कैकेयी-कथा

मैं कैकेयी हूँ।

मैं कैकेयी अवधपति दशरथ की प्रिय रानी, कैकय नरेश अश्वपति की दुलारी पुत्री एवं रामानुज भरत की माँ हूँ।

कवियों , चिंतकों ने मेरी भूमिका का इतना अपमान एवं उपहास किया है कि मैं राम-कथा की खलनायिका बन गई हूँ। साहित्यकारों का शब्द विलास अनेक बार किसी पात्र को उभरने ही नहीं देता। हर लेखक अंततः स्वयं की श्रद्धा एवं आस्था का कैदी बन जाता है। इतना ही नहीं अनेक बार सत्य भी उनके दृष्टिकोण के कारागार में घुटकर रह जाता है। सदियों मैंने इंतजार किया कि कोई मेरे पात्र का भी सही आकलन करे लेकिन अंधश्रद्धा एवं पूर्वाग्रहों ने मेरे चरित्र को उभरने नहीं दिया। जगत की रीत ही है कि मरे को सब मारते हैं। इसी कारण आज अपनी व्यथा-कथा जगत को सुनाकर, सदियों से मेरे हृदय पर पड़े बोझ को हल्का करना चाहती हूँ।

मुझे अब भी याद है जब राजा दशरथ मेरे पिता अश्वपति के निमंत्रण पर कैकय देश पधारे थे। उस दिन मेरे पिता एवं अनेक सभासदों के साथ मैं भी राजद्वार पर उनकी अगवानी के लिए खड़ी थी। इक्ष्वाकु वंश के महान राजाओं, उनके पराक्रम, ओज, दानवीरता एवं सत्यनेम की कथाएं उन दिनों घर-घर में सुनने को मिलती थी। लोग इन कथाओं को बड़े चाव से सुनते थे। मैं भी इन कथाओं से बहुत प्रभावित थी। कहते हैं इसी वंश के राजा हरिश्चन्द्र ने सत्य की राह पर अपना राज्य, सुख, भार्या एवं पुत्र को तृण की तरह त्याग दिया। राजा शिवि ने शरणागत कबूतर को बचाने के लिए एक बाज को अपने शरीर का मांस काटकर दे दिया। इसी वंश के राजा अलर्क ने एक याचक को अपनी आंखें उपहार में दे दी। मेरा सौभाग्य था कि ऐसे महान वंश के उत्तराधिकारी, शूरवीर राजा दशरथ के स्वागत का सौभाग्य मुझे मिला। राजा दशरथ जब अपने सेवकों के साथ राजद्वार पहुंचे तो चहुंओर कोलाहल मच गया। सभी उनकी एक झलक पाने को आतुर थे। वे जब रथ से उतरे तो उन्हें देखकर मैं ठगी-सी रह गई। राजा रूप-शौर्य एवं दर्प की त्रिवेणी थे। रथ से उतरते समय वे ऐसे दृष्टिगत हो रहे थे मानो साक्षात् सूर्य पूर्व दिशा से उद्भासित हो रहा हो। मेरे पिता आगे बढ़कर उन्हें राजद्वार तक लेकर आए। विप्र समुदाय ने मांगलिक वचन सुनाकर उनका अभिनंदन किया। मेरे पिता ने राजद्वार पर ही अन्य सभासदों के साथ राजा दशरथ से मेरा भी परिचय करवाया। मेरा परिचय जानकर वे अति प्रसन्न थे।

अतिथि-कक्ष में राजा दशरथ के स्वागत की जिम्मेदारी मुझे सौंपी गई।अर्घ्य, पाद्य, स्वागत संभाषण एवं अल्पाहार के पश्चात् उनके कैकय प्रवास तक मैं उनके समीप रही। मैंने पूरे मनोयोग से उनकी सेवा की एवं उनकी हर सुविधा का ध्यान रखा। मेरे सेवाभाव से राजा इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने उनके साथ आए मंत्री को बुलाकर कहा कि मेरे रूप, गुण एवं सौन्दर्य ने उनका मन मोह लिया है। मंत्री ने जब उन्हें बताया कि यह कन्या रूपवती ही नहीं, शस्त्र संचालन एवं सारथ्य विद्या में भी निपुण है तो राजा अभिभूत हो गए। उन्होंने वहीं उसी मंत्री के हाथों मेरे पिता के पास प्रस्ताव भेजा कि वे मुझसे विवाह करने को इच्छुक हैं।

राजा दशरथ के प्रस्ताव ने मेरे पिता को चिंता में डाल दिया। मैं मेरे पिता के आंखों की पुतली थी। वे मेरे पिता ही नहीं माता भी थे क्योंकि मेरी माता को तो उन्होंने बचपन में ही गृहकलह से कुपित होकर देश निकाला दे दिया था। मैं जब बड़ी हुई तो पुरुष एवं पति की इस क्रूरता एवं हठधर्मिता को पल-पल धिक्कारती थी। उनके कोप ने मेरा मातृस्नेह छीन लिया। मेरे मन-मस्तिष्क में इस घटना का इतना गहरा आघात हुआ कि पुरुष वर्ग के प्रति मेरे मन में स्वाभाविक रोष ने जन्म ले लिया।

राजा दशरथ के प्रस्ताव पर मेरे पिता कई देर तक चिंतन करते रहे। उन दिनों कौशल एक शक्तिशाली राज्य था एवं कैकय की उनसे मैत्री संधि होने के कारण कैकय राज्य भी शक्तिशाली राज्यों में माना जाता था। मेरे पिता का असमंजस इस बात को लेकर भी था कि राजा दशरथ के पहले से कौशल्या एवं सुमित्रा दो रानियां हैं। वे दोनों भी गुणी एवं प्रतिभावान हैं। ऐसे में क्या मेरी पुत्री का वर्चस्व बन पाएगा? वे दशरथ को ना कहने का साहस भी नहीं जुटा पा रहे थे। इसी उलझन के चलते उन्होंने मुझे अपने कक्ष में बुलाया एवं राजा दशरथ के प्रस्ताव पर सहमति मांगी। मेरे पिता से दशरथ का प्रस्ताव सुनकर मैं हतप्रभ रह गई। क्या मुझे एक ऐसे राजा से विवाह करना होगा जिसके पहले से दो रानियां हैं ? पुरुष की क्रूरता मेरे मन-मस्तिष्क में पहले से बैठी थी, इस घटना ने मेरे पूर्वाग्रहों को और दृढ़ कर दिया। मैं पिता के समक्ष चुपचाप खड़ी रही। जब पिता ने मुझे पुनः पूछा तो मैंने इतना ही कहा, ‘‘पितृवर! अविवाहित कन्या पिता के अधीन होती है। आपकी आज्ञा को शिरोधार्य करने में ही मेरा कल्याण है !’’ इतना कहकर मैं तेजी से चलकर अपने कक्ष में आई एवं तकिए में सर रखकर फूट-फूट कर रोने लगी। मेरे मन में एक सुषुप्त विद्रोह ने घर कर लिया कि अवसर मिला तो मैं भी पुरुषों को उनकी क्रूरता का कड़ा दण्ड दूंगी।

मेरे पिता एक कुशल राजनीतिज्ञ थे। दशरथ के प्रस्ताव का उत्तर देते हुए उन्होंने मंत्री को यह कहा कि वे कैकेयी के विवाह पर तभी सहमति देंगे जब दशरथ वचन दें कि कैकेयी का पुत्र अयोध्या का उत्तराधिकारी होगा। राजा ने यह वचन सहज ही दे दिया, क्योंकि पूर्व दोनों रानियों के साथ वर्षों रहने के पश्चात् भी उन्हें पुत्र सुख नहीं मिला था। राजा को लगा मुझसे विवाह कर कदाचित् उनके पुत्र प्राप्ति का चिर मनोरथ पूरा हो जाय। राजा भवितव्यता से अनजान थे। धूमधाम से विवाह कर मेरे पिता ने मुझे भारी मन से विदा किया।

अयोध्या पहुंचने पर कौशल्या एवं सुमित्रा दोनों ने मेरी अगवानी की। दोनों के मृदु व्यवहार से मुझे लगा ही नहीं कि वे मेरी सौतें हैं। दोनों मुझे अपनी छोटी बहन की तरह रखती थीं। मेरे साथ कैकय से आई दासी मंथरा भी मेरी हर सुविधा का ध्यान रखती थी। वह मेरी अनुचर ही नहीं गुप्तचर भी थी एवं मुझे महल एवं नगर दोनों के समाचार समय-समय पर देती रहती थी। मंथरा की पीठ पर बचपन से ही कूबड़ था एवं वह शारीरिक रूप से अशक्त भी थी तथापि उसके गुणों से प्रभावित होकर मैंने उसे कौशल साथ लाने का निर्णय लिया था। मैं बचपन से जानती थी कि हर नारी की पीठ पर एक कूबड़ होता है – शारीरिक अथवा मानसिक। मानसिक कूबड़ को क्रूर पुरुष जन्म देते हैं एवं उसे ढोना हर स्त्री की नियति है। निःशक्तजनों विशेषतः निःशक्त नारियों के प्रति मेरे मन में बचपन से ही अनुराग एवं सहानुभूति थी।

राजा दशरथ युद्धकौशल में तो निपुण थे ही, उनका प्रणयकौशल भी मुंह चढ़कर बोलता था। स्त्रियों को रिझाने की कला में वे सिद्धहस्त थे। उनकी प्रेम-पारंगतता देखते बनती थी। विशालक्षी! कमलनयने! सुमध्यमे! शुभे! आनन्दिते! गर्विते! आदि-आदि संबोधनों का प्रयोग कर वे मेरा मन मोह लेते थे। मैंने भी उन्हें अपने रूप-पाश में यूं बद्ध कर लिया था जैसे कमलिनी भ्रमर को बद्ध कर लेती है। मेरे कामबाणों से बिद्ध वे अनेक बार मेरे कक्ष में आकर मुझसे प्रणय याचना करते थे। उनकी काम परवशता एवं अकुलाहट का मैं मन ही मन आनंद लेती थी। समागम के पश्चात् वे मुझे प्रणयचातुरी एवं संभोगचातुरी जैसे अलंकारों से विभूषित करते थे। शीघ्र ही मैं उनकी प्रिय, राजमहिषी एवं अयोध्या की सर्वाधिक प्रभावशाली रानी बन गई। यहां तक कि राजा नगर के बाहर शिकार पर जाते तो मुझे साथ ले जाते थे। मुझसे घड़ी भर का बिछोह भी उन्हें असहनीय था।

राजा दशरथ का शौर्य, पराक्रम एवं शस्त्रलाघव अद्भुत था। उनके बलिष्ठ कंधे, सुपुष्ट भुजाएं, चौड़ी छाती एवं बड़ी-बड़ी आँखें देखकर ही अनेक सूरमा कांप जाते थे। धनुष कंधे पर रखकर जब वे रथ पर चढ़ते तो विधर्मियों के दिल दहल जाते थे। देवताओं का राजा इन्द्र भी उनके शौर्य एवं साहस का लोहा मानता था।

एक बार शंबरासुर नाम के असुर से युद्ध करने के लिए राजा इन्द्र ने दशरथ से सहायता मांगी। शंबरासुर एक क्रूर आक्रांता था। देवता उसके साथ अनेक लड़ाइयां लड़कर थक चुके थे। इस बार फिर उसने इन्द्र को अमरावती रणक्षेत्र में ललकारा था। राजा दशरथ जब युद्ध के लिए जाने लगे तो मेरे अनुरोध पर उन्होंने मुझे भी अपने साथ ले लिया। शस्त्र संचालन में मेरी दक्षता एवं मेरे सारथ्य ज्ञान पर उन्हें गर्व था।

ओह! उस युद्ध में कैसी मार-काट मची थी। राजा दशरथ ने अपने तीक्ष्ण बाणों के अचूक प्रहार से अनेक असुरों को मार डाला। असुरों के कोलाहल को सुनकर शंबरासुर स्वयं राजा दशरथ के सम्मुख आ गया। उस समय मैं रथ के पिछले भाग में राजा के समीप बैठी थी। युद्ध में शंबरासुर परास्त होने लगा तो उस विधर्मी ने दशरथ के सारथी को मार डाला। सारथी के मरते ही दशरथ चिंतामग्न हो गए। उसी समय मैंने राजा से कहा, ‘‘कैकेयी के जीवित रहते आपको चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। आज आपका सारथ्य मैं करूंगी !’’ इतना कहकर प्राणों की परवाह किए बिना मैं आगे बढ़ी एवं सारथी के स्थान पर बैठकर घोड़ों की लगाम अपने हाथों में ले ली। मेरे सारथ्य कौशल को देख शंबरासुर दंग रह गया। क्रुद्ध शंबरासुर ने तब एक तीक्ष्ण तीर रथ के बांये पहिये पर चलाया एवं देखते ही देखते पहिया मिट्टी में धंस गया। रथ को धंसते देख कौशलेश का धैर्य डगमगा गया। अपनी विजय को सन्निकट देख शंबरासुर अट्टहास करने लगा। निश्चय ही राजा के प्राण अब संकट में थे। मेरे सारथ्य की भी आज परीक्षा थी। अपलक मैं रथ से नीचे कूदी एवं भीषण बाणवर्षा के बीच धंसे हुए रथ को जमीन से निकाला। रथ के स्थिर होते-होते शंबरासुर ने राजा दशरथ को बाणवर्षा से लहुलूहान कर मूर्छित कर दिया। मैंने तब तलवार हाथ में लेकर उसे पुकारा, ‘‘रे अधम! अब तू नहीं बचेगा।’’ मैं आगे बढ़ी ही थी कि राजा पुनः होश में आए। इस बार उन्होंने अद्भुत रणकौशल का प्रदर्शन किया। मुझे घायल देख वे क्रोध से फुफकार उठे। उनकी आंखों में अंगारे दहकने लगे। कुपित दशरथ ने तब ऐसी बाणवर्षा की कि शंबरासुर सेना सहित रण छोड़कर भाग खड़ा हुआ। इस युद्ध में मेरी हथेलियों में गहरी चोट लगी यहां तक कि मेरी कनिष्ठा अंगुली की हड्डी तक टूट गई। इतना होते हुए भी मैं रण से विमुख नहीं हुई।

युद्ध में मेरी भूमिका से राजा इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने मुझे दो वर मांगने को कहा। उस समय उनका तन-मन मेरे अहसान से उपकृत था। मैंने राजा को प्रत्युत्तर में यही कहा, ‘‘राजन्! पति सेवा से बढ़कर स्त्री के लिए कोई धर्म नहीं है। मैंने वरदान जैसा कोई काम नहीं किया। आपकी रक्षा करना मेरा धर्म था। एक क्षत्राणी के लिए इससे अधिक गौरव की बात और क्या हो सकती है। मेरा अहोभाग्य कि यह गौरव आपने मुझे दिया !’’ मेरे उत्तर से अभिभूत राजा ने कहा, ‘कैकेयी! तुम्हारे दो वरदान मेरे पास धरोहर रूप में सुरक्षित है। जब उचित लगे मांग लेना !’’

कालांतर में पुत्रेष्टि यज्ञ के पश्चात् कौशल्या को राम, मुझे भरत तथा सुमित्रा को लक्ष्मण एवं शत्रुध्न पुत्र रत्न के रूप में प्राप्त हुए। एक साथ चार पुत्रों को प्राप्त कर राजा खिल उठे थे। चारों भाइयों में बचपन से अगाध स्नेह था। राम तो सबकी आंखों के तारे थे। मुझे तो वे प्राणों से अधिक प्रिय थे।

जानकी विवाह के कुछ माह पश्चात् राम एक बार मुझसे अकेले मिलने आए। हम दोनों के बीच सार्थक विषयों पर अनेक बार चर्चा होती थी। राम सत्यप्रतिज्ञ एवं धर्मनिष्ठ थे। हर विषय पर उनका विवेचन सटीक होता था। इसी चर्चा के बीच एक बार मैंने उन्हें पूछा, ‘‘राघव! आपने ताड़कवन में ताड़का जैसी असुरा को कैसे मारा? ऋषि यज्ञों में विघ्न डालने वाले भयानक राक्षसों को कैसे हत किया ? आपके अंगुष्ठ मात्र के स्पर्श से अहिल्या पत्थर से स्त्री कैसे बन गई ? दुर्जेय शिवधनुष, जिसे बड़े-बड़े योद्धा एवं महारथी हिला तक नहीं सके, आपने क्षणमात्र में उठाकर कैसे तोड़ दिया? असुरों के विनाश के लिए विश्वामित्र ने आपका ही चयन क्यों किया? राम! कहीं तुम नर रूप में नारायण तो नहीं हो !’’ राम की आंखों में तब एक गहरा रहस्य उतर आया था। मेरे गूढ़ प्रश्न के मर्म को छुपाते हुए उन्होंने यही उत्तर दिया, ‘‘मैं तो एक साधारण मानव हूं। इन असाधारण कार्यों को अंजाम तो मैंने आपके आशीर्वाद के बल से दिया है। मां! मेरा तो जन्म ही पृथ्वी से राक्षसों के शमन के लिए हुआ है। मुझे पूरा विश्वास है इस कार्य को सिद्ध करने में आप सहयोग देंगी।’’ मैं कुछ और कहती तभी एक सेवक दशरथ का संदेश लेकर आया कि उन्हें राजा बुला रहे हैं। पिता का संदेश पाकर वे एक पल भी वहां नहीं रुके।

राम के राज्याभिषेक का संदेश जब मंथरा ने मुझे सुनाया तो हर्ष पुलकित मेरी आंखों से अश्रु बह गए। क्या सचमुच प्राणप्रिय राम राजा बनेंगे ? मेरे हृदय में उमड़ते हर्ष के समुद्र को मैं रोक न सकी। मैंने मंथरा को अंक में भरकर कहा, ‘‘तुम कितना शुभ समाचार लाई हो। मैं तुम्हें आज एक वरदान देती हूं। तुम जब चाहे अपना अभीष्ट मांग लेना।’’ आश्चर्य! मेरे वरदान से कृतार्थ होने की बजाय मंथरा तैश में आ गई एवं कुपित होकर बोली, ‘‘महारानी! आपके समक्ष अक्षय विनाश उपस्थित हुआ है। अंतर सिर्फ इतना है कि मैं इसे देख पा रही हूं एवं आप नहीं। आप पुरुषों की विशेषतः आपके पति की क्रूरता एवं चतुराई को समझ नहीं पाती। छल-बल में पुरुषों का कोई सानी नहीं होता। क्या आप देख नहीं पा रही कि राजा दशरथ ने भरत एवं शत्रुध्न को छल से ननसाल मात्र इस कारण भेजा है कि राम का राज्याभिषेक सुगमता से हो जाए ? कौशल्या कहे या ना कहे वह आपके प्रभाव एवं सौतिया डाह से पीड़ित तो है ही। आप इस बात को क्यों नहीं समझ पा रही कि राज्याभिषेक के पश्चात् कौशल्या राजरानी तथा तुम एवं भरत दोनों उसके दास बन जाओगे। दास क्या कभी स्वाभिमान से जीते हैं? इस राज्याभिषेक के पश्चात् तुम्हारा वर्चस्व क्या वही रह पाएगा जो आज है ? क्या महाराज ने अपनी योजना की किंचित् जानकारी भी आपको दी ? तुम्हारे पिता अश्वपति को दिया वचन राजा क्योंकर भूल गए?’’

मंथरा की बातें सुनकर मैं क्षुब्ध हो उठी। क्रोध आवेश में मैं केले के पत्ते की तरह कांपने लगी। क्या कैकेयी चाकरी करेगी? क्या भरत दासत्व करेंगे ? माता सब कुछ सह सकती है पर अपने पुत्र का पतन नहीं सह सकती। मैं चीखकर बोली, ‘‘घरफोड़ी! तू कैसी बातें कर रही है? अब ऐसा कहा तो जीभ निकलवा दूंगी !’’

मैंने मंथरा को भला-बुरा तो कह दिया लेकिन अपने शोक आवेश को न रोक सकी। पुरुषों की क्रूरता एवं छल के प्रति पैठा पूर्वाग्रह वर्षाकाल के काले मेघों की तरह मेरे मन-व्योम पर छा गया। क्या मेरी ममता इतनी असहाय है कि मैं अपने पुत्र का पराभव एवं दासत्व देखूंगी ?

मुझे चिंतामग्न देख मंथरा ने मेरे कंधे पर हाथ रखकर जब यह कहा कि वह तो मेरा हित-चिंतन ही कर रही है, राज्य राम को मिले या भरत को वह तो चेरि ही रहेगी, तो मेरी बुद्धि उलट गई। मैंने उसी पल शंबरासुर युद्ध के समय राजा द्वारा दिए दो वचनों को मांगने की ठान ली।

प्रणयातुर राजा उस रात जब राजतिलक का समाचार देने आए तो मैं कोपभवन में थी। उस दिन उनके मन में समागम की तीव्र उत्कंठा भी थी। कामातुर राजा मुझे कोपभवन में देख सहम गए। वे धीरे-धीरे मेरे समीप आए एवं बोले, कैकेयी! किस अभागे ने तुम्हें रुष्ट करने का साहस किया है ? किसका कटा हुआ सिर आज तुम अपने चरणों में चाहती हो ? आज किसकी उन्नति एवं किसकी अवनति होने वाली है?’’

सत्य एवं धर्म की पताका फहराने वाले रघुवंश के एक राजा के मुंह से ऐसे दीन वचन सुनकर मैंने मन ही मन सोचा कि क्या एक राजा को इतना कामासक्त होना चाहिए? चौथपन में ऐसा व्यवहार करने वाला राजा क्या कभी मुक्तिपथ पर जा सकेगा?

स्त्री पुरुष के धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष चारों का सेतु है।

मैंने उसी समय राजा से दो वरदान मांग लिए, प्रथम भरत को राज्याभिषेक एवं द्वितीय तापसी वेश में चौदह वर्ष तक राम का वन गमन।

मेरे वचन मांगते ही राजा का चेहरा ऐसा बदरंग हो गया जैसे किसी वृक्ष पर बिजली गिर गयी हो। उनकी नारी आसक्ति एवं काम क्षण भर में गिर गए। उनके मुक्तिपथ का अवरोध अब मात्र पुत्र मोह था। राम के वनगमन के पश्चात् जब उन्होंने देहत्याग की तो वे इस मोह से भी छूट गए। काम एवं मोह से विरत राजा उस लोक में चले गए जिस लोक में जाने की महर्षि एवं ब्रह्मर्षिजन तक आकांक्षा करते हैं।

वनगमन के पश्चात् राम ने, जैसा कि उन्होंने मुझे कहा था, पृथ्वी को निशाचरहीन कर दिया। रावण, कुंभकरण एवं अन्य अनेक निशाचर उनके हाथों मारे गए। उनकी वाणी भला कैसे निष्फल होती। अनायास, अप्रत्यक्ष रूप से उनके इस महती कार्य में मैं भी सहयोगी बनी, हालांकि यह इतर बात है कि इस कार्य को सिद्ध करने में अपयश एवं उपहास सदैव के लिए मेरे नाम के साथ जुड़ गया।

मुझे इसकी परवाह नहीं। तितिक्षु लोककल्याण के लिए क्या नहीं करते?

यह कलंक मेरे अवसान के पश्चात् भी मेरे नाम के साथ चिपटा रहा। सदियां बीत गई, किसी ने अपनी पुत्री का नाम कैकेयी नहीं रखा।

बहुत कम लोग जानते हैं कि मंथरा की बुद्धि भ्रष्ट करने सरस्वती स्वयं देवों के अनुरोध पर अयोध्या आई थी। देव राक्षसों के वध के लिए राम को निमित्त बनाना चाहते थे। देवों की इस करतूत का मैं एवं मंथरा दोनों शिकार हुई।

यह तथ्य भी कुछ लोग ही जानते हैं कि राम-काल में मेरी भूमिका से प्रसन्न भगवान विष्णु ने मात्र मुझे ही मोक्ष एवं चिर वैकुण्ठ दोनों का वरदान दिया था।

अपनी कथा-व्यथा कहकर मैं, कैकेयी आज प्रफुल्लित हूं।

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06-10-2010

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