ढाल

मेरा अनुज ‘कमल’ ऐसे हैरतअंगेज कारनामे करता कि मैं विस्मय से ठगा रह जाता। 

बचपन में एक बार सिर्फ दो रुपये की शर्त पर मालगाड़ी के नीचे दुबक कर निकल गया। आश्चर्य की बात यह थी कि शर्त तब लगी जब ट्रेन सीटी दे चुकी थी। सर्दी में एक बार अलाव तापते हुए किसी के उकसाने पर अंगारे हाथ में लेकर नचाने लगा, एक अंगारा उछलकर उसके शर्ट की काॅलर में गिर गया, पांच दिन तक अस्पताल में मरहम-पट्टी करवानी पड़ी। जब भी कोई उसे जोखिम भरा कार्य करने को कहता, वह उसे चुनौती की तरह लेता। यही नहीं, इन कार्यों को वह पूरे उत्साह से अंजाम देता। 

कई बार आगा-पीछा बिल्कुल नहीं सोचता, जोखिम भरे कार्य करना उसकी फितरत थी। बिच्छू का मंत्र न जाने पर सांप की पिटारी में हाथ डाले। उसके कारनामे सुन-सुन कर अम्मा-पापा के रोंगटे खड़े हो जाते। सबको वह आफत की पुड़िया नजर आता। जब भी कोई विपत्ति या पेचीदगी में उलझ जाता, वह मेरे पास आकर खड़ा हो जाता। उसे पूरा विश्वास था, दादा के पास उसकी हर मुसीबत का हल है, दादा के होते हुए उसको कोई तकलीफ आ ही नहीं सकती।

वह मुझमें एक अजीब-सा आश्रय पाता। मुझसे दो जमात नीचे था। जब मैं पांचवी में था, वह तीसरी में। दोनों एक ही स्कूल में पढ़ते थे। स्कूल समाप्त होते ही वह मुझे ढूँढ़ने लगता, कई बार मेरे सहपाठी साथ होते, तो मैं उसे झिड़क भी देता। वह चुपचाप सुन लेता, फिर मुझ से पाँच कदम पीछे चलता रहता। घर आकर मैं अम्मा से शिकायत करता, ‘‘अम्मा यह चिपकू की तरह मेरे पीछे लगा रहता है।’’ अम्मा मेरे सर पर स्नेह से हाथ फेरती, ‘‘ठीक ही तो करता है। तू इंजन है, यह डब्बा है। तेरी अँगुली पकड़कर नहीं चलेगा तो किसकी पकड़ेगा।’’ कमल की आँखें चमक जाती जैसे उसके किसी अभीष्ट कार्य का अनुमोदन हो गया हो।

रात में कई बार न जाने कहाँ-कहाँ से भूत-प्रेत की कहानियाँ सुनकर आता। उसका बिस्तर अलग लगा होता पर जैसे तैसे मुझे मनाकर मेरे बिस्तर में घुस जाता, ‘‘दादा! मुझे आपके साथ नींद अच्छी आती है।’’ उसकी मोर-सी मीठी बोली मेरा मन हर लेती। दरअसल मैं खुद रातों में बहुत डरता, पर कमल की नजरों में मैं एक निर्भीक, निडर व्यक्ति था जो भूत-प्रेत के हौसले भी पस्त कर सकता है। उसका भ्रम कई बार मेरे मन में अजीब-सी गुदगुदी पैदा करता, बचपन में ही कहीं मुझे बुजुर्गियत का बोध होने लगता।

सावन के महीने में एक बार हम दोनों स्कूल से आ रहे थे। अम्मा दोनों को अलग-अलग छतरी देती थी। थोड़ी देर चले ही थे कि टपाटप बड़ी-बड़ी बूँदें गिरने लगी। मैंने तुरन्त अपनी छतरी खोली व कमल को छतरी खोलने को कहा। आश्चर्य! उसे तो यह बात सूझी ही नहीं, वह तो बस मेरे छाते के नीचे अपनी छतरी बिना खोले ही चलने लगा। उसे पूरा विश्वास था, दादा की छतरी के नीचे वह भीग ही नहीं सकता। 

एक बार किसी के उकसाने पर मोहल्ले के एक गुण्डे लड़के ‘सोमदत्त’ से भिड़ गया। दोनों में अच्छी गुत्थमगुत्था हुई, पर वह तिनखैया, सोमदत्त जैसे कसरती शरीर वाले लड़के के आगे कहाँ तक टिकता। सोमदत्त ने उसकी अच्छी धुनाई की। जब बस नहीं चला, तो उसने मेरा अवलंब लिया,‘‘छोटा देखकर दादागिरी करता है! दम है तो सुनील दादा से लड़कर बता। कच्चे घड़े की तरह फोड़ डालेंगे। दो घूंसों में छठी का दूध याद आ जाएगा। एक पटकी देते ही रेत की दीवार की तरह गिरेगा।’’ पराजय की खिन्नता ने उसके क्रोध के अंगारे और दहका दिए थे। 

‘‘इतनी-सी जान, गज भर की जुबान। डींग मत मार। वह कौन-सा सूरमा है। राग्या का भाई पराग्या। उसे भी ले आ। चटनी नहीं बना दूं, तो सोमदत्त नहीं कहना।’’ सोमदत्त आँखें फाड़े चिल्ला रहा था। 

‘‘ज्यादा तीसमारखाँ मत बन। जीभ चलाने की बजाय लड़कर बताना। दादा ने अच्छे-अच्छों के दाँत खट्टे किए हैं। देखते ही निकर उतर जाएगी।’’

‘‘जा, जा! उसको भी ले आ। दिन में तारे नहीं दिखा दूँ तो कहना।’’

वह संसार में किसी की भी बुराई सुन सकता था, पर कोई दादा का नाम नीचा करे यह उसे असह्य था। आँखों के आगे पलकों की बुराई कौन सहेगा। रोते-रोते मेरे पास आया, ‘‘दादा! सोमदत्त ने मुझे बिना मतलब मारा है। मैंने उसे साफ कह दिया हिम्मत हो तो दादा से लड़ो। आप मेरे साथ चलो, अभी धूल चाटता नजर आएगा।’’

लड़ाई के नाम से ही मेरी पिण्डलियाँ कांपने लगी। यह अक्लमंद की दुम एक दिन इज्जत धूल में मिलाएगा। कैसा अजीब भाई है, जिसकी गोद में बैठे उसी की दाढ़ी नोंचे। इस अहमक के पेट में भवानी बैठे।

लेकिन यह प्रतिष्ठा एवं आस्था का प्रश्न था। मेरी स्थिति साँप-छछूंदर जैसी थी, उगले तो अंधा, निगले तो कोढ़ी। मैंने अपने भीतर के सारे साहस को इकट्ठा किया , चल! देखें कौन तुझे हाथ लगा सकता है। उसकी आँखें वीरोन्मत्त उत्साह से चमक उठी। अब होगी असली टक्कर। दादा रोज सुबह गिलास भरकर दूध पीते हैं, शाम अखाड़े में वर्ज़िश करने भी जाते हैं, देखते ही हिलने लगेगा। हो सकता है दादा को देखते ही भाग खड़ा हो। एक अजीब-से उत्साह से वह लम्बे-लम्बे कदम भरने लगा। उसके उत्साह ने मुझे हौसला दिया। कुल-प्रतिष्ठा की ध्वजा हाथ में लिये मैंने कूच किया। उसके कंधे पर हाथ रखे मैं ऐसे चलने लगा जैसे वीररस से पगा कोई रणधीर जा रहा हो। भय की पराकाष्ठा एवं इज्जत की दावेदारी कभी-कभी इंसान को असीम साहस से भर देती है। रगों में तेजी एवं तबीयत में नशा छा जाता है।

सोमदत्त को देखते ही कमल ने उसे ललकारा, ‘‘अब लड़ दम हो तो। बच्चों को कोई भी आँख दिखा सकता है।’’ सोमदत्त की भुजाएँ फड़क उठी। उसका रणकौशल उसके चेहरे पर चमक उठा। पूरे मोहल्ले में उसकी प्रतिष्ठा का प्रश्न था। मुझे देखते ही उसने धमाधम चार घूंसे लगाए, फिर टांग में एड देकर वह पटकी दी कि मुझे दिन में तारे दिखने लगे। मैं उस वक्त को कोसने लगा जब कमल के उकसाने में आ गया। ये कमबख्त तो कुछ भी मदद नहीं कर रहा। लंगड़े-लूले गए बरात, दो-दो जूते दो-दो लात वाली हालत थी। वापस उठने के पहले ठाकुरजी से मनौती मांग रहा था – प्रभु! कमल के सामने तो ऐसी दुर्गत मत करवा। मैं इसे क्या मुँह दिखाऊँगा। मैं किसी भी हालत में उसकी आँखों में नहीं गिरना चाहता था। घोड़े का गिरा सम्भल सकता है, आँख का गिरा नहीं। बिल्ली के भाग्य का छींका टूटा, मेरा सौभाग्य! उसी वक्त सोमदत्त के पिता उधर से निकले, उसे लड़ते देखकर उसे दो तमाचे रसीद किए, ‘‘जब देखो लड़ता रहता है। सिवाय गुण्डागर्दी के कुछ आता है? पिछले तीन साल से एक जमात में बैठा है।’’ सोमदत्त के पिता उसे कान पकड़कर घसीट ले गए। अंधा क्या चाहे दो आँखें। प्रभु इतने कृपालु हो सकते हैं, यह मुझे उसी दिन समझ में आया। मैंने तुरन्त मौके का फायदा उठाया, तमक कर बोला, ‘‘आज बाप ने बचा लिया, कल तो इसी मोहल्ले में मिलेगा। आज के बाद कमल के हाथ भी लगाया तो टांग तोड़ दूंगा।’’ कमल का चेहरा गर्व ज्योति से जगमगा रहा था।

बचपन अब मात्र अतीत की स्मृति है। वे दिन हवा हुए। बचपन एक नन्ही चिड़िया की तरह फुर्र से उड़ गया। कौन जानता था कि कल की उन छोटी-छोटी जोखिमों को जीने वाला कमल शहर का एक प्रमुख उद्योगपति होगा। काॅलेज छोड़ने के बाद मेरी रेलवे में नौकरी लग गई। कमल ने बहुत प्रयास किए पर वह किसी प्रतिस्पर्धी परीक्षा में नहीं निकला। जब भी किसी परीक्षा में असफलता की सूचना मिलती, वह मेरे पास आकर कुछ समय बैठ जाता जैसे मैं ही उसका अवलम्ब हूँ। 

हताश उसने टेक्सटाईल प्रिण्टिंग के एक कारखाने में नौकरी की। वही जोखिम लेने की पुरानी आदत उसे पुकारने लगी। ऋण लेकर स्वयं की एक छोटी-सी फैक्ट्री खोली, फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। 

हम दोनों की शादी हुए भी अब बीस वर्ष से ऊपर होने को आए। बच्चे भी  बड़े  हो गए। कमल अब एक धनी-मानी व्यक्ति था, शहर के कई उच्चाधिकारियों से उसके घरेलू सम्बन्ध थे। कई लोग उससे कारोबार के सम्बन्ध में राय लेने आते व उसकी सलाह मानकर निहाल हो जाते। वह जब भी विपत्ति में होता, सीधे मेरे घर आ जाता। मेरी हैसियत के हिसाब से मैं उसकी किसी समस्या का समाधान नहीं कर सकता था, पर मात्र मेरी उपस्थिति से ही उसे सुकून एवं सहारा मिल जाता। व्यावसायिक जगत में उसके सटीक निर्णयों की सर्वत्र सराहना होती, पर अपनी छोटी से छोटी समस्या को भी वह मुझसे ‘डिस्कस’ करता। 

वक्त का रथ सदैव अविरल गति से चलता रहता है। इन्हीं दिनों मेरी पोस्टिंग हमारे शहर से तीन सौ किलोमीटर दूर गोपीपुर शहर में स्टेशन मास्टर के पद पर हुई। प्रमोशन के साथ ट्रांसफर था अतः जाना ही था। कमल अपनी पत्नी मालती एवं दोनों बच्चों के साथ मुझे स्टेशन छोड़ने आया। एक अजीब-सी उदासी एवं विषाद उसके चेहरे पर उभर रहा था, जैसे किसी नामी तलवारबाज से उसकी ढाल छिन रही हो। कोई हिरण का बच्चा, मृगी से बिछुड़ रहा हो। अब मेरी उम्र पचास के करीब थी और वह सैंतालीस का। दोनों के आधे से ऊपर बाल सफेद हो चुके थे, फिर भी वह बार-बार मेरे समीप आकर खड़ा हो जाता। मेरा विह्वल मन फूट-फूट कर रोने को करता पर मुझे मालूम था मेरे एक आँसू के बहते ही उसकी आँखों से गंगा-जमुना बह उठेगी। ट्रेन जब स्टेशन छोड़ने लगी, तो वह तब तक मेरे डब्बे के साथ चलता रहा, जब तक उसके पांवों की गति ने उसका साथ नहीं छोड़ दिया।

स्टेशन मास्टर की भी कोई नौकरी है। रात-दिन जगकर जनता की सेवा करो, पर पब्लिक तो फिर भी खरी-खोटी ही सुनाती है। मैं शहर छोड़कर यहां आ तो गया, पर न तो मेरा मन यहां लगता था न परिवार का। नौकरी की मजबूरी न होती तो कब का छोड़ देता। कमल ने मुझे कहा भी था, ‘‘दादा यहीं कुछ मिलकर काम कर लेंगे। अब मुझसे भी कारोबार अकेले नहीं सम्भलता पर मुझे लगा उसके सहारे कोई भी काम करके मैं मेरा बड़प्पन खो दूंगा। माँ-बाबूजी के निधन के बाद तो मैं मानो उसका भगवान हो गया था। 

चन्द्रमा को भी ग्रहण लगता है। मेरे शहर छोड़ने के बाद से ही जैसे कमल के दिन फिर गए। भरे-पूरे परिवार के बीच वह अजीब-सी उदासी में रहने लगा। घण्टों अकेले बैठा आकाश में किसी को ढूँढता। एक अजीब-से अवसाद ने उसे आवृत्त कर लिया। रात घबराकर नींद से उठ जाता, कभी रात को ही गाड़ी लेकर घूमने निकल जाता। कमजोर आश्रयहीन मन में दुर्व्यसन शीघ्र अपना डेरा बना लेते हैं। इन दिनों वह नशा भी करने लग गया था। धीरे-धीरे वह कमजोर होने लगा, एक दिन खून की उलटी हुई तो उसे तुरन्त अस्पताल ले जाया गया। इलाज की कहाँ कमी थी, नामी डाॅक्टरों ने प्रयास किया पर वह किसी ‘मेडिसन’ को ‘रिस्पोण्ड’ ही नहीं कर रहा था। उसकी आँखें तो अस्पताल की दीवारों, पंखों में कुछ और ही खोजती। हृदय का हृदय से सम्बन्ध होता है, लहू को लहू पुकारता है। कुछ रिश्ते अटूट डोर से बंधे होते हैं।

बांद्रा एक्सप्रेस अभी-अभी गोपीपुर स्टेशन से होकर निकली थी। मैं वापस आकर सीट पर बैठा ही था कि फोन की घण्टी बजी। उधर से कमल की पत्नी मालती का फोन था, ‘‘भाई साहब! आप तुरन्त आ जाओ, इनकी तबीयत ‘सीरियस’ है।” मेरे हाथ से चोगा छूट गया, पाँव तले जमीन सरक गई। मैंने तुरन्त अपने जूनियर को चार्ज दिया व शहर की राह ली। एक प्राइवेट टैक्सी कर मैं तुरन्त परिवार सहित वापस अपने शहर आया। ड्राइवर को मैंने गाड़ी सीधे अस्पताल ले जाने को कहा।

अस्पताल काॅरीडोर में मेरे पांव लम्बे-लम्बे डग भर रहे थे। इस छोटे से रास्ते में ही मैंने हजारों मनौतियाँ मांग डाली। ज्यों ही मैं उसके रूम में घुसा सभी अपना स्थान छोड़कर हट गए। कमल मुझे देखते ही एक नई आभा से भर उठा। जैसे अरुणोदय के साथ ही कमल खिल उठते हैं, उसका चेहरा एक नये नूर से दमक उठा। उसकी सारी बीमारी, सारा अवसाद, सारी निराशा क्षण भर में काफूर हो गई। टिमटिमाते दीये को जैसे किसी ने यकायक घी से पुनः भर दिया हो। डाॅक्टर, नर्स सभी उसके चेहरे की चमक को देखकर हतप्रभ थे।

उसने मुझे कसकर पकड़ लिया, ‘‘दादा! वादा करो अब मुझे छोड़कर कभी नहीं जाओगे। इस बार गए तो मेरा मरा मुँह ही देखोगे।’’ स्नेह की निर्झर धारा मेरी आँखों से फूट पड़ी। शरीर पुलकित हो गया। शरीर में स्नेह समाता नहीं था। दोनों के नेत्रों से बरसते जलबिंदु जैसे अमृत छलका रहे थे। 

दूसरे दिन मैंने अपना त्याग-पत्र भेज दिया।

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04.01.2002

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