मि. मित्तल जैसा खड़ूस आपको ढूंढ़े नहीं मिलेगा ?
केक्टस एवं कोक्रोचों की तरह खड़ूस भी दुनियाँ में सर्वत्र मिल जाते हैं। इन्हें दीपक लेकर ढूंढने की जरूरत नहीं। इनकी मात्रा के अनुरूप इनके प्रकार भी कई तरह के होते हैं। जैसे रावण की सेना में असंख्य प्रकार के राक्षस थे वैसे ही खड़ूस भी कोटिलक्षणा होते हैं। कुछ खड़ूसों की माथे की नसें हर वक्त तनी रहती हैं तो कुछ अकारण ही लोगों को घूरते रहते हैं। कुछ का सम्पूर्ण खड़ूसपन भौहों के इर्दगिर्द इकट्ठा हो जाता है तो कुछ अकारण ही दाँत पीसते रहते हैं। कुछ खड़ूस काक वंशावलियों का प्रतिनिधित्व करते हैं, हर वक्त ऐसा काँव – काँव करते है कि सुनने वाला भाग खड़ा होता है। कुछ खड़ूसों को काम करना जरा भी नहीं सुहाता। काम का नाम सुनते ही उनके नथुने फड़क उठते हैं। ऐसे खड़ूस अक्सर सरकारी विभागों में देखने को मिलते हैं। कहते हैं यह रिश्वत मैया के बेटे होते हैं, जब तक इनकी माँ आकर इन्हें दुलार नहीं देती, इनका खड़ूसपन जाता ही नहीें। ऐसे मातृ दुलारों को जनता सहस्त्र हाथों से नमन करती हैं। कुल मिलाकर संसार में धूलकणों की तरह असंख्य प्रकार के खडूस होते हैं। इनकी विवेचना को विस्तार दिया जाय तो संसार के मसि-कागद कम पड़ जायेंगे।
लेकिन, हाँ, मित्तल साहब जैसा खड़ूस शायद ही कोई हो। ऐसा नहीं है कि उन्होंने मेरा कोई नुकसान किया हो, मुझे धोखा दिया हो अथवा अमानत में खयानत की हो। उन्होंने ऐसा किया होता तो मैं उन्हें चोर, दगाबाज अथवा कपटी कुछ भी कहता पर मित्तल साहब ने मेरे साथ ऐसा कुछ भी नहीं किया पर उनका खड़ूसपन, तौबा ! तौबा ! भगवान बचाये ऐसे नमूनों से ?
कहते हैं जीवन भाग्य का दूसरा नाम है। हम तदबीर के कितने ही नगाड़े पीटें, अंततः तकदीर के आकाश के नीचे स्वयं को बौना पाते हैं। अभी कुछ रोज पहले ऑफिस से घर आकर बैठा ही था कि छाती में तेज दर्द हुआ। परिवार के सभी सदस्य दौड़े-दौड़े आए। लड़के ने कहा, ‘पापाजी ! तुरन्त अस्पताल चलिए।’ बेटी ने आनन-फानन में गाड़ी बाहर निकाली। उनकी माँ जैसा विशाल धैर्य एवं दीर्ध अनुभव उनके पास कहाँ था ? अविचलित वह किचन में गई एवं वहां से कटोरी में सरसों का तेल लेकर बाहर आई। कुछ देर छाती पर मालिश की तो मेरी साँस में साँस आई। मालिश करते वक्त उसकी आँखों में कुछ ऐसे भाव थे जिसे मैं न तो यह कह सकता हूँ कि वह मुस्करा रही थी एवं न ही यह कह सकता हूँ कि वह गंभीर थी। मोनालिसा की अबूझ मुस्कराहट की तरह उसकी आँखों के भाव भी अस्पष्ट थे। खैर ! मुझे भी आम खाने से मतलब था पेड़ गिनने से नहीं। निस्संदेह मुझे मालिश से राहत मिली। बीवी के नरम मुलायम हाथ किसी राम बाण औषधि से कम नहीं होते। आदमी को बूढ़ापे में ही उनकी चमत्कारी शक्ति का परिचय मिलता है।
मेरी तबीयत तो ठीक हो गई पर इस घटना के बाद बीवी का मूड बिगड़ गया हालांकि मैं ईमानदारी से कहे देता हूँ कि मेरी बीवी खड़ूस नहीं है। मेरी गिनती उन अभागों में नहीं है जो विवाहित भी हैं एवं जिन्हें बीवी भी खड़ूस मिली है। मेरे भाग्य का करेला नीम पर नहीं चढ़ा है, हाँ ! मेरा जीवन अवश्य कई बार उसके आदेशों की खूंटी पर लटक जाता है। इस बार उसने कड़ी हिदायत दे दी, ‘अब घी, मिठाई बंद एवं कल से माॅर्निंग-वाॅक शुरू।’ जैसे किसी भजन संध्या में ढोलकी के बजते ही मंजीरें बज उठते हैं, दोनों बच्चों ने सुर में सुर मिलाकर माँ की सलाह को बुलन्द किया।
दूसरे दिन माॅर्निंग-वाॅक में ही मुझे मित्तल साहब के प्रथम दर्शन हुए। मार्निंगवाॅक के लिए शहर के पब्लिक उद्यान पहुँचा तो वहाँ दस-बारह आदमी झुण्डों में खड़े थे। शायद ये रोज आने वाले लोगों में थे। मार्निंग-वाॅक करने के पहले सभी एक दूसरे से बतियाते, शहर का हाल जानते एवं वाॅक शुरू। मेरी एक बहुत बुरी आदत है, लपक कर आगे बढ़कर हाथ मिलाने की। मैंने मुस्करा कर वहाँ खड़े लोगों से हाथ मिलाया, उनका परिचय लिया एवं अपना परिचय दिया।
इन्फोर्मल होकर इंसान कितना हल्का महसूस करता है।
उस समय श्री मित्तल झुण्ड के कुछ पीछे खड़े थे। मैंने आगे आकर उनकी तरफ भी हाथ बढ़ाया पर उन्होंने हाथ देने की बजाय अपनी पीठ घुमाई एवं मार्निंग-वाॅक प्रारम्भ कर दी। मैं अपना-सा मुँह लेकर रह गया। पास खड़ा एक व्यक्ति आगे बढ़ा एवं बताया कि यह मित्तल साहब है। इनका पूरा नाम नेमिशरण मित्तल है। इतना कहकर उसने भी अपनी राह ली।
अब सभी लोग बगीचे में घूम रहे थे। उद्यान एक ऊँचे पहाड़ के नीचे एक कि.मी. की परिधि में पसरा था। उद्यान के चारों ओर नीम, पीपल, पलाश एवं अशोक के ऊँचेेेे-ऊँचे पेड़ थे। इन्हीं पेड़ों के आगे परिधि के किनारे-किनारे सात-आठ फीट का पक्का रास्ता बना था। ऊर्जा एवं उत्साह से भरी सुबहों में झूमते हुए पेड़ों के साये में घूमना किसी स्वर्गिक सुख से कम नहीं। नीले आकाश में बिखरे हुए रंग-बिरंगे बादल इस सुख को और बढ़ाते। गोल रास्ते के मध्य बिछे हुए हरे कालीन की तरह मनभावन गार्डन था। दूब पर लगी ओस की नन्हीं बूँदें सूर्योदय होते ही मोतियों-सी चमकती। गार्डन में कई रंग-बिरंगे पक्षी अपनी पतली, ऊँची टांगों से घूमते-दौड़ते नजर आते। कभी अपनी गर्दन को तेजी से घुमाते तो कभी पंख फड़फड़ाते। शायद वे भी विवेक सम्मत मनुष्यों को देखकर माॅर्निंग-वाॅक के लिए आते अथवा सुबह-सुबह हंस की तरह ओस के मोती चुगने, भगवान जाने। कई बार मुझे लगता इन पक्षियों से बातें करूँ, इन्हें अपने हाथों में लेकर सहलाऊँ, इनके साथ-साथ दौडूं फिर विवेक तुंरत कल्पनाओं पर लगाम लगाता, तब बचपन में माँ की कही बात याद आती-खग ही जाने खग की भाषा। वैज्ञानिक उन्नति के चरमोत्कर्ष पर जीने वाला इंसान क्या कभी पक्षियों की भाषा, उनके संवादों का अर्थ जान सकेगा ?
अब तक कई लोग वृत्त के चारों ओर घूम रहे थे। कुछ दो-दो के ग्रुप में घूम रहे थे तो कुछ अकेले। कुछ क्लोकवाइज घूम रहे थे, कुछ एन्टीक्लोकवाइज। कुछ तेज घूम रहे थे तो कुछ धीरे-धीरे जोगिंग कर रहे थे। इनमें दो औरतें भी एक ग्रुप में घूम रही थी। एक ग्रुप में दो व्यापारी थे तो एक ग्रुप में दो सरकारी अधिकारी। एक ग्रुप में दो बुजुर्ग घूम रहे थे। मैं क्लोकवाइज घूम रहा था एवं मित्तल साहब एन्टीक्लोकवाइज। निःसंदेह मेरी चाल इन सबसे तेज थी। चलते हुए मैं सबके करीब से होकर गुजरा, सभी अपनी-अपनी बातों में मग्न थे। औरतें जो उम्र में तीस-बत्तीस के आस-पास होंगी, अपनी सासुओं को कोस रही थी। दोनों अपनी-अपनी सास को निकृष्टतम साबित करने पर आमादा थी। दानों सरकारी अधिकारी व्यापारियों को कोस रहे थे एवं दोनों व्यापारी अधिकारियों को। बुजुर्ग अपने बेटों को रो रहे थे। मेरे कानों में पड़ती उनकी बातों से ऐसा ही आभास हो रहा था। लोग सुबह-सुबह वाॅक करने आते हैं या भड़ास निकालने? राजा कर्ण की वेला ऐसी निगोड़ी बातें ? हाँ, सभी अपने-अपने चक्कर अवश्य गिन रहे थे।
सबके अपने-अपने लक्ष्य थे। कोई चार चक्कर लगाता तो कोई पाँच। लक्ष्य पूरा होते ही उनके चेहरे चमक उठते। लक्ष्य पूरा करने का आनन्द भी असीम है। मैं सोचता हूँ हर महकमें एवं कम्पनी में कर्मचारियों के लिए अगर मोर्निंगवाॅक अथवा स्पोर्ट्स जरूरी कर दिए जायें तो उनके अपने लक्ष्य त्वरित हासिल होंगे। स्पोर्ट्स के अतिरिक्त यह भाव कहीं और से आ ही नहीं सकता।
इस दरम्यान चक्कर लगाते हुए, मित्तल साहब मुझे तीन बार मिले। तीनों बार मैनें उन्हें नमस्कार किया पर वह भी पक्का खड़ूस था, हिला तक नहीं। ठठेरे की बिल्ली की तरह पक्का ढीठ। एक बार तो मैंने कमर को तीस डिग्री तक झुका दिया पर वह भी टेढ़ी खीर था, उस पर कोई असर नहीं हुआ। मैं कुढ़कर रह गया। कैसा दो कौड़ी का आदमी है ? न दीन का ना दुनिया का, सबसे बेखबर। मेरे स्वाभिमान ने मुझे गहरे से ललकारा। अंततः मैंने सोच लिया कि अब मैं उसे नमस्कार नहीं करूँगा। जिसको जो भाषा समझ में आए उसी में बात करो। शठे शाठ्यं समाचरेत्।
मैं ऐसा सोचकर चौथे चक्कर पर निकल तो गया पर फार्मल होना मेरे बस में नहीं था। कहीं कुछ चुभ रहा था, व्याकुल कर रहा था। हमारी यह फितरत है कि हम सद्व्यवहार करने वालों के बारे में अक्सर नहीं सोचते पर दुर्व्यवहार करने वाले हमारे हृदय को झकझोरते रहते हैं। आखिर उन्होंने मेरे सद्व्यवहार का उत्तर क्यों नहीं दिया ? वह इतने खड़ूस क्यूँ हैं ?
वैसे मित्तल साहब कद काठी में बहुत संभ्रान्त परिवार से लगते थे। अधेड़ उम्र, ऊँची गहरी ललाट, गोल्डन फ्रेम का चश्मा, तीखी नाक, गोल चेहरा एवं ऊँचा कद उनके व्यक्तित्व की खूबियाँ थी पर आँखें एवं उदास चेहरा देखकर लगता जैसे किसी व्यापारी का दिवालिया पिट गया हो। आखिर कुछ लोग खुश क्यों नहीं रह पाते ?
चौथा चक्कर लगाते समय मित्तल साहब मुझे पुनः मिले। मैंने उन्हें देखकर ऐसे मुँह मोड़ा जैसे पुरानी गलतियों की भरपाई कर रहा हूँ। इस बार मित्तल साहब कुछ गंभीर हुए, उनकी आँखों की उदासी और बढ़ गई। पर मुझे क्या, जो दूसरों की मिट्टी पलीद करते हैं उनका ऐसा ही हश्र होता है। हम जो देंगे वही तो हमें मिलेगा। खैर ! चार चक्कर लगाकर मैं वापस आ गया हालांकि पूरे रास्तें मैं उनके बारे में ऊलजलूल सोचता रहा।
दूसरी सुबह मैं फिर उद्यान वाॅक के लिए पहुँचा। सबसे हाथ मिलाकर मैं आगे बढ़ा तो मित्तल साहब कुछ ही दूरी पर निर्जीव काठ की तरह खड़े थे। आज फिर उन्होंने मुझे देखा एवं मुँह मोड़कर अपनी वाॅक प्रारम्भ कर दी। हम दोनों ने एक ही बिन्दु से विरूद्ध दिशा में चलना प्रारम्भ किया। मुझे मालूम था, एक चक्कर लगााने में करीब पाँच-सात मिनट लगते हैं अतः यह खड़ूस हर पाँच-सात मिनट में एक बार मिलेगा यानि हर बार इस अकडूचंद को झेलगा पड़ेगा।
मैं तेज गति से चल रहा था लेकिन उससे भी तेज गति से मित्तल साहब मेरे विचारों में घूम रहे थे। मैं मन ही मन सोच रहा था आखिर यह व्यक्ति इतना उखड़ा हुआ क्यों रहता है ? क्या कुछ लोगों की जड़ों में विनम्रता एवं सद्व्यवहारों के संस्कार जरा भी नहीं होते ? हम कई बार अहंकार का जवाब अहंकार से दे तो देते हैं पर यह अहंकार हमें ऐसे ही व्यथित करता है जैसे पाँव में चुभा हुआ शूल।
आज मित्तल साहब मुझे चार बार मिले, मैंने चारों बार उनको दरकिनार किया। हर बार ऐसे मुँह फेरा जैसे किसान महाजन को देखकर मुँह फेर लेते हैं। मन ही मन खुश था, बेटा ! जैसा करोगे वैसा भरोगे। मोर्निंग-वाॅक से आते-आते मेरे मन में विजय दुदुंभी बज रही थी।
उसके अगले तीन रोज भी मैंने उनके साथ ऐसा ही व्यवहार किया। मित्तल साहब भी अपने पूर्ववर्ती व्यवहार पर अडिग थे।
उसके अगले दिन माॅर्निंग वाॅक के पहले चक्कर में मैंने उनसे वैसा ही व्यवहार किया जैसा नित्य किया करता था। दूसरा चक्कर काटते-काटते मुझे लगा मैं भीतर से कहीं टूट रहा हूँ। मैंने खुद को कमजोर होते हुए महसूस किया। हम इतने प्रतिशोध से क्यूँ भर जाते हैं ? अहंकार बादलों की तरह हमारे विवेक सूर्य को क्यों ढक लेता है ? हर बार हम बुराई का बदला बुराई से ही क्यों देते हैं ? अगर अहिंसा एवं प्रेम के बल पर बुद्ध, महावीर, ईसा एवं बापू युग परिवर्तन कर सकते हैं तो क्या हम एक मनुष्य को नहीं बदल सकते ? आखिर क्या अनुभूत करके ईसा ने कहा था, ‘कोई तुम्हारे एक गाल पर थप्पड़ मारे तो उसके आगे अपना दूसरा गाल कर दो।’ अगर वे अहिंसा के शिखर पर चढ़ सकते हैं तो मैं प्रेम के मैदान में क्यों नहीं चल सकता ?
आसमान के पूर्वी छोर पर सूर्याेदय के होते ही तेज हवाएँ चलने लगी थी। हवाओं के प्रहार से बादल अविच्छिन्न होकर टुकड़े-टुकड़े हो गए थे।
अगली सुबह मैंने एक अजीब-सा निर्णय लिया। मैंने तय किया कि मैं आज चक्कर लगाते समय मित्तल साहब को हर बार नमस्कार करूँगा, चाहे वो मुझे कितनी ही बार मिले, चाहे वो रिस्पांड करे या न करे। वो भले हाथ न मिलाए, मैं तो उन्हें हाथ जोड़ सकता हूँ। मुझे ऐसा करने से कौन रोक सकता है।
इस बार मित्तल साहब के मिलते ही मैंने हाथ जोड़कर नमस्कार किया। उन्होंने कोई प्रत्युत्तर नहीं दिया। चक्कर लगाते हुए वे मुझे चार बार मिले, मैंने हाथ जोड़कर चारों बार नमस्कार किया। हर नमस्कार के साथ उनके माथे पर विषाद की रेखाएँ उभर आती पर अंगद के पाँव की तरह उन्होंने हठ नहीं छोड़ा। वे अड़े रहे।
अगले रोज वाॅक के लिये मैं थोड़ा देर से पहुँचा। मैं आज भी अपने निर्णय पर अड़िग था। मुझे पूरा विश्वास था, मैं इस व्यक्ति को तोड़कर रहूँगा।
सबसे हाथ मिलाकर मैं आगे बढ़ा ही था कि मुझे मित्तल साहब दिखाई दिए। आज उनके साथ एक और सज्जन खड़े थे। मैंने दोनों को हाथ जोड़कर नमस्कार किया। नमस्कार करके आगे बढ़ा ही था कि उनके साथी ने मुझे पुकारा, ‘भाई साहब! जरा एक मिनट रूकिये।’
मैं पीछे मुड़ा तो देखकर अवाक् रह गया। मित्तल साहब के चेहरे से टप-टप आँसू गिर रहे थे, देखते-ही-देखते उनका चेहरा आँसुओं से नहा गया। उनकी घिग्घी बंध गई। मेरी आँखों में जीत का नशा था, नेत्रों से विजय किरणें फूट रही थी। आखिर मेरे सद्व्यवहार से वे पिघल ही गए। उनके साथ खड़े सज्जन आगे बढ़े एवं मेरे कंधे पर हाथ धरकर बोले, ‘ भाई साहब! गत चार पाँच रोज से मित्तल साहब बहुत परेशान है। आज इसीलिए मुझे साथ लाए हैं। मैं इनका वर्षों पुराना परिचित हूँ। दरअसल इनकी बहुत इच्छा है कि यह आपसे बातें करें, आपसे हाथ मिलाएँ पर यह मजबूर हैं। यह बचपन से ही गूंगे एवं बहरे हैं तथा दो वर्ष पूर्व एक दुर्घटना में इनके दोनों हाथ चले गए। इन्होंने कंधे तक कृत्रिम हाथ पहन रखे हैं, जिन्हें यह हिला भी नहीं सकते।’ यह कहते हुए उन्होंने उनके दस्ताने हटाये तो उनके कृत्रिम हाथ देखकर मैं हैरान रह गया। काटो तो खून नहीं, मन बधिर एवं शरीर सुन्न हो गया।
‘आखिर यह दुर्घटना हुई कैसे ?’ मैंने काँपते होंठों से प्रश्न किया।
‘पिछले साल इनकी फेक्ट्री में भीषण आग लगी। सभी मजदूर बाहर आ गए पर एक अपंग मजदूर अंदर रह गया। उसके दोनों पाँव बेकार थे। मित्तल साहब उसको बचाने के लिए जान हथेली पर लेकर आग को चीरते हुए अंदर गए, उसे बचा भी लाए पर इसी प्रयास में उनके हाथ बुरी तरह झुलस गए। बाद में इन्फेक्शन इतना बढ़ा कि दोनों हाथ कटाने पड़े।’
मुझे लगा मैं धरती में गड़ रहा हूँ। कानों में जैसे किसी ने तप्त लोहा उड़ेल दिया हो। मित्तल साहब आ….आ….कहकर कुछ कहने का असफल प्रयास कर रहे थे। उनकी भीगी पलकें एवं विहृल हृदय मेरी निष्ठुरता का बयान कर रहे थे।
आज उनकी आँखें वाचाल थी पर मेरी जुबान तालू से चिपक गई थी।
……………………………………………
10.12.2005