चिन्तामणि

दुनिया में दैविक चमत्कार होते रहते हैं। ऐसा ही एक चमत्कार रघुनाथ पाण्डे के साथ हुआ।

अधेड़ उम्र का होते-होते इंसान भाग्य के कई पहलू स्वीकार कर लेता है। जीवन के थपेडे़ खाते-खाते  एक नया ज्ञान उसकी आत्मा पर दस्तक देता है कि कर्म ही सब कुछ नहीं है, भाग्य का भी अपना बल है। अपने लम्बे अनुभव से इंसान समझ लेता है कि कुछ सुख अनायास ही उसकी झोली में आ पड़े हैं जिनका वह पात्र नहीं है, उससे कई अधिक योग्य इन सुखों से वंचित हैं। वह यह भी जान लेता है कि कई दुःख प्रारब्धजन्य हैं, अपने तमाम प्रयासों के बावजूद वह इन्हें मिटा नहीं सकता। यही वह समय है जब मनुष्य के जीवन में अध्यात्म के अंकुर फूटने लगते हैं, वह ईश्वरोन्मुख होने लगता है। संसार का प्रत्येक व्यक्ति यहाँ तक कि घोर नास्तिक भी इस कटु सत्य को कभी न कभी अवश्य अनुभूत करता है।

रघुनाथ पाण्डे एवं रागिनी ने अब तक यह स्वीकार कर लिया था कि संतान सुख उनके भाग्य में नहीं है। इसे विधना के अंक कहो अथवा कर्मों का दोष पर यह बात पक्की थी कि जन्मपत्री के पुत्र घर में उनका प्रारब्ध क्षय हो चुका था। पाण्डे दम्पति को विवाह किए पच्चीस वर्ष से ऊपर हो चुके थे। विवाह के तीन-चार वर्ष तक तो उन्होंने इसे गंभीरता से नहीं लिया पर विवाह के छः-सात वर्ष बाद जब गलियों में कानाफूसी होने लगी तो पाण्डे दम्पति को लगा मामला गंभीर है। उस दिन तो हद हो गई जब मोहल्ले के बुजुर्ग गोपीनाथजी सुबह-सुबह रागिनी को देखकर वापस घर लौट गए। सुबह-सुबह निपूती के शगुन कौन ले। दुनिया कौए की तरह हमेशा मर्मस्थानों पर चोंच मारती है। रागिनी की चतुर आँखों से यह बात छुप न सकी। वह दिन भर आँसू बहाती रही पर पति को कुछ नहीं कहा। बाद में जब सास-श्वसुर भी उसे कोसने लगे तो रागिनी के लिए जीवन नर्क हो गया। हमारे देश में संतति सुख या तो संयोगवश मिल जाता है या आस-पास का वातावरण व्यक्ति पर इतना दबाव बना देता है कि वह संततिवान होने में ही अपने भाग्य की इतिश्री मान लेता है। संततिवान होना यहां पुरुषों के लिए पुंसत्व एवं स्त्रियों के लिए सुलक्षणा होने का प्रमाण है।

तब सास उसे किसी महात्मा के पास ले गई जिन्होंने उसे कठोर ‘पुंसवान व्रत’ करने की सलाह दी। पूरे एक वर्ष उसने एक समय खाना खाया, पूरे वर्ष पीले वस्त्र पहने एवं वर्षांत के अन्तिम दो माह कठोर मौन धारण किया। व्रत के नियम इतने कठोर थे कि वर्षांत होने तक रागिनी की दोनों आंखें धँस गई, आँखों के नीचे गहरे काले गड्ढे पड़ गए एवं कल तक फूल-सी खिलने वाली रागिनी की पसलियाँ बाहर आ गई। यज्ञ की पूर्णाहुति पर पण्डितों को मुँह मांगा दान दिया गया पर संतान उसके भाग्य में नहीं लिखी थी सो नहीं हुई। उसके सारे प्रयास वैसे ही व्यर्थ हो गए जैसे भाग्यहीन के सारे उद्योग व्यर्थ हो जाते हैं। पौत्र की तमन्ना लिये सास-श्वसुर भी स्वर्ग सिधार गए।

पाण्डेजी अब अनमने रहने लगे। शहर से कुछ दूर तहसील में विकास अधिकारी थे, उनके अधीनस्थ कर्मचारी चटकारे लेते, ‘अरे भई, हल चलाना आना चाहिए।  मजाल है खेत में फसल ना हो।’ उधर गली-मोहल्ले की औरतें रागिनी को निशाना बनाकर कानाफूसी करती, ‘अगर खेत ही खराब हो तो मर्द बिचारा क्या करे।’ दोनों ने एक बार डाॅक्टर को दिखाने की सोची भी, फिर न जाने क्या सोचकर रागिनी टाल गई। उसे लगा अगर दोष इनका निकल गया तो ये जीवन भर अपराध बोध से ग्रस्त रहेंगे एवं अगर दोष खुद का निकल गया तो वह जीवन भर बाँझ ब्राण्ड हो जाएगी। रागिनी ने कठोर मन कर इस विचार से किनारा किया। 

सारे सुखों के बीच में पाण्डे दम्पति को यह कसक खटकती रहती। मुख पर आंतरिक चिंता के चिन्ह स्पष्ट नजर आते। जैसे भूखे को भोजन एवं प्यासे को पानी के अतिरिक्त अन्य किसी भोग से संतुष्टि नहीं मिलती वैसे ही संतान सुख के अभाव में उन्हें सारी संपदा कचोटती रहती। सारे सुख नगण्य लगते। बुखार से पीड़ित व्यक्ति के आगे ‘ड्राई फ्रूट्स’ रखे हो तो क्या वह उन्हें खा सकता है? उनकी स्थिति उस नाविक की तरह थी जो भरे समुद्र में प्यासा खड़ा हो। इसी जद्दोजहद में जीवन के पच्चीस वर्ष बीत गए। अब पाण्डेजी पैंतालीस के ऊपर एवं रागिनी चालीस के पार थी।

लेकिन आज जब रागिनी ने पाण्डेजी के कान के पास जाकर कहा कि वे बाप बनने वाले हैं तो उनके कानों में अमृत बह गया। आनन्द के उद्रेक से उनका रोम-रोम खिल उठा। वे ऊपर से नीचे तक खुशी से सराबोर हो गए। अंधा क्या चाहे दो आँखें। पाण्डे दम्पति की मानो चिर अभिलाषा पूर्ण हुई। अब पाण्डेजी हर वक्त चहके हुए लगते। उन्होंने सोचा भी नहीं होगा कि जिस सुख की बाट जोहते उनकी उम्र बीत गई उसे ‘इनफर्टिलिटी क्लिनिक’ वाले मात्र तीन माह में कर दिखाएंगे। कुछ माह पूर्व ही उन्होंने एक मित्र की सलाह पर डाॅक्टरों को बताया था। डाॅक्टरों ने उन्हेें बताया कि उनके शुक्राणुओं में जनन क्षमता कमजोर है, उन्हें तीन माह नियमित दवाई लेनी होगी। मात्र तीन माह के कोर्स में यह चमत्कार हो गया। जो बात वर्षों के तप, योग, प्रार्थनाओं एवं याचनाओं से सिद्ध नहीं हो सकी वह मात्र कुछ महीनों के  इलाज से  सिद्ध हो गई। ईश्वर कर्म एवं विज्ञान का कैसे निरादर कर सकता है। संसार के सारे विज्ञानों का जनक वही तो है। विज्ञान का अनादर ईश्वर का अनादर है। पिता बनने की बात सुनकर वे रोमांचित हो गए। भावनाओं की बाढ में प्रेम के आँसू छलक आए। आज पहली बार सच्चे हृदय से उन्होंने रागिनी से क्षमा मांगी, ‘रागिनी ! मेरे कारण सारी उम्र लोगों ने तुझे बाँझ कहा, और तुम भी कितनी महान हो, सारी उम्र सुनती रही, सहती रही पर कभी मुझे यह अहसास नहीं होने दिया कि मुझमे कोई कमजोरी है। तुम सचमुच देवी हो, विनय की सीमा हो। विद्या, धन एवं कुलीनता से सम्पन्न होने पर भी अहंकार तुम्हें छू तक नहीं गया है।’ यह कहते-कहते ही वह फूट-फूट कर रो पड़े। वर्षों के दबे आँसू उबल पड़े।

आज उन्हें पता चला कि स्त्री कितनी महान, कितनी विशाल एवं कितनी ऊँची होती है।

वे दिन रात रागिनी की सेवा में लग गए। जिस सुख के इंतजार में यौवन गुजर गया, उत्तरकाल में वे उसी को तकने लगे। जिस तरह साँझ ढले पक्षी अपने बच्चों के लिए, गाय अपने बछड़े के लिए बेचैन रहती है, जैसे वियोगिनी पत्नी अपने चिर प्रवासी पति के लिए उत्कंठित रहती है, यही हाल उन दोनों का था।

घर में अब अधिकतर काम नौकर ही करते। पाण्डेजी स्वयं भी रागिनी का पूरा ध्यान रखते। दिन में चार बार खुद ‘ज्यूस’ बनाकर पिलाते, कभी फल काटकर खिलाते कभी क्या तो कभी क्या। घर बच्चों की तस्वीरों से भर गया। बच्चे के आने के पहले ही खिलौने आने लगे। अब वो अपने भाग्य को सराहने लगे। समय की अनुकूलता ही इन्सान को सिद्ध करती है। अनुकूल समय में सब कुछ सुलभ हो जाता है, बिन मांगे मोती मिल जाते हैं। जिस दिन उनके घर पुत्र जन्म की किलकारी गूंजी, वह दिन उनके भाग्य का चरमोत्कर्ष था। उन्हें नवों निधियाँ मिल गई।

जैसे बड़ी कठिनाई से प्राप्त धन में कंगाल की आसक्ति हो जाती है, पाण्डे दम्पति जीवन के उत्तरकाल में पुत्र को संवार कर रखते। वह भी कम चंचल नहीं था। गोद में लेते वक्त अपने नन्हे-नन्हे चरणों से माता-पिता पर प्रहार करता तो पाण्डे दम्पति निहाल हो जाते। उसके जरा-से रोने से दोनों सावधान हो जाते। 

पाण्डे साहब तो मानो पुत्र मोह में डूब गए। अपने पुत्र को वो पलकों पर रखते, उसका ऐसे ध्यान रखते जैसे पक्षी अण्डों का। पैदा होने से ही उसके मुँह में सोने का निवाला रख दिया गया। बच्चे के लिए स्पेशल झूला आ रहा है, महंगे-महंगे कपड़े और न जाने क्या-क्या। दोनों उसी की नींद सोते उसी की जागते। जब कोई परिचित रिश्तेदार उसे देखकर कहता कि ‘यह तो पूरा पाण्डे साहब पर गया है’, तो पाण्डे साहब की गर्व से छाती फूल जाती। माँ से भी ज्यादा पाण्डे साहब का मन पुत्र में बस गया। सोते, जागते, ऑफिस में वे रह-रह कर उसे याद करते। जब समय मिलता घर पर फोन कर पूछते, ‘मुन्ना कैसा है ?’ उसके नामकरण संस्कार पर उन्होंने फाइव स्टार होटल में पार्टी दी। उस दिन उसका नाम ‘दुर्लभ’ रखा गया। सचमुच पाण्डे साहब के लिए वह एक दुर्लभ रत्न था। 

बच्चा धीरे-धीरे बड़ा होने लगा। एक वर्ष का होते-होते वह चलने लगा। पाण्डेजी खुद अपनी अंगुलियों से उसके हाथों को पकड़कर चलना सिखाते। उसकी तुतलाती बातें उन्हें अमृततुल्य आनन्द देती। वे ऑफिस से आते तो बच्चा दौड़कर उनसे चिपट जाता। पाण्डेजी के मोह के आकार की तरह ही धीरे-धीरे बच्चा बड़ा होने लगा।  शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा की तरह उनका स्नेह बंधन दुर्लभ के साथ दिन-ब-दिन बढ़ने  लगा। जब वह चार वर्ष का हुआ तो शहर की सबसे महंगी स्कूल में उसका दाखिला किया गया। पाण्डेजी उसकी हर बात मानते। कभी सिनेमा तो कभी सर्कस, कभी मेले- कहां-कहां नहीं ले जाते ! एक बार तो शहर की सबसे ऊँची पहाड़ी वाले मंदिर पर वे दुर्लभ को अपने कन्धे पर बिठाकर ले गए। घर आते ही रागिनी ने टोका, ‘इतना मोह मत पाला करो’, पर उनके कान ऐसे शब्दों को ही नकार देते। न सिर्फ पिता को वरन् पुत्र को भी पिता से इतना मोह हो गया कि दोनों एक दूसरे के बिना रह ही नहीं पाते थे। 

देखते ही देखते दस वर्ष बीत गए। अब दुर्लभ सीनियर हायर सैकेण्डरी में था। उसके चेहरे पर हल्की मूँछें आने लगी थी। अब बाप के जूते उसके पाँव में आने लगे। पन्द्रह वर्ष में ही लम्बे चौड़े कसरती बदन के साथ वह जवान लगने लगा। पाण्डेजी जब तब रागिनी को छेड़ते रहते, ‘बुढ़िया ! अब तो तेरे समधन बनने के दिन आए।’ रागिनी तमक कर कहती, ‘अभी तो चींटी के पर भी नहीं निकले और लगे हवाई किले बनाने।’ उत्तर सुनकर पाण्डेजी ठठाकर हँस पड़ते। 

इन दिनों दुर्लभ अधिकतर मित्रों के साथ रहने लगा। पढ़ाई के अतिरिक्त समय में या तो उसके मित्र घर पर होते या वह मित्रों के घर होता। यहाँ तक कि ‘समर वेकेशन’ में भी दुर्लभ के शहर से दूर रहने वाले मित्र उसके घर ही आकर रहते। पाण्डे साहब उसे कभी बाहर जाने की इजाजत नहीं देते।

लेकिन इस बार ग्रीष्मावकाश में दुर्लभ ने जिद पकड़ ली की वह अपने मित्र के गाँव दस रोज अवश्य जाएगा। पाण्डे साहब ने पहले तो आनाकानी की, पर अन्ततः उसकी जिद के आगे उन्हें झुकना पड़ा। हाँ, दिनों की संख्या दस से घटाकर मात्र तीन रोज कर दी गई। दुर्लभ को गए अभी दो रोज ही बीते थे कि पाण्डे साहब के प्राण सूखने लगे, तीसरे दिन सुबह खुद ही कार लेकर मित्र के गाँव पहुंच गए। उसे देखकर ही उन्हें चैन आया। उनकी गुदड़ी का लाल था वह। जैसे सावन के अंधे को हरा ही हरा दिखता है, मोह का चश्मा लगाये पाण्डेजी हर क्षण दुर्लभ के बारे में सोचते रहते। पुत्र-मोह ने उनके हृदय को केकड़े की तरह जकड़ लिया। 

मित्र के पिता के आग्रह पर पाण्डेजी दिन भर गाँव रहे। उन्होंने रात विश्राम कर सुबह जाने का आग्रह किया पर पाण्डेजी को लगा शहर मात्र सौ कि.मी. की दूरी पर है, डेढ़-दो घण्टे में पहुंच जाएंगे, अतः चलना ही मुनासिब समझा। इंसान भावी के अधीन है। इंसान अगर भावी के अधीन नहीं होता तो क्यूं द्रौपदी, दुर्योधन का उपहास करती, क्यूं द्यूत क्रीड़ा होती, क्यूं पाण्डव वन को जाते एवं क्यूं महाभारत होता। इतने महामानव भी जब भावी को नहीं टाल पाए तो फिर सामान्य लोगों की बिसात ही क्या है !

श्री पाण्डे स्वयं कार चला रहे थे, दुर्लभ उनके पास बैठा था। दुर्लभ पिता को गाँव के अनुभव सुना रहा था एवं पाण्डे साहब ध्यान मग्न सुन रहे थे। सावन के दिन थे, रास्ते के दोनों ओर नीरवता की काली चादर बिछी नजर आती थी। यकायक आसमान में काले बादल उमड़ आए। बादलों का शोर हृदय को कँपा जाता था। देखते ही देखते मूसलाधार वर्षा होने लगी। पाण्डे साहब ने कार के वाइपर्स स्टार्ट किए लेकिन पानी से भीगी सड़कों पर तेज हेडलाइट की रोशनी में भी सड़क साफ नजर नहीं आ रही थी। रात घनी अंधियारी होने लगी थी। स्थिति और खराब ना हो, अतः उन्होंने कार थोड़ी तेज की। यकायक सामने एक कुत्ता आया एवं उसे बचाने के चक्कर में उन्होंने स्टीयरिंग तेज बाँयी तरफ घुमाया। देखते देखते ही जोर का धमाका हुआ। पाण्डे साहब की कार सड़क के किनारे बाँयी और खड़े एक पेड़ से जोर से टकराई एवं हेडलाइट्स बंद हो गई। पाण्डे साहब को क्षण भर के लिए मूर्छा आ गई। 

उठे तो दृश्य देखकर वह सिहर उठे। गाड़ी के पास कई गाँव वाले खड़े थे। दुर्लभ जोर-जोर से कराह रहा था एवं गाँव वाले उसे उठाकर गाँव की ओर ले जा रहे थे। पाण्डे साहब चौंके, तुरत गाड़ी से उतरे और दुर्लभ की तरफ भागे। दुर्लभ को देखकर वे लगभग चीख उठे। उसके सर में गंभीर चोटें आई थी एवं सर से बहते खून के कारण पूरा चेहरा लाल हो चुका था। उन्होंने जेब से रुमाल निकालकर उसका चेहरा साफ किया पर खून रुक ही नहीं रहा था। पाण्डे साहब काँप उठे, शोेक के आवेग में उनका मुख मुरझा गया, आँखों के आगे अंधेरी छा गई। वे तुरत उसे शहर ले जाने की सोचने लगे पर वहां खड़े सभी लोगों ने एक ही राय दी कि पास ही गाँव में डिस्पेन्सरी है, डाॅक्टर वहीं रहता है अतः प्राथमिक उपचार करवाकर ही शहर ले जाना ठीक होगा। डिस्पेन्सरी पहुँचते-पहुँचते दुर्लभ को तेज उलटियाँ हुई एवं देखते ही देखते उसकी आंखें पथराने लगी। डिस्पेन्सरी लाकर लोगों ने उसे लिटाया, डाॅक्टर ने आकर देखा पर अब वहां क्या बचा था। जो जहां से आया वहीं चला गया।

पाण्डे साहब पर मानो गाज गिरी। वे उसकी मृत देह से लिपट-लिपट कर रोने लगे। चीख-चीख कर कहने लगे, ‘अरे विधाता ! यह तेरा कैसा क्रूर करम है, बूढ़े-बूढ़े तो जीते रहते हैं और बच्चे मर जाते हैं। इसे इस तरह लेकर रागिनी के पास कैसे जाऊंगा ? हे प्रभु ! उत्तरकाल में तुमने मुझे यह सुख दिया ही क्यों ? मैं तो वैसे ही अपने आपको निपूता मान चुका था।’ वे छाती पीट-पीट कर विलाप करने लगे। रात तेज बारिश के कारण सारे फोन बेकार हो चुके थे, घर सूचना भी नहीं दे सके। वे धम्म से वहीं बैठ गए।

इसी दरम्यान न जाने कहाँ से एक तेजस्वी संत आए। आसपास के गाँवों में उनकी तूती बोलती थी। उनकी लम्बी सफेद दाढ़ी, चमकती आँखों एवं तेजस्वी भाल से उनके महात्मा होने का आभास होता था। ललाट पर भस्म की त्रिपुण्डी रेखाएँ खींची थी, जिसके मध्य में सिंदूर की मोटी लाल बिंदी लगी थी। वे एक सिद्ध तांत्रिक भी थे। कहते हैं दो वर्ष पूर्व उन्होंने एक मुर्दे को जिला दिया था। तब से चारों ओर उनका बोलबोला था।

संत के आते ही सभी लोग वहां से हट गए। पाण्डेजी ने भी शहर में उनके बारे में सुन रखा था। उन्हें देखते ही उन्होंने उनके चरण पकड़ लिए, ‘महाराज ! दुर्लभ को जीवन दान दे दो। इसके बिना हम पति-पत्नी सूखे वृक्ष की तरह गिर जाएंगे। मेरी सारी संपत्ति ले लो, इसे जिंदा कर दो।’ पिता को इस तरह विलाप करते देख संत का हृदय पसीज गया। उन्होंने कमण्डल से हथेली में पानी लिया एवं महामृत्युंजय मंत्र को सिद्ध कर मृत देह पर पानी छिड़का। वहां खड़े सभी लोग स्तब्ध रह गए। मुर्दे में कुछ हरारत हुई एवं फिर बंद हो गई। दुर्लभ का निराकार जीव अब दुर्लभ के पास खड़ा था, संत ने उसे पूर्णतः कैद कर लिया था। 

संत ने उसे ललकार कर कहा, ‘तू इस देह में वापस आ जा। देख ! तेरा पिता किस तरह तेरे वियोग में तड़प रहा है। तुझे मेरी बात माननी ही होगी।’ जीव ने संत से कहा, ‘महात्मन् ! यह मेरा अंतिम जन्म था। अब मैं मुक्ति के द्वार पर खड़ा हूँ। आप मुझे क्यों पुनः बंधन में डालना चाहते हैं।’ संत ने उसे आज्ञा दी कि ‘यह बात  तू  अपने  पिता को  समझा, मैं  तो  एक विवश पिता की प्रार्थनाओं के अधीन हूँ, तुम्हें तभी छोडूंगा जब तेरा पिता मुझे अनुमति देगा।’ यह कहकर संत थोड़े पीछे हट गए।

अब पाण्डेजी एवं दुर्लभ का जीव आमने सामने थे। एक मायापाश से बंधी देह एवं एक मायापाश से विमुक्त जीव। दोनों में वार्तालाप प्रारंभ हुआ।

पाण्डेजी :‘बेटा दुर्लभ ! देख! तुम्हारा पिता तुम्हारे वियोग में कितना तड़प रहा है। तेरे बिना तेरी माँ को मैं कैसे मनाऊंगा ? हमने तुम्हें नाजों से पाला है, पल-पल प्राणों में बसाया है। क्या तू सब कुछ भूल गया ? तू तो एक पल भी मेरे बिना नहीं रह पाता था। अब तुझे क्या हो गया।’ उन्हें पूरा विश्वास था वह उनकी बात को कभी नहीं टालेगा, पर यहाँ तो स्थिति विपरीत थी। माया और मायातीत के बीच युद्ध मचा था।

जीव: ‘किसका पिता एवं किसका पुत्र ! न जाने कितने जन्मों से मैं इन संबंधों में भटक रहा हूँ। आज जबकि मेरी मुक्ति का सुअवसर आया है तो आपने मुझे क्यों कैद करवा दिया है ?’

पाण्डेजी : ‘तुम्हारे बिना हमारे जीवन को धिक्कार है पुत्र ! तुम्हारे वियोग के चंद क्षणों में ही मैं अधमरा हो गया हूँ, बाकी जीवन कैसे बिताऊंगा ? अपनी मुक्ति के स्वार्थ में अंधा मत हो। मेरी बात मान ! अपनी देह में लौट आ।’

जीव :‘आपको भ्रम हो गया है कि मैं आपका पुत्र हूँ ! मैं तो मात्र एक आत्मा हूँ। अभी शरीर रूप में आपका पुत्र था, उसके पहले किसी और का ! कभी किसी का पिता, भाई, सखा एवं सुहृद था। रेशम के कीड़े की तरह इन बंधनों में जकड़ा दैहिक, दैविक एवं भौतिक तापों को सहता रहा। कभी कामिनियों का क्रीड़ामृग बना तो कभी स्वयं कामिनी बना। जन्म-जन्मांतर से न जाने कितने रिश्तों की बेड़ियों में बंधता रहा। आज ईश्वर ने प्रसन्न होकर अपने चरण कमलों में स्थान दिया है तो आप मुझे क्यों वंचित करना चाहते हैं ?

‘पिताश्री ! मैं तो सदैव आपको मेरा सुहृद एवं कल्याण करने वाला समझता था। अब जबकि मैं मंजिल के द्वार पर खड़ा हूँ तो आप मेरी यात्रा को क्यों रोक रहे हैं ? इस चिर-यात्रा में मैंने क्या-क्या नहीं देखा। अपने कर्मपाशों से बंधा मैं किस-किस योनि में नहीं भटका। उन सभी योनियों में मैं प्रियजनों के वियोग एवं अप्रियों के संयोग की आग में झुलसता रहा। क्लेश ही क्लेश देखे। जन्मं दुःखं मरणं दुःखम्। संसार में गर्भाधान से मृत्युपर्यंत क्लेश ही क्लेश हैं। ऐसे संसार में मुझे पुनः क्यों झोंकना चाहते हैं ? अब जबकि मैं अमृत सरोवर में विहार कर रहा हूँ, आप मुझे जल भरे गड्ढे में क्यों डालना चाहते हैं ?’

‘पितृवर ! यह मनुष्य मरणधर्मा, क्षणभंगुर एवं अनित्य है। ऐसे नाशवान जीवन में किसी रिश्ते के बल पर आप संसार समुद्र को कैसे लांघ सकते हैं ? क्या कुत्ते की पूंछ को पकड़कर किसी ने समुद्र लांघा है ?’

‘पितृश्रेष्ठ ! मैंने जन्म-जन्मान्तर में लक्ष्मी, ऐश्वर्य, परिवार बहुत देख लिए। अब मेरे सारे मनोरथ पूर्ण हो गए। अब आपके साथ मेरा क्या प्रयोजन ? जैसे वायु के चलने से बालु के कण एक दूसरे से मिलते बिछुड़ते रहते हैं, वैसे ही समय के प्रवाह के साथ प्राणियों का मिलन और बिछोह होता रहता है। आप मुझे मुक्त करवाएं ताकि मैं उसमें विलीन हो सकूं जिससे हमारा जन्म, स्थिति एवं जिसमें हमारा लय होता है। कदाचित् मैं अपनी देह में लौट भी गया तो मेरी आत्मा शेष जीवन आपसे द्रोह करेगी, क्योंकि आप उसके कल्याण में बाधक बने हैं।’

पाण्डेजी के मानो ज्ञान-चक्षु खुल गए, बुद्धि उघड़ गई। उन्हें अब अपनी भूल पर पछतावा हुआ। पुत्र जीव की ओर पुनः मुखातिब होकर बोले, ‘बेटा ! मुझे क्षमा करो। अब मैं तुम्हारे मार्ग का काँटा नहीं बनूंगा, पर स्वार्थवश मेरी मुक्ति का मार्ग अवश्य जानना चाहूंगा।’ पाण्डेजी हाथ जोड़े खड़े थे। यह एक अलौकिक अनुभव था।

जीव : ‘प्रभु नाम ही संसार रोगों का औषध, जीवन के दुःखों और क्लेशों के लिए परित्राण है। जिसकी जिह्वा पर प्रभु नाम नृत्य करता है उसी का जीवन सार्थक है। धरती, वायु, अग्नि, आकाश, जल, प्राण, चित्त, निर्गुण एवं सगुण सभी में उसी का विस्तार है। आप हृदय में विश्वास भर कर उसी की भक्ति करे। सुख-दुःख, मान-अपमान, लाभ-हानि द्वंद्वों में तटस्थ रहें। अपने सभी कर्मों को प्रभु को अर्पण करदें। जिसने एक बार अपने मन मधुकर को भक्ति का मकरंद पिला दिया उसे फिर और आनन्द से क्या प्रयोजन ?’

‘पितृवर ! अब मुझे बंधनमुक्त कर जाने की आज्ञा दीजिए !’

पाण्डेजी माया के कुएं से ऐसे निकल आए जैसे हाथी कीचड़ के तालाब से निकल आता है। संत अब भी सहज भाव से मुस्करा रहे थे। उन्होंने संत को उसे मुक्त करने का आग्रह किया।

दूसरे दिन शवयात्रा में पाण्डेजी अविकल भाव से अपने पुत्र की अरथी को कंधा दिये चल रहे थे। जिसे ‘चिंतामणि’ मिल जाए उसे कौन-सी चिंता सता सकती है ? गली मोहल्ले के लोग उन्हें देखकर कानाफूसी कर रहे थे, ‘ऐसा निष्ठुर पिता तो कहीं नहीं देखा।’

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31.07.2003

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