क्षत्राणी

जेल अधीक्षक, विश्वेश जोशी से मेरी प्रथम मुलाकात कब हुई, यह तो मुझे नहीं मालूम पर हमारी मित्रता जैसलमेर में ही परवान चढ़ी। शायद युनिवर्सिटी के दिनों में हम पहली बार मिले थे। हम दोनों ने पोस्ट ग्रेजुएशन जोधपुर युनिवर्सिटी से एक साथ किया। उन्होंने एमए मनोविज्ञान में किया एवं जेल सेवा में चयनित हुए, मैंने एमकाॅम की एवं बैंक में लग गया।

इत्तफाक से इसी वर्ष जून में मेरा तबादला जैसलमेर हुआ। विश्वेश दो माह पहले अप्रैल में तबादले पर जैसलमेर आए। बैंकर्स क्लब द्वारा जेल प्रांगण में आयोजित एक संगीत संध्या में मेरी विश्वेश से पुनः मुलाकात हुई। न जाने कब का संयोग था, यह मुलाकात शीघ्र मित्रता में तब्दील हो गई। बाद में हमारे घनिष्ठ पारिवारिक सम्बन्ध भी बने। दूसरे शहर में अपने शहर का आदमी देवदूत जैसा लगता है। विश्वेश जोशी जब भी अच्छे मूड में होते, मुझे चाय-पान पर बुलाते। आज उन्हीं के ऑफिस में बैठा चाय की चुस्कियाँ ले रहा था।

जेल अधीक्षक के कार्यालय तक पहुँचना कोई साधारण बात नहीं है। पहले जेल परिसर के बाहरी द्वार पर खड़े संतरी को पार करो फिर जेल के मुख्य द्वार पर खड़े संतरियों को। पहचान बताने पर ही वह दरवाजा खोलते हैं। अन्दर आकर फिर दूसरे दरवाजे तक जाना होता है, वहां फिर दो संतरी दरवाजा खोलते हैं। उसके बाद जेल अधीक्षक का कार्यालय आता है। कार्यालय के पीछे जेल वार्ड्स एवं सेल्स में अभिशप्त जीवन भोगते हुए कैदी। दुर्भाग्य का एक वीभत्स रूप।

मुझे बैठे कोई दस मिनट हुए होंगे कि एक महिला संतरी एवं एक बंदूकधारी सिपाही, एक महिला कैदी को लेकर उनके कार्यालय में आए। महिला कैदी की उम्र पच्चीस के आस-पास होगी। चित्ताकर्षक देह, बड़ी-बड़ी आँखें एवं सिंहनी-सी चाल उसके व्यक्तित्व को गौरव प्रदान कर रही थी। चेहरे का तेज देखकर लगता जैसे किसी संभ्रांत घराने से ताल्लुक रखती हो। उसका अंग-अंग अनुपम सौन्दर्य से परिपूर्ण था लेकिन मुख पर लज्जा एवं खेद का नामोनिशान तक नहीं वरन् चेहरे के नूर को देखकर लगता जैसे कोई धर्मयोद्धा जीवन की महाभारत में युद्ध जीतकर आया हो।

मैं विस्मय से उसे तकने लगा। नियति की लेखनी जाने क्यों कुछ लोगों के भाग्य को आँसुओं में डुबोकर ही लिखती है। जिन हाथों में मेहंदी होनी चाहिए, जिन पैरों में नूपुर होने चाहिए, जिसे आभूषणों एवं सुंदर परिधानों में होना चाहिए, उसके हाथ-पैरों में बेड़ियाँ ?

महिला कैदी का नाम मानकुंवर था। आज उसे सत्र न्यायालय में पेशी पर उपस्थित होना था। आवश्यक औपचारिकताएँ पूरा कर विश्वेश ने उसे जेल की गाड़ी में बाजाब्ता न्यायालय ले जाने के आदेश दिए।

उसके जाते ही मेरा मन उदास हो गया। नियति का ऐसा क्रूर लेख? भाग्य का ऐसा वीभत्स ताण्डव ? विधना तेरे अंकों को कौन समझ पाया है। मैं उसके बारे में जानने को आतुर हो उठा। मैंने विश्वेश से उसके बारे में पूछा। उसकी लोमहर्षक कहानी का जब उन्होंने बयान किया तो मैं हतप्रभ रह गया।

अन्य लड़कियों की तरह मानकुंवर ने भी एक सुखद जीवन का ही स्वप्न देखा था। मानकुंवर का विवाह तीन वर्ष पूर्व ही हरनैरा गाँव के ठाकुर जसवंतसिंह के पुत्र अगमसिंह से हुआ था। शादी के पहले अगमसिंह उसे देखने आया तब से ही मानकुंवर ने उसे मन में बसा लिया था। साक्षात् राजकुंवर लगता था। छः फीट से ऊपर कद, लम्बी बाँहें, चौड़ी छाती, राजकुमारों- सा रूप, फिर एमबीए तक शिक्षा। और क्या चाहिए? मानकुंवर तब बीए थी। पति का जो चित्र उसने मन में बसाया था, अगमसिंह वैसा ही था। शादी के पूर्व की छोटी सी मुलाकात में ही उसने उसका मन मोह लिया।

मानकुंवर के पिता वीरभद्रसिंह तब आर्मी में कर्नल थे एवं जैसलमेर तैनात थे। फैमिली स्टेशन था अतः पूरे परिवार के साथ रह रहे थे। तीन जनों के छोटे से परिवार में वह और मम्मी-पापा ही थे। इसी दरम्यान राजपूत सभा में कर्नल की मुलाकात जसवन्तसिंह से हुई एवं आनन-फानन यहाँ रिश्ता तय हो गया। सभी कार्य इतना त्वरित हुआ जैसे पूर्व जन्म का लेख अवसर पाते ही फलित हो जाता है। क्या शादियाँ स्वर्ग में ही तय होती हैं?

मानकुंवर को जैसे पंख लग गए। ऐसे रूपवान राजपुरुष को पाकर वह निहाल हो गई। रेगिस्तान का कण-कण शौर्य गाथाओं से भरा पड़ा है। राजपूतों के शौर्य एवं बलिदान ने इसमें चार चाँद लगाए है। मानकुंवर ने ऐसे ही बहादुर पति को वरण करने का स्वप्न देखा था। उसका मन हिरणों-सी कुदालें भरने लगा।

उनकी शादी के पहली रात को ही वह प्रेम से सराबोर हो गई। अगमसिंह की मोर-सी मीठी वाणी, बुद्धि एवं वीरोचित रूप देखकर उसे लगा जैसे परमात्मा ने सारे सुख उसकी झोली में डाल दिए हैं। उसने मन ही मन ईश्वर को धन्यवाद दिया। गांव की सबसे ऊँची पहाड़ी पर उसके ससुराल की गगनचुंबी हवेली थी। ठाकुरों के गाँव में किसकी हिम्मत थी कि उससे ऊपर कोई घर बनाए। हवेली खिदमतगारों से भरी पड़ी थी।

पहली बार हवेली के बुर्ज पर वह अगमसिंह के साथ आई तभी उसे पता चला कि मीलों पसरे खेत-खलिहान उन्हीं की मिल्कियत है। जसवन्तसिंह गाँव के सबसे बड़े जमींदार थे। सैंकड़ों किसान उन्हीं की दया पर पलते थे। घर में श्री, सुख-संपत्ति का साम्राज्य था। अगमसिंह अपने माता-पिता का इकलौता पुत्र था।

जीवन भाग्य के गर्भ में छिपे अनंत रहस्यों की एक शृंखला है। मोर बोलता तो मीठा है पर आहार सांपों का करता है। अगमसिंह का असली रूप कुछ और ही था। मानकुंवर के आगे तो नया दुल्हा सिर्फ मुखौटा लगाये खड़ा था। गाँव में उसकी तूती बोलती थी। मजाल वो जिस मार्ग से जाए और लोग सर न झुकाएं। लोग उसकी आँख के इशारे से काँपते थे। सारे गाँव में उसकी छवि एक आक्रांता जैसी थी। ईश्वर न करे उसकी टेढ़ी नजर किसी अच्छेे घर पर पड़े एवं वह बरबाद हो जाये।

सपनों के मकड़जाल में उलझी मानकुंवर को पति का यह रूप बहुत समय बाद समझ में आया। अगमसिंह की कारगुजारियों से वह धीरे-धीरे परिचित होने लगी। लोगों ने उसकी क्रूरता एवं दुर्व्यसनों के किस्से सुनाए तो वह सहम उठी, लेकिन अब बहुत देर हो चुकी थी। बिंध गया सो मोती। मानकुंवर ने सोचा, उसकी स्नेह की डोर में वह अगमसिंह को बांध लेगी। युवावस्था में उत्साह एवं उन्माद होता ही है। प्रभुता पाकर किसे मद नहीं हुआ ? समर्थ व्यक्तियों में दोष उत्पन्न हो जाना स्वाभाविक है।

मानकुंवर ने प्रेम एवं स्नेह का आंचल फैलाया। स्त्रियों में वैसी भी वह मोहिनी होती है जो पुरुष को बरबस उनकी ओर खींच लेती है। लेकिन यहां पासा उलटा पड़ा। उसने हर संभव प्रयास किए पर उसका एक-एक प्रयास निरर्थक सिद्ध हुआ। विष प्रत्येक अवस्था में विष रहता है। सांप को दूध पिलाने से उसका विष ही बनता है, अमृत नहीं। अगमसिंह की कारगुजारियाँ बढ़ती गई। राग-रंग, शराब, महफिलों के दिन उसे फिर पुकारने लगे। वह तो फूल-फूल पर मंडराता भंवरा था, एक दिलफेंक आशिक, एक जगह कैसे ठहरता? लोलुप निगाहों से तितलियों के पीछे भागना एवं चिड़ियों को दाना डालना उसकी फितरत थी। आस्था एवं विश्वास से भरा मानकुंवर का प्रेम उसे कैसे पकड़ पाता? मूर्ख अमृत-जल के सामने होने पर भी मृग-जल के लिए भागते हैं। विवश मनुष्य की यही नियति है।

शादी को अभी छः माह बीते होंगे। अगमसिंह ने अपना रूप और विकराल किया। उसकी आदतें रंग दिखाने लगी, वह रातों को अक्सर गायब रहने लगा। रातों को शिकार पर जाना, नशे में धुत्त रहना, राग-रंग करना, उसकी दिनचर्या का हिस्सा बन गए।

संस्कार मानकुंवर को परिवेश में मिले थे। वह जानती थी कि यह क्षत्रीय युवकों की आम आदतें हैं। हर क्षत्राणी अपने परिवेश को देखकर इन्हें सहन करना बचपन से सीख लेती हैं। उनके पास कोई विकल्प भी नहीं होता।

अगमसिंह की आदतें दिन पर दिन बिगड़ती गई। अब शादी को एक वर्ष होने को आया। वेडिंग एनीवरसरी के दिन भी वो गायब था। वह देर रात तक राह तकती रही। अगमसिंह दूसरे दिन दोपहर होने तक आया। घर बाहर उसका ऐसा दबदबा था कि मजाल कोई उसे कुछ कह दे। माँ-बाप भी उससे सहमे-सहमे रहते थे। मानकुंवर विष का घूंट पीकर रह गई।

उसेे अब बीते दिन याद आने लगे। वह शोख अल्हड़पन, बचपन की मौज मस्तियाँ, माँ-बाप का दुलार उसे बरबस पुकारने लगा। लेकिन आज भाग्य की निर्दय क्रीड़ा के आगे वह विवश थी। जज्बातों के एक तेज तूफान ने उसे घेर लिया। कैसे-कैसे स्वप्न-वर्तुल उसने बुने थे पर दुर्भाग्य की आंधी में सब उड़ गए। जीवन में आनन्द, स्वाद कुछ न रहा। उसकी अभिलाषाएँ धूल में मिल गई। प्रेम विहीन मनुष्य के जीवन में क्या रह जाता है? वह सिर्फ हड्डी- मांस का एक ढेर है। ईख में से रस निकलने पर क्या शेष रह जाता है?

अगमसिंह को सुमार्ग पर लाने में उसने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। वह स्वयं को समझाने की भी पूरी कोशिश करती। सोचती, इस दुनिया में आकर बिना दुःख उठाये कौन चला गया? दुर्भाग्य के भंवर में कौन नहीं फँसा? सुख-दुःख जीवन के हिस्से हैं पर इन विचारों से उसे तात्कालिक सुकून ही मिलता। मन का झंझावत फिर डोलने लगता। लकड़ी पर रंग लगाने से उसके भीतर का कीड़ा नहीं मरता। वह बरबस फूट पड़ी। आँसुओं की बूंदों ने उसके हृदय को अवश्य शीतलता दी पर मन का लावा अभी भी प्रज्वलित था।

कुछ रोज पूर्व ‘मकर सक्रांति’ पर्व पर गाँव के लोग हवेली की छत पर पतंग उड़ाने आए। मकर सक्रांति गाँव का प्रमुख उत्सव था। आसमान पतंगों से भर गया। अगमसिंह उस रोज भी नदारद था। विचारों की आँधी उस दिन भी मानकुंवर को घेरे रही। इस दुनियां की रंग बदलती पतंगों को उड़ाने वाला कौन है? सभी पतंगें समय व हवा के रुख से उड़ रही है, हवा बदली तो फिर किसकी उड़े एवं किसकी कटे। क्या इंसान के हाथ में कुछ भी नहीं ? क्या हम मात्र भाग्य के अधीन है ? चिंता, निराशा व विषाद के अपार सागर में उसका मन डूब गया। यह कैसा विवाह का बंधन है ? क्या हमारी व्यवस्थाओं में छाती पर सिल रखकर समायोजन करना ही प्रणय बंधन है ? इतना अपमान, व्यंग्य व बहिष्कार सहकर भी हम इसे निभाये चले जाते हैं। धर्म का यह कैसा रूप है? बुजुर्गों की यह कैसी सीख है? उसे लगा माँ-बाप की सीख एवं धर्म की पोथियों को कुएँ में डाल दूं। कत विध सृजी नारी जग माही, पराधीन सपनेहूं सुख नाहीं। उसके कलेजे में बर्छियाँ चलने लगी।

लेकिन आज जो कुछ हुआ वह मानकुंवर की सहनशक्ति के परे था। आज करवा चौथ थी। सुबह से भूखी प्यासी वह देर रात तक अगमसिंह का इंतजार करती रही। अगमसिंह को उसने सुबह ही कह दिया था कि आज देर से न आए। लेकिन उस नर-पिशाच को आज भी बोध नहीं हुआ। रात चाँद भी बहुत देर से उगा, वह पूजा कर नीचे उतरी ही थी कि उसने देखा, अगमसिंह नशे में धुत्त एक युवती को जबरन अपने कमरे में ले जा रहा था। वह युवती किसी कारिंदे की बेटी थी तथा रह-रह कर मदद के लिए पुकार रही थी। अगमसिंह के सिर पर शैतान सवार था। आज वह गजब ढा रहा था। वह निरंकुश सबको मूली-गाजर ही समझता था, इज्जत की उसे परवाह ही कहां थी। युवती चिल्लाये जा रही थी, ‘‘कोई बचाओ! भगवान के लिए गरीब पर दया करो।’’

मानकुंवर इस अपराध एवं तिरस्कार को नहीं सह सकी। क्या यही उसका सौभाग्य सिन्दूर है? क्या इसी अधम नर-पिशाच के लिए वह सुबह से भूखी प्यासी बैठी है? क्या पति परमेश्वर का यही रूप है?

बहुत रगड़ने पर चंदन की शीतल लकड़ी से भी अग्नि प्रगट हो जाती है। अति होने पर धैर्यवान भी अपना धैर्य खो देता है। क्षत्राणी का खून गरम हो उठा, रोम-रोम से चिंगारियाँ फूट पड़ी। जाति का गौरव एवं अभिमान उसकी आँखों में अंगारे बनकर दहकने लगा। दिमाग एक भीषण संकल्प से आप्लावित हो गया।

दीवार पर लटकी पुश्तैनी तलवार को मानकुंवर ने नीचे उतारा। तलवार को मूठ से पकड़कर विकराल भवानी की तरह वह अगमसिंह के कमरे तक आई। उसकी आँखों का तेज देखते ही अगमसिंह के होश पस्त हो गए। युवती बेतहाशा वहां से भागी। उसी समय देखते ही देखते वीर क्षत्राणी ने तलवार के एक ही वार से अगमसिंह की गर्दन धड़ से अलग कर दी।

दूसरे दिन मुंह अंधेरे उसने पुलिस थाने में आत्म-समर्पण कर दिया।

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07.05.2002

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