उसे खुद नहीं मालूम उसका नाम क्या था ? चंद मसखरों ने मिलकर उसका नाम मलंग रख दिया और अब वह इसी नाम से जाना जाता था। जिसके नाम का पता नहीं उसके माँ-बाप का ठौर-ठिकाना कौन बताये ? कहते है वर्षों पहले श्रावणी अमावस्या के मेले में उसके माँ-बाप शिव मंदिर के बाहर उसे छोड़ गए थे। तब वह मात्र पाँच वर्ष का था।
यहीं मंदिर के बाहर साधु संतों एवं फकीरों के डेरे में पड़ा रहता। वही उसे बचा-कुचा टुक्कड़ डाल देते। प्रकृति के शाश्वत नियमों के साथ पलकर वह बड़ा हुआ।
कहते हैं तब मलंग बहुत सुंदर लगता था। बच्चा था पर जैसे फूल की खुशबू बिना प्रयास फैल जाती है वैसे ही उसका अबोध खिला चेहरा देखकर सब यही कहते किसी अच्छे कुल का लगता है। काले रेशमी बाल, तीखे नक्श, बड़ी-बड़ी आँखें एवं मुख पर बसे तेज से वह राजकुमार लगता। सभी की बढ़-चढ़कर मदद भी करता। चाहे मंदिर का काम हो, चाहे पनघट पर पानी भरवाने का अथवा खेतों में मदद करने का, मलंग दौड़कर हाथ बँटाता। लोग राह चलते उसे काम पकड़ा देते। एक बार पनघट पर उसने एक वृद्ध महिला की मदद की तो वह विह्वल हो उठी। अपनी छाती से चिपकाकर बोली, “वह कैसी माँ होगी जो तेरे जैसे पूत को छोड़ गई। नरक में पड़े ऐसे माँ-बाप।” तब मलंग उसके नजदीक आकर बोला, “वह नहीं छोड़ती तो तेरी जैसी माँ कहाँ मिलती !” उस दिन वृद्धा की आँखें स्नेह से भीग गई थी।
वह दस वर्ष का रहा होगा तब मंदिर में एक औघड़ आए। कैसा दिव्य रूप था उनका। ललाट एवं सारे शरीर पर भभूति रमाये हुए थे। उनकी आँखों में चाँद-सूरज का-सा तेज बसा था।
मलंग दिन-रात उनकी सेवा में लग गया। उनके लिए खाना लगाना, पूजा का सामान लाना, बगीचे से पुष्प लाना, रात में बिस्तर लगाना एवं यहाँ तक कि उनके कपड़े भी वही धोने लगा। कई बार रात को पाँव भी दबाता। औघड़ उसके सेवा भाव से अभिभूत हो गए। न जाने उन्होंने मलंग में क्या देखा। जाते हुए उन्होंने मलंग के सर पर चिमटा घुमाया, भभूत डाली एवं फिर मलंग भी वैसा ही औघड़ हो गया। जैसे नदी समुद्र में मिलकर अपनी निजता एवं अस्तित्व खो देती है मलंग भी उस दिव्य स्पर्श को छूकर कुछ विचित्र रूहानी शक्तियों से भर गया। उसका देहभान जाता रहा। देह से विलग होकर ही तो कोई देहातीत बनेगा।
इस घटना के बाद मलंग विचित्र तरह के व्यवहार करने लगा। साधारण मनुष्य असाधारण परिधियों में प्रविष्ट होता है तो उसकी यही गत होती है!
अब तो इस बात को भी पन्द्रह वर्ष होने को आए। मलंग इन वर्षों में बाँस की तरह बढ़ गया। उसकी बढ़ी हुई दाढ़ी एवं चिथड़े कपड़ों को देखकर अब कौन कहेगा कि कभी वह राजकुमार लगता था।
मलंग जब भी शहर के बाजार से निकलता तो हँसी के फव्वारे फूट पड़ते। कभी नंगा तो कभी अधनंगा। कभी सड़ी-बासी चीजें खाता हुआ मिलता तो कभी एक दम ताजा फल उसके हाथों में होते। कभी किसी मिठाई वाले से पकवान ले आता तो कभी किसी समारोह से व्यंजन उठा लाता। बस मुँह में ठूँस-ठूँस कर खाता रहता। हाँ, यह बात अवश्य थी कि वह ताजा अथवा बासी दोनों अनासक्त भाव से खाता। न बासी खाने में उसके चेहरे पर शिकन आती न ताजा खाने से वह प्रफुल्लित होता। उसका व्यवहार भी बेतरतीब था। कभी खिलखिलाकर हँसता तो कभी बेहिसाब सिसकियाँ भरता। कई बार आसमान की ओर देखकर जाने क्या बातें करता।
एक बार न जाने कहाँ से दूल्हे के कपड़े उठा लाया। उस दिन हँस-हँस कर सबको कह रहा था, ‘देखो ! मैं दूल्हा बन गया।’ उसे इस रूप में देखकर कुछ मनचले उसे छेड़ने लगे, “अरे दूल्हे राजा! हमें भी बारात में ले जाओगे क्या?”
मलंग ने मुँह में अंगुली दबाकर हाँ कहने के भाव से गर्दन हिलायी।
एक मनचला कुछ ज्यादा ही आशिकमिजाज था, गले में पड़ा रूमाल दोनों हाथों से ऊपर-नीचे करता हुआ बोला, “सुहागरात को दुल्हन के दर्शन भी करवायेगा क्या?” बस इतना सुनते ही मलंग बिखर गया। उसका चेहरा लाल हो गया, मुँह से झाग गिरने लगे।
मनचले सहम गए। सभी वहाँ से जाने लगे तो उनमें से एक बोला, “अरे दूल्हे के मुँह से लार पड़े तो बाराती क्या करेंगे।”
मलंग पत्थर उठाकर मारने लगा तभी एक व्यापारी दौड़ा-दौड़ा आया। मलंग उसी की दुकान से ड्रेस लेकर भाग आया था। हाँफते हुए उसने मलंग को दो थप्पड़ रसीद किए, चीखकर बोला, “अरे पागल! उतार यह कपड़े, तू दूल्हा बन गया तो समझ ले पीछे पागलों की जमात खड़ी हो जाएगी।’” यह सुनकर मलंग बौखला गया। गुस्से में कपड़े उतारते हुए बोला, “रोयेगा साला! मैं दूल्हा क्यों नहीं बन सकता।” व्यापारी कपड़े लेकर जाने लगा तो एकाएक उसका पाँव सड़क पर पड़े गोबर पर पड़ा। देखते-ही-देखते ऐसा फिसला कि सीधा किनारे वाली नाली में गिरा। सारे कपड़े कीचड़ से सन गये। तब मलंग बेतरतीब हँसता ही गया।
खुदा जाने उसकी इन हरकतों का क्या मतलब था ? क्या वह मूर्ख था अथवा जगत की मूर्खता जान गया था? क्या वह अंधा था अथवा जगत की फूटी आँखों को पहचान गया था? क्या वह बावरा था या ऐसा महाज्ञानी जो प्रकृति के पार झाँक सकता था? क्या वह आसमान से बातें करता था या आसमान से कोई उससे बतियाता था? क्या प्रकृति के सेतुओं को तोड़कर वह उस असीम को जान गया था? फिर वह बावला क्यों न होता, सीमित शक्तियाँ अगर असीम में प्रविष्ट करेगी तो असंतुलन होगा ही।
समाज एवं संस्कृति की परिधियाँ तो वह लांघ गया था पर दैहिक आवश्यकताएं कई बार उसे परेशान करती। वह प्रकृति के मूल सिद्धान्तों के अनुरूप जीना चाहता था पर यह कैसे संभव था। प्रकृति तो उन्मुक्त व्यभिचार के नियम पर बहती है, समाज में रहने वाले एक मनुष्य के लिए यह कैसे संभव होता। वह रातों में कई बार चीखता हुआ नजर आता। कई बार औरतों के पीछे पड़ जाता, तब औरतें दौड़कर अपने किवाड़ बंद कर लेती। इन हरकतों की वजह से कई बार पिटते-पिटते बचा। लोग उसके बचपन को याद कर अथवा पागल समझकर उसे छोड़ देते। दूसरे दिन वह फिर सड़कों पर भागते हुए नजर आता।
चमत्कार को नमस्कार है। कुछ ऐसी आश्चर्यजनक घटनाएँ घटी कि मलंग के पौ-बारह हो गए। एक दिन एक औरत लड्डुओं से भरी थाली सिर पर रखे बाजार से निकल रही थी। मलंग उसके पीछे ऐसे पड़ा जैसे सुगंध का लोभी भंवरा मालिन की फूलों की टोकरी के पीछे लग जाता है। वह बार-बार उसे छूकर कहने लगा, ‘एक लड्डू दे ना!’ औरत अधेड़ उम्र की थी, किसी शुभ काम के लिए निकल रही थी। मलंग को वह वर्षों से जानती थी, आँखें तरेर कर बोली, ‘‘यह मुँह और मसूर की दाल। चल हट बावरे ! लड्डू चाहिए पागल को।’’
“दे दे, दे दे! तुझे पुण्य लगेगा।” मलंग उसे फिर छूते हुए बोला।
“गधे को खिलाये पुण्य नहीं होता।” औरत भी पूरी तेज तर्रार थी।
“लगेगा, लगेगा! जरूर पुण्य लगेगा।” मलंग पुनः छेड़ते हुए बोला।
“कभी आईने में शक्ल देखी है अपनी।” औरत ने नहले पर दहला दिया।
तब मलंग खिलखिलाकर हँस पड़ा। उस दिन उसने कत्थई रंग का तार-तार कुर्ता-पायजामा पहन रखा था। दाढ़ी बेतरतीब, जटाजूट बढ़ी हुई थी। शायद दस दिन से नहाया भी नहीं होगा। शरीर और मुँह से बदबू आ रही थी। शरीर से पतला एवं लंबा था अतः चलते-चलते एक-दो बार गिर पड़ा था। औरत की बात सुनकर बोला, “अरे शक्ल में क्या है। इंसान की रूह पाक होनी चाहिए। अगर अंतस उज्ज्वल नहीं हो तो सब बेकार है।” वह चिमटा बजाते हुए बोला। इन दिनों वह हाथ में चिमटा भी रखने लग गया था।
“सुबह-सुबह सर मत खा, यूँ रास्ते में ही लड्डू बँटने लग गये तो हो गया काम।” औरत मुँह चढ़ाते हुए बोली।
“शक्ल से तो इतनी सोहणी लगती है फिर जबान से आग क्यूँ उगलती है? बस एक लड्डू दे दे !” मलंग और नजदीक आते हुए बोला।
औरत और चिढ़ गई। आँखें चढ़ाकर बोली, ‘‘जूती खाएगा क्या! अब आखिरी बार कह रही हूँ, दफा होता है कि बुलाऊँ लोगों को। बिना नकेल का ऊँट पिटने से ही मानता है।’’
इस बार मलंग कुछ पीछे हट गया। आसमान की तरफ मुँह कर जोर से अट्टहास किया कि एक आश्चर्य घटित हुआ। देखते ही देखते औरत के हाथ से थाली सरक कर नीचे गिर गई, सारे लडडू सड़क पर बिखर गये। मलंग हँसते हुए आगे आया, एक लड्डू उठाया एवं मुँह में डालते हुए बोला, ‘‘अब बोल! पहले खिला देती तो एक ही लड्डू कम होता। अब देख लड्डू कुत्ते खा रहे हैं। तुझे पता नहीं….राजा जोगी अगन जल इनकी उल्टी रीत।’’ फिर हँसकर बोला, ‘‘लेकिन अब कुछ नहीं हो सकता। अब तो बस हर-हर गाओ, ढोल बजाओ।’’
औरत ने दाँतों तले अंगुली दबा ली। थाली अच्छी तरह पकड़ी हुई थी, मलंग दूर खड़ा था फिर थाली हाथ से कौन सरका रहा था?
मलंग अब भी वहीं खड़ा मुस्कुरा रहा था, उसे पुनः दिखा-दिखा कर लड्डू खा रहा था। यकायक औरत को उसकी आँखों में एक अलौकिक तेज दिखाई दिया, एक दिव्य अग्निपुंज उसकी आँखों से झाँकने लगा था। औरत की प्रखर बुद्धि ने उस तेज को भाँप लिया। वह ऊपर से नीचे तक सिहर उठी। काँपते हुए मलंग की ओर बढ़ी, हाथ जोड़कर बोली, “बाबा माफ करना ! किसी और की अमानत थी अतः आपको दे नहीं सकी। पड़ौसन की लड़की के ससुराल शगुन के लड्डू देने जा रही थी, आप ही बताएं मैं क्या करती। बेऔलाद हूँ, इससे चिढ़ती रहती हूँ। ससुराल वाले अक्सर ताने मारते रहते हैं।” कहते-कहते वह झुककर खड़ी हो गई मानो उससे कोई गंभीर अपराध हो गया हो।”कौन कहता है तू बेऔलाद है।” फिर आसमान की ओर देखकर बोला, “तुम्हें देनी पड़ेगी इसे औलाद! इसके भाग्य में लिखी है तो अब दे दे और नहीं लिखी है तो अब लिख ले। बस मलंग ने कह दिया सो कह दिया।” फिर जाते-जाते बोला, “वहाँ सगाई नहीं करना। लड़की बरबाद हो जाएगी।’’
इस वारदात के बाद न जाने कैसे सगाई का दिन टल गया।
उसी माह दो चमत्कार हुए। जिस लड़के के यहाँ सगाई के लड्डू भेजे जा रहे थे, उसका एक दुर्घटना में निधन हो गया एवं वह औरत उसी माह पैंतालिस वर्ष की उम्र में प्रथम बार गर्भवती हुई। नौ माह बाद उसने एक स्वस्थ शिशु को जन्म दिया।
कुछ समय बाद औरत उस शिशु एवं लड्डुओं से भरा थाल लेकर मलंग के पास आई। मलंग तब मंदिर में धूनी रमा रहा था, उसे देखकर जोर से हँसा, हँसी रुकी तो बोला, “एक लड्डू के लिए इतना दौड़ाया और अब पूरा थाल…… दुनिया दुरंगी है…… होता है, ऐसा ही होता है इस संसार में। कभी नाव गाड़ी पर कभी गाड़ी नाव पर। जो मांगने पर धेली न दे वह समय पड़ने पर भेली दे।’’
लेकिन मलंग थाली का क्या करता। एक लड्डू उठाया, मुँह में ठूंसा, फिर औरत के हाथ से बच्चा लेकर बोला, “बहुत बड़ा आदमी बनेगा। यह खुदा की हिफाज़त में है !” इतना कहकर वह बकबक करते हुए चला गया।
औरत की आँखें आनन्द के आँसुओं से डबडबा गई। दुनिया में ऐसा कौन है जो चिरसंचित अभिलाषा के पूर्ण होने पर आनन्दमग्न नहीं होता।
इस घटना की खबर शहर में तूफान की तरह फैली। लोगों को अब लगने लगा कि मलंग दिव्य शक्तियों से स्फूर्त औघड़ है। उसी औघड़ को जिसे लोग कुछ समय पहले दुत्कारते थे, अब पूजने लगे। अब उसे बिना माँगे ही सब कुछ मिल जाता।
एक बार वह बाजार के बीच आकर जोरों से चीखने लगा। छाती कूट-कूट कर बोला, ‘‘सब पानी में बह रहे हैं।’’ उसके कहते ही लोग, जो जैसा था वैसा भागा। कुछ घरों में घुसे तो कुछ पहाड़ों की ओर भागे। कहते हैं उस रात इतना पानी बहा कि पशु तक बह गए। लोग तीन दिन तक घरों से नहीं निकल सके।
अब मलंग देवतुल्य हो गया।
ऐसे ही एक बार मलंग कई दिनों तक उदास दिखा। लोग उससे पूछते कि तुझे क्या हो गया है तो वह सिसकियाँ भरने लगता। इन्हीं दिनों एक दोपहर वह सड़क के बीच आकर बैठ गया। मुँह ऊपर कर जोर-जोर से रोने लगा। धीरे-धीरे उसके पास कुछ कुत्ते आ गए एवं वे भी मुँह ऊपर कर रोने लगे।
एक मातबर आदमी ने कहा, “लगता है भूकंप आने वाला है।”
लोग चौकन्ने हो गए।
इस घटना के दो रोज बाद तेज भूंकप आया। पहले से सावधान लोग घरों से भागे, घरों में बड़ी-बड़ी दरारें पड़ गई, कुछ लोग दबकर कुचल भी गए पर जान-माल की भारी हानि बच गई।
फिर मलंग कई दिनों तक गायब रहा। लोग तरह-तरह की बातें करने लगे, किसी ने कहा, भूकम्प में मर गया होगा, किसी ने कहा किसी और गाँव चला गया होगा पर सारी बातें बेबुनियाद थी। एक दिन एक गड़रिये ने आकर बताया कि वह पहाड़ की कंदरा को एक पत्थर से बंद कर धूनी रमा रहा है। पता लगते ही उसके दर्शनों के लिए हुजूम लग गया। जो दैविक और मानवीय विपदाओं से शहर की रक्षा करे, भला लोग उसके दर्शनों को नहीं उमड़ेंगे तो किसके दर्शनों को उमड़ेंगे। कई बार वह अनाप-शनाप गालियाँ देता तो भी लोग सुन लेते। जिस समुद्र की तह में मोतियों के भण्डार हों वहाँ तक जाने में कुछ केंकड़े काट खायें तो क्या लोग परवाह करेंगे।
कुछ माह बाद मलंग फिर हँसता हुआ बाजार से गुजरा। लोग उससे तरह-तरह की बातें पूछने लगे। व्यापारी उससे सट्टे के भाव तक जानने का प्रयास करते। मलंग उन्हें देखकर आँखें तरेरता तो उनकी रूह काँप जाती।
इन्हीं दिनों एक रोज वह सरकारी अस्पताल में घुस गया। जाने इधर-उधर देखकर क्या सूंघने लगा। तभी वही लड्डू वाली औरत बेतहाशा इधर-उधर घूमते हुए दिखी। वह चुपचाप खड़ा रहा। कुछ देर बाद वह औरत बाहर गई एवं पुनः भागी-भागी कुछ दवाइयाँ लेकर आई। उसका पुत्र जो अब सोलह वर्ष का था, मौत से जूझ रहा था।
ज्यों ही वह कोरीडोर में घुसी, उसने मलंग को देखा। मानो डूबते हुए जहाज को कर्णधार मिल गया हो। दण्ड की तरह मलंग के चरणों में गिरकर बोली, “बाबा मेरे बेटे को बचालो। आप ही के आशीर्वाद से यह मुझे मिला है, आप ही उसकी रक्षा करो। अगर उसको कुछ हो गया तो मेरी हालत चूल्हे से निकलकर भट्टी में पड़ने जैसी हो जाएगी। मैं बरबाद हो जाऊँगी। मेरा सब कुछ ले लो, उसे बचालो।”
मलंग ने दोनों हाथों से पकड़कर उसे उठाया। उसके आँसू पौंछते हुए बोला, “यमराज घूस लेता हो तो दे आ उसे।”
औरत की आँखें आँसुओं से नहा गई। मलंग की बातें सुनकर वह और सहम गई। रोते-रोते हाथ जोड़कर बोली, “मैं कुछ नहीं समझती, बस उसको बचालो बाबा!”
इस बार मलंग गंभीर हुआ। कुछ देर चुप रहने के बाद बोला, “चिंता मत कर! यह मनुष्य उसी के मारने से मरता है एवं उसी के जिलाने से जीता है। उसकी टेक को कोई नहीं टाल सकता। अगर टाल सकता है तो सिर्फ वह बंदा जिसने अपने निश्छल मन एवं निस्वार्थ साधना से उसको जीत लिया हो। उसका तो वह गुलाम बन जाता है।” कहते-कहते मलंग ने औरत से पूछा, “बच्चा कहां है?”
औरत मलंग को लेकर पलंग तक आई। मस्तिष्क ज्वर से पीड़ित उसका पुत्र अंतिम साँसे गिन रहा था। डाक्टर्स, नर्स सभी ने जवाब दे दिया था।
मलंग धीरे-धीरे उसकी ओर बढ़ा, उसके सिर पर चिमटा घुमाया, ऊपर आसमान की तरफ देखकर कुछ बड़बड़ाया फिर चुपचाप बाहर आकर कुर्सी पर बैठ गया।
आज वह स्थितप्रज्ञ की तरह किसी के इच्छाविधान को पढ़ रहा था।
हेतुरहित परोपकार ही परोपकार है। ऐसा पुण्य वही कर सकता है जिसकी अंतःदृष्टि परमात्मा से साक्षात्कार कर लेती है।
एक आश्चर्य घटित हुआ। दूसरे दिन बच्चा एकदम स्वस्थ होकर बातें कर रहा था। डाॅक्टर्स, नर्स सभी हैरान थे। औरत की आँखें खुशी के मारे छलछला आई थी। कल तक ग़म में डूबा कमरा आज खुशियों की फुहारों में नहा रहा था।
तभी अस्पताल का हरिजन दौड़ता हुआ कमरे में घुसा। उसकी आँखें विस्मय से फैली हुई थी। काँपते हुए होठों से उसने वहाँ खडे़ लोगों को सूचना दी, “बाहर बैंच पर मलंग मरा पड़ा है।”
ऊपर आसमान में बादल का एक टुकड़ा हवाओं के प्रहार से विच्छिन्न होकर अनंत में समा गया था।
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23.08.2006