भांग घुली हुई है तो मेरे एक और भंगेड़ी बन जाने से जगत् में क्या परिवर्तन आ जाएगा? सभ्यता और संस्कारों का मूल्य वहाँ है जहाँ लोग इनकी कद्र करते हैं। काँच के टुकड़ों के ढेर में हीरे का क्या मूल्य?
उस रात मैं सो भी नहीं पाया, रात आँखों में ही बीती। जीवन में प्रथम बार पाप करने पर जो मनोमंथन होता है, जो मन पर बोझ आता है, अंतःकरण से युद्ध होता है, हृदय में जो तूफान उठते हैं वे संभवतः निरंतर पाप करने के अनुभव के साथ धूमिल हो जाते हैं। मैल पर मैल चढ़ाने में विशेष दिक्कत नहीं आती। मुर्दे पर सौ मन मिट्टी डालो अथवा हजार, कोई फर्क नहीं पड़ता। स्वच्छता पर मैल का प्रथम आक्रमण ही महत्त्वपूर्ण है। इसी युद्ध में विजय या पराजय अहम् होती है। आत्म-निर्णय की यही घड़ी मनुष्य के जीवन का इतिहास लिखती है। एक बार दर्पण पर मैल चढ़ गया, एक बार पानी पर काई चढ़ गई फिर इंसान अपने पापों को ‘जस्टीफाई’ करना सीख लेता है। एक बार अंतःकरण की आवाज को बेरहमी से दबा दो, फिर कोई आवाज भीतर से नहीं आती।
सारे ऑफिस में मेरी स्थिति तीन लोक से मथुरा न्यारी वाली थी। सभी जानते थे माथुर साहब सतयुग के आदमी हैं। इन्हें समझाने से कोई फायदा नहीं। यह व्यक्ति स्वयं के लिए सरदर्द है, हमारे लिए एवं जनता के लिए भी। शहर में सभी बैंक मैनेजर खाते और खिलाते हैं। स्टाफ व पब्लिक दोनों खुश, पर इस बांस में कोई लोच नहीं।
मेरे लखनऊ शाखा ज्वाॅईन करने के बाद सभी स्टाफ मेम्बर्स मुझसे खफा रहते थे। स्टाफ के साथ पहली मीटिंग में ही मैंने कह दीया था, ‘‘हम जनता के सेवक है मालिक नहीं। मेहनत और ईमानदारी से कार्य करके ही हम जनता का दिल जीत सकते हैं। अन्य सरकारी महकमों के मुकाबले हमें अधिक तनख्वाह, भत्ते एवं रियायतें मिलती हैं अतः हमारी भावना भी अन्य महकमों से बेहतर सेवा की होनी चाहिए। मैं आपको स्पष्ट ही कह देना चाहूंगा कि न मैं बेईमानी करता हूँ, न करने दूंगा। मेरा अनुरोध है कि आप हमारी संस्था की छवि स्वच्छ, साफ सुथरी एवं पारदर्शी रखें। मुझे उम्मीद है आप सभी मुझे वांछित सहयोग देंगें। टीम भावना ही विजय की कुंजी है, गोल का सेहरा भले एक खिलाड़ी के सर जाए पर सभी जानते हैं कि पूरी टीम मिलकर ही गोल करती है।’’ कहते-कहते मेरा चेहरा आत्म-गौरव की आभा से आलोकित हो रहा था।
उसी दिन स्टाफ मेम्बर्स को समझ में आ गया कि नया मैनेजर कबाब में हड्डी है। शाम बैंक से निकला तो सभी कानाफूसी करते नजर आए। हरी-हरी खाने वालों को सूखी गले नहीं उतरती। ‘डाढ बांध’ और नजराने के बिना नौकरी में रखा क्या है ? यह एक आपातकालीन स्थिति थी। सभी नई रणनीति बनाने में लग गए। सबको मालूम था इस मुसीबत का एक ही हल है- सेठ किशोरीलाल। वही किल्ली घुमाने में माहिर है। उसने अच्छे-अच्छों की ईमानदारी कब्र में दफनाई है, इस बांस की गांठ भी वही तोड़ सकता है।
उस रात मैं उमा को बैंक में हुई मीटिंग के बारे में बता रहा था। पत्नी से अधिक विश्वासपात्र राजदार और कौन हो सकता है ? उमा मेरे स्वभाव को जानती थी। सिद्धान्तों के प्रति मेरी चारित्रिक दृढ़ता पर मन ही मन मुझे आदर भी देती थी। उसे मालूम था हर मैनेजर ऋण देने में दो-तीन प्रतिशत रिश्वत डकारता है पर इनकी मिट्टी अलग है। दरअसल उसे इस बात का फ़ख्र था कि हमारे घर में मेहनत एवं ईमानदारी की रोटी आती है। पत्नी पति का आईना होती है। कई रिश्वतखोर जब पकड़े जाते हैं तो उनकी पत्नी साफ कह देती हैं, मुझे क्या खबर ये क्या करते थे ? मैं नहीं मानता कि पत्नी को पति के चरित्र के बारे में पता नहीं होता, अगर पत्नी अबूझ अंधी गाय हो तो मैं नहीं कह सकता। कई बार मैं उमा को कहता, रिश्वत इंसाफ को निगल लेती है। वे कैसे लोग हैं जो रिश्वत ले लेते हैं ? क्या इंसानियत एवं अपनी आत्मा का खून करते हुए उन्हें जरा भी शर्म नहीं आती? मेरी बातें सुनते-सुनते उमा की मुख-ज्योति देखने लायक होती। युग प्रवाह के अनुरूप कभी-कभी आशंकित भी हो उठती। तब ईश्वर से यही मनौती करती प्रभु इनको कभी आजमाइश पर न रखना।
सेठ किशोरीलाल हमारी बैंक के पुराने खातेदार एवं शहर के नामी ठेकेदार थे। अधिकारियों का दिल जीतने की कला में वो पारंगत थे। उन्हें पता था हर आदमी की मिट्टी अलग होती है। आदमी का स्वभाव उसके अहंकार से तादात्म्य किए हुए होता है। किसी के स्वभाव को बदलना इतना सरल नहीं होता। पहले मिट्टी ढीली होती है, फिर ढहती है। बैंक के स्टाफ सदस्यों से उन्होंने मेरे बारे में पूरी जानकारी ले ली थी। बैंक से रात दिन उन्हें ओवरड्राफ्ट्स, ऋण आदि की जरूरत पड़ती रहती अतः मैनेजरों से उनके सदैव अच्छे सम्बन्ध थे। सेठ किशोरीलाल मानव मनोविज्ञान के चितेरे थे। एक बात वो अच्छी तरह जानते थे कि हर आदमी में एक कमजोरी अवश्य होती है। उसी कमजोर नस को दबाकर उस पर नियंत्रण किया जा सकता है। पुरानी जिन-जिन जगहों पर मैंने काम किया था वहाँ से उन्होंने पता लगा लिया कि मेरी ईमानदारी असंदिग्ध है पर उन्हें यह भी पता चल गया कि माथुर साहब सुरा के शौकीन है। सुरा-पान इनकी पारिवारिक थाती है। शाम अक्सर एक-दो पैग ले लेते हैं। यह सूचना मिलते ही उनके होठ फैल गए, चेहरे पर एक कुटिल मुस्कुराहट दौड़ गई जैसे अवचेतन मन में कोई विजय दुंदुभी बज रही हो। एक सिद्धहस्त खिलाड़ी की तरह उन्होंने आगे की योजना बनाई। पाप की एक जड़ पूरे वृक्ष को खोखला कर सकती है। आत्मविस्मृति, आत्महनन की पहली सीढ़ी होती है।
कुछ दिन बाद मेरे पुत्र अर्पित की वर्षगांठ पर सेठ किशोरीलाल सपरिवार हमारे घर आए। न जाने उन्हें यह बात कहां से पता चल गई। उस दिन उनके हाथ में सिर्फ एक पुष्प-गुच्छ था जिसे उन्होंने मेरे पुत्र को दिया। बातों ही बातों में उन्होंने अर्पित की इस बात के लिए भूरि-भूरि प्रशंसा की कि पिछले साल उसने क्लास में टाॅप किया है एवं डिस्ट्रिक्ट टेबल-टेनिस चैम्पियनशिप भी जीती है। औलाद कलेजे का कोर होती है, अर्पित की तारीफ सुनकर मैं गद्गद हो रहा था। उनके तारीफ करने के सलीके ने मुझे आत्ममुग्ध कर दिया।
एक अच्छे ग्राहक को सम्मान देना मेरा भी कर्तव्य था। मैंने उन्हें डिनर पर आमंत्रित किया। सेठ किशोरीलाल ने बातों ही बातों में उमा से मेरी ईमानदारी की भी प्रशंसा की। डिनर के पहले उन्होंने उन्मुक्त अट्टहास के साथ कहा, ‘‘भई माथुर साहब! आज तो बच्चे की बर्थ-डे है, एक-दो पैग आपके साथ जरुर लेंगे।’’ यह कहते हुए उन्होंने ड्राइवर को गाड़ी से व्हिस्की की बोतल लाने को कहा। मैं न जाने क्यों उस दिन मना नहीं कर पाया। इतनी परिष्कृत ईमानदारी मुझमें न थी।
व्हिस्की के प्रथम पैग के साथ ही देह विस्मृत होने लगी। गीली मिट्टी जल्दी ढहती है। बातों ही बातों में सेठ किशोरीलाल ने मुझे बताया कि उनके मेरे उच्चाधिकारियों से अच्छे सम्बन्ध है एवं उन्होंने कई पुराने मैनेजरों का प्रमोशन भी करवाया है। मेरा भी प्रमोशन ड्यू था, मैं भी मन-ही-मन उनसे फेवर की बात सोचने लगा। दूसरे पैग के साथ हमारे रिश्तों की औपचारिकता और कम हुई। अब तरह-तरह के विषयों पर बात चलने लगी।
इन दिनों मैं मेरे मकान निर्माण को लेकर शारीरिक, आर्थिक रूप से त्रस्त था। मैंने सेठ किशोरीलाल से मकान निर्माण की परेशानियों का जिक्र भी किया। एक कुशल ठेकेदार की तरह उन्होंने सस्ते भवन निर्माण के कई तरीके सुझाए। सेठ किशोरीलाल परले सिरे का घाघ था, मेरी दुखती नस को दबाकर बिल्ली मारने की योजना उसके अनुभवी दिमाग में उभरने लगी।
आज के विषयों में रिश्वतखोरी का विषय भी उभर कर आया। सेठ किशोरीलाल का विवेचन इस विषय पर सटीक था। उनकी व्यावहारिकता एवं वाक्चातुर्य देखते ही बनता था। हलक से पैग उतारते हुए वह बोले, ‘‘इस दुनिया में कौन ईमानदार है? वही जिसे बेईमानी का मौका नहीं मिला या जिसमें अपने भाग्य को उलटने का साहस नहीं है। क्या हम समग्र रूप से ईमानदार हो भी सकते हैं? माफ करना! कल आपकी बेटी की शादी होगी तो क्या यह काम आप बिना दहेज दिये कर देंगे। तो फिर क्या दहेज देना अपराध नहीं है? क्या इसके औचित्य को आप ठहरा सकते हैं? सत्य एक सम्पूर्ण सिद्धान्त है। हम एक जगह ईमानदार एवं दूसरी जगह बेईमान नहीं हो सकते? पूरी दुनिया में अन्धेर मची हो तो हम अलग से खिचड़ी नहीं पका सकते? हम भीड़ का हिस्सा हैं, समाज के अंग हैं फिर अकेले अलग कैसे खड़े हो सकते हैं ? दुनिया में दिखलाई देने वाले सभ्य और सुसंस्कृत लोग पर्दे में कितनी असभ्यता एवं अनाचार को छिपाये हुए हैं, आप सोच भी नहीं सकते। सभ्यता, असभ्यता को छिपाने की कला के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। ऐब को हुनर चाहिए। जब तक सामाजिक व्यवस्थाएँ नहीं बदल जाती कोई भी व्यक्ति समग्र रूप से ईमानदार हो भी नहीं सकता। क्या बिना कुछ लिये-दिये आप समझते हैं कि आप प्रमोशन पा लेंगे? हरगिज नहीं! आपके देखते-देखते आपके जूनियर्स सीढ़ियाँ लांघ जाएंगे, तब क्या उनके अधीनस्थ काम करने में आप हीनता का अनुभव नहीं करेंगे? आपके स्टाफ मेंबर्स आपकी बखिया उघाड़ने की रणनीति बना रहे हैं। क्या आप सभी से युद्ध कर लेंगे? क्या आप नाव को हवा के विपरीत खे सकते हैं?’’ अब तक किशोरीलाल तीसरा पैग बना चुके थे। तर्क के स्तर पर उनकी बातें मुझे व्यवहारसिद्ध लगने लगी। वाकई अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। आज मुझे मकान बनाते एक वर्ष होने को आया, अभी आधा भी पूरा नहीं हुआ जबकि बैंक का लोन खत्म होने को आया। सहारा तो हर एक को चाहिए। कार के पहिए भी ग्रीज लगाने पर सरपट दौड़ते हैं। अपने घर में दिया जलाकर मंदिर में जलाया जाता है। मुझे हैरत थी आज मैं भी किस तरह सोचने लगा था। संगति अपना असर अवश्य दिखाती है। मैं सेठ किशोरीलाल की अंटी चढ़ गया।
सेठ किशोरीलाल के साथ मेरी बैठकें अक्सर होने लगी। इन दिनों उन्हें नये ठेके स्वीकृत हुए थे एवं मैं मकान निर्माण की उधेड़बुन में फंसा था। आज फिर उनके साथ मेरे मकान निर्माण की बात छिड़ गई। इंसान का तात्कालिक दुःख चर्चा का विषय बन ही जाता है। बहता पानी अपना मार्ग स्वयं बनाने लगता है। बातों ही बातों में मैंने उन्हें फिर अपनी समस्या बताई। आज लोहा गरम था, सेठ किशोरीलाल ने तपाक से मेरे हाथ में पचास हजार का पैकेट थमा दिया। उन्होंने कहा, ‘‘माथुर साहब! अपना समझकर यह भेंट स्वीकार कर लें। आप निश्चिंत रहे, किसी को कानों-कान खबर नहीं होगी। आपकी ईमानदारी पर कोई अँगुली नहीं उठा सकेगा।’’ न जाने किस शक्ति से प्रेरित होकर मैंने यह रकम रख ली।
सिद्धांतों का स्तंभ पल भर में ढह गया। पाप के पिशाच ने सत्य की शक्ति को पलक झपकते कुचल डाला। धर्म ने अपना पूरा बल लगा दिया पर मन का प्रबल वेग न रुक सका। मैं घर आई लक्ष्मी को ठुकराने का साहस न बटोर सका। गरज के बावले सेठ ने अपनी चतुराई से मुझे गधे पर चढ़ा ही दिया। विधाता के सभी काम उलटे हैं, तभी तो चन्द्रमा में कलंक है।
रात करवट पर करवट ले रहा था। हृदय में हाहाकार एवं दिमाग में संग्राम मचा हुआ था। उमा को पचास हजार का पैकेट देते वक्त मैंने यही कहा था कि मैंने अतिरिक्त ऋण लिया है। उमा ने कुछ पूछने का प्रयास भी किया, पर मैंने उसे झिड़क दिया। मेरे इस अप्रत्याशित व्यवहार से वह हैरान थी। मैं रह-रह कर, पलंग से उठ कर बाहर आता, फिर भीतर जाता। कहाँ बिस्तर पकड़ते ही नींद आ जाती थी एवं कहाँ मनोमंथन ने सारी नींद हर ली। क्यों माथुर ? क्या जीवन के सारे सिद्धान्त पल भर में ढह गए? जगत से सब कुछ छिपा लोगे पर अपनी आत्मा एवं परमात्मा से कैसे परदा करोगे? कैसे बच्चों से कहोगे-सदैव सत्य पर रहो ? कैसे अब तन कर सर उठाकर चल सकोगे? क्या कल ऑफिस जाते हुए तुम्हारा सर शर्म से नहीं झुक जाएगा? क्या तुम्हारी आँखें उसी गुरूर से किशोरीलाल से बात कर सकेंगी? क्या अगली बैठक में स्टाफ को कहने का साहस जुटा सकोगे कि न मैं बेईमानी करूंगा न करने दूंगा ? क्या इस आत्म प्रवंचना का उत्तर दे सकोगे? क्या धन मनुष्यता से ऊपर है? क्या जीवन केवल धन है? क्या कल बैंक में उसी गौरवयुक्त भाव से चल सकोगे? क्या तुम्हारी आँख का पानी भी मर गया?
सदैव शांत रहने वाला मेरा मन आज विचारों के भंवर में ऐसा उलझा था मानो सिद्धांतों और संस्कारों का जहाज पानी में डूब गया हो। मैं स्वयं ही मेरे सिद्धान्त वृक्ष की कुल्हाड़ी बन गया। मन विकल वेदना से भर गया, प्राण सूखने लगे। हृदय में एक गहरी टीस उठने लगी। आत्मा ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी-इस दुनियां में क्या किसी का भी लोभ शान्त हुआ है? धन की प्यास अगस्त्य ऋषि की भाँति समुद्र को सोखकर भी शांत नहीं हो सकती। ईश्वर को क्या जवाब दोगे? अगर कलई खुल गई तो क्या मुँह दिखाओगे? सत्यप्रिय व्यक्ति के लिए अपयश करोड़ों मृत्यु के समान भीषण संताप देने वाला होता है। नराधम! तूने यह क्या कर डाला। तुम तो सिंह की खाल में सियार निकले। सदैव लोगों को ईमानदारी का उपदेश देते थे, अब क्या हो गया? कहनी लाख की करनी खाक की। खाने के दाँत और, दिखाने के और। क्या कलुषित जीवन के इन चिह्नों को मिटा सकोगे? क्या यह कालिमा उतर सकेगी? पाप हृदय पर कैंकड़े के समान चिपट गया। मुझे लगा मेरा पाँव बरसाती नदी में फिसल रहा है। बिस्तर से उठकर मैं सीधे छत पर आया।
बाहर सन्नाटा था। चन्द्रमा शीतल किरणों की बजाय आग बरसा रहा था। तारे पत्थर बने व्यंग्य कस रहे थे। चारों ओर घटाटोप अंधकार फैला था। रात नागिन-सी डसने को खड़ी थी। हृदय दुःसह दावाग्नि से भरा था। दसों दिशाएँ एक ही प्रश्न कर रही थी ,माथुर! तुमने यह क्या कर डाला ? अगर खौलते तेल में भी मुझे उस वक्त डाल देते तो शायद इतनी पीड़ा नहीं होती जितनी इस मनोमंथन से हो रही थी। इस जरदारी से तो मुफलिसी हजार गुना अच्छी थी। मेरी दलित, मंदित, अपमानित आत्मा मुझे उसका पूर्व सम्मान देने के लिए पुकारने लगी। विचारों के बवण्डर एवं झंझावत ने मुझे सारी रात सोने नहीं दिया। लगा जैसे काजल की कोठरी में काला मुँह किए खड़ा हूँ।
दूसरे दिन बैंक जाने के पहले ही मैं सेठ किशोरीलाल को पचास हजार रुपये लौटा आया। जाते हुए जहाँ मेरे पाँव मन-मन भर के हो रहे थे, आते हुए मैं धावक की गति से चल रहा था। पाप का बोझ उतरते ही मन का अंतर्द्वंद्व शांत हो चुका था।
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04.04.2002