आकाश का पूर्वी छोर प्रभात की नवरश्मियों से रंजित हो चुका था। कलियों ने सूर्यदेव के दर्शन हेतु घूंघट उठाए तो नवकिरणों का स्पर्श पाकर उनके चेहरे पर बिखरी बूंदें कुदरत के मोतियों की तरह चमक उठी।
गर्मी में दिन कुछ जल्दी उग आता है। लोग भले सूर्य को उतावला कहे पर सूर्यदेव इन दिनों लंबे सफर की मजबूरी जानते हैं।
दिन तो सदैव सूर्य के उदय होने से ही होता है पर मेरी याददाश्त में सूर्योदय का अर्थ कलुवा के उस गीत से है जिसे मैं सुबह-सुबह चादर में दुबके हुए सुनता था। इकतारे पर बजते कलुवे के गीत में कितना मर्म, कितनी वेदना, कितना संदेश छुपा होता था। उसके स्वर एवं सुरों की पकड़ देखते बनती थी।
कानों को सुख एवं मन को ब्रह्मानंद में डुबा देने वाली उस अलौकिक आवाज को मैं आज तक नहीं भुला पाया।
मोहमाया ने छोड़ क्रोध ने तज रे,
थारी उमर बीती जाय राम ने भज रे।
थने आंख्यां सूझे नाहीं कान गया रुद रे,
थारा गोडा चाले नाहीं कमर गई लुल रे…मोह माया ने
मैं जागकर भी लेटा रहता। इस गीत को पूरा सुनकर ही मुँह से चादर हटाता। आँगन पर बिछी खाट से आसमान साफ नजर आता। कई देर तक बादलों को बनते-बिगड़ते देखता रहता। उनके घटते-बढ़ते आकारों में ही परमतत्त्व के मंगला-दर्शन हो जाते। कभी निराकार साकार हो उठता तो कभी साकार निराकार हो जाता। परमेश्वर के दोनों रूपों के दर्शन एक साथ हो जाते। सुबह की हल्की ठण्ड, चिड़ियों का गाना, खुशबू भरी हवा के झौंके मन को स्फूर्ति एवं शरीर को ताज़गी से भर देते।
गीत गाते-गाते कलुवा सबके घरों के आगे से निकलता। औरतें अलसायी अपने घरों से बाहर आती एवं उसके कटोरे में सूखी-बासी रोटी, भाजी आदि रख देती। कलुवा कटोरी को अपने सर तक ले जाता, सहज ही उसके मुँह से दुआ निकलती…..‘तेरे घर लक्ष्मी आए माँ! तेरे बच्चे सुखी रहे! सदा सुहागन रहे….आदि-आदि’। एकाध घर से पुरुष भी निकलते। कलुवा उन्हें भी दुआ देता…… ‘तुम्हारा कारोबार फले-फूले बाबूजी!’ उपकृत कलुवा और दे ही क्या सकता था। कभी-कभी कोई खिड़की खोलकर झिड़क भी देता ‘सुबह-सुबह क्यों गला फाड़ रहा है, रोज नींद खराब कर देता है….. दफा हो जा !’ कलुवा चुपचाप आगे सरक लेता। करता भी क्या, भिखारी का गुस्सा अपनी जान पर। भिखारी में सहिष्णुता उत्कर्ष को छू जाती है। निर्धनता अहंकार को निर्मूल करती है, अहंकारशून्यता से विनय उत्पन्न होता है। सहिष्णुता का गुण सीखने के लिए भिखारी से बड़ा गुरू कौन होगा ?
वह मेरे बचपन की बात थी। कलुवा को मैं रोज नीम के पेड़ के नीचे बैठा देखता। नीम का पेड़ मेरे घर के ठीक सामने पचास कदम पर था। पेड़ के नीचे चारों और एक छोटा चबूतरा था, यही उसका आशियाना था। यही कलुवा की काशी थी।
वह अब अधेड़ उम्र का था। गहरा काला रंग, पसलियों-सा शरीर, धँसी हुई आँखें एवं पिचके गाल जो उसकी घनी लम्बी दाढ़ी के नीचे नजर नहीं आते थे। दाढ़ी उसकी ठोड़ी के पास दो भागों में बँटकर दोनों कानों की और जाती और वहाँ सर से लटकते हुए लम्बे बालों से मिल जाती । हाँ, उसका नाक तीखा था एवं मुँह में सफेद दंतपंक्ति मोतियों-सी चमकती। अच्छा लम्बा था पर पतला होने से और लम्बा लगता। कमर के नीचे तार-तार धोती, ऊपर अनगिनत पैबन्द लगा अंगरखा एवं सर पर सफेद पगड़ी जो बुरी तरह से फटी होने के कारण यहाँ-वहाँ लटकती हुई दिखती। वह साक्षात् विपन्नता का कंकाल लगता। माँ ने एक बार बताया था कि उसका असली नाम कालीचरण है पर कर्म अगर भीख मांगने का हो तो कालीचरण कलुवा हो ही जाता है। हाँ, सौभाग्य से अगर धनी होता तो उसका नाम अवश्य ही श्री कालीचरणजी अनाज वाले या ऐसा ही कुछ होता। कलुवा के पास था ही क्या ? एक लाठी जिसे टिकाकर वह चलता था, एक गन्दी-सी पैबन्दों से भरी रजाई एवं एक मिट्टी का तवा। कभी-कभी लोग उसे कटोरी भर आटा दे देते। तब इसी तवे में वह आटा गूंथता एवं लोई को एक तरफ रखकर इसी तवे को आग पर चढ़ा देता। आग जलाने की पतली सूखी लकड़ियाँ वह इधर-उधर से बटोर लाता। हथेलियों से थापकर रोटी को इसी तवे पर सेक लेता। बाद में इसी तवे में रोटी-भाजी मिलाकर खा लेता। अपरिग्रह की इससे बड़ी मिसाल और क्या हो सकती है। इसीलिए पेट भरा हो या खाली हमेशा मीठी नींद सोता। दिन भर घूमते-घूमते थक जाता, निर्लिप्त देह निर्वाण-सी नींद सो जाती। धरती बिछौना एवं आसमान चादर बन जाए तभी प्रकृति की लोरियाँ सुनाई देती हैं।
गाँव में मेरे घर के साथ ही पंक्तिबद्ध और कई घर थे। सामने नीम का पेड़ एवं उसके पीछे पसरे खेत। बंसत में जब फसलें लहलहाती तो बड़ा मनभावन दृश्य होता। दूर-दूर तक फैली पीली सरसों गांव को स्वर्ग बना देती। हमारे घर के आस-पास सभी घर पक्के थे। सभी घर एक-से थे, आगे खाट लगी होती, जिन्हें हम गर्मियों की रातों में सोते वक्त बीच खुले आँगन में खींच लेते। उसके पीछे रसोई, कमरे एवं सामान रखने के स्टोर। हमारे आस-पास सभी छतों पर मिट्टी के खपरैल थे। सभी के अपने खेत थे, गुजर-बसर करने लायक फसल हो जाती थी। शहर वालों की नजरों में हम भी गरीब ही कहलाते थे पर गाँव में तो गरीबों का भी वर्ग विभाजन है। एक गरीब एवं दूसरे दरिद्र जिसमें मजदूर, खेतीहर आते थे। वे खेतों के पार बने छोटे-छोटे झोपड़ों में रहते थे। ये दरिद्र हमें धनी समझते थे।
रोज स्कूल जाते समय मैं कलुवा को पेड़ के नीचे कटोरे में हाथ डाले भोजन करते हुए देखता। भाजी से सने उसके हाथ दूर से ही दिख जाते। सबका तिरस्कृत भोजन उसके व्यंजन होतेे, सबकी उतार उसका शृंगार होता। खाना खाते-खाते वह अद्भुत आनन्द से भर जाता मानो जनम जनम के भूखे को भोजन मिला हो। जिस बासी खाने को चखना भी हमारे लिए असंभव होता वही उसकी आँतों को तर कर देता। मनुष्य की क्षमताएँ अपरिमित हैं, शायद हमारे कष्ट पाने की क्षमताएँ भी अपरिमित हैं। मनुष्य की जिजीविषा एवं जीवट अदम्य है।
कलुवा के बारे में गाँव में कम लोगों को ही खबर थी। भला भिखारी का इतिहास जानने की किसको पड़ी है। इतिहास तो उपलब्ध, सत्तासीन अथवा अमीरों का लिखा जाता है। यूँ भिखारियों का इतिहास लिखा जाए तो कागज कम पड़ जाएंगे। आखिर इस गरीबी का जनक कौन है ? कुछ लोग गरीबी का मूल कारण अकर्मण्यता बताते हैं पर जब कलुवा जैसे बच्चे बचपन से ही भिखारी बन जाते हैं तो इसमें उनका क्या दोष। इसमें सरकार एवं समाज का भी दोष नहीं है। वे भी किस-किस को देखें। इसका मूल कारण है अमीर एवं तृप्त लोगों की उदासीनता जो किसी गरीब की भूख का अहसास ही नहीं करती।
एक बार जिद करके मैंने कलुवा के बारे में पूछा तो माँ ने बताया कि उसके माँ-बाप का अता-पता तक नहीं है। गाँव में बहती नदी के साथ आया था, वहीं खड़े एक भिखारी ने इसे बचाया। कुछ वर्ष उसके साथ रहा, बाद में वह भी मर गया। तब से भीख मांग कर ही गुजारा कर रहा है। एक बार तो तेज बुखार में इसके हाथ पाँव हिलना बन्द हो गए थे, गाँव वालों ने इस पर चादर डाल दी पर यह पाँच-सात मिनट बाद फिर हिलने लगा। बाद में ठीक भी हो गया। आफत के मारों की ईश्वर ही रक्षा करता है। तब से यहीं पड़ा रहता है।
कलुवा की जवानी के किस्से भी गाँव वाले चटकारे लेकर सुनाते हैं। तब गाँव केे सुथार की लड़की शादी के मात्र एक वर्ष बाद विधवा हो गई थी। कहते है कलुवा का टाँका इसी से भिड़ गया। तब कलुवा की सूखी पसलियों में एक नया रक्त-संचार हुआ था। चेहरा एक नई आभा से खिल उठा था। कलुवा भीख मांगने अक्सर उसके घर जाता एवं घण्टों वहाँ बैठा रहता। पड़ौस में रहने वाले मोहन को कुछ दाल में काला लगा। मोहन बत्तीस वर्ष का कुंवारा था, पूरा लफंगा था। गाँव में कोई लड़की उसे घास नहीं डालती थी। भिखारी को प्रेम की पींगे बढ़ाते देख उसके तन-बदन में आग लग गई। उसका यौवन उसे धिक्कारने लगा। पंचो को शिकायत हुई। भरे चौपाल में खड़े होकर मोहन ने कहा था, ‘यह गाँव की इज्जत का सवाल है। यह कैसा भिखारी है जो हमारी खाकर हमारी ही थाली में छेद कर रहा है। तब पंचों ने दोनों को कड़ी हिदायत दी थी। मोहन ने शायद ठीक ही कहा था। जीवन में अगर कुछ क्षण के लिए भी सच्चा स्त्री-प्रेम मिल जाए तो फिर वो भिखारी कैसा ?
बहुत पहले गाँव में पण्डित के यहाँ चोरी हुई तब पुलिस ने इसे पकड़कर खूब पीटा था। कलुवा पशु की तरह आर्त स्वर में कराह उठा। बाद में असली चोर पकड़े गए तो बेचारे की जान छूटी। तब मुझे पुलिस वालों पर बहुत गुस्सा आया था। उस दिन मैं खुद उसे रोटी देने गया। रोते हुए काँपते हाथों से उसने रोटी ली थी। अपने सम्मान से आहत कलुवा ने दूसरे दिन सभी भिखारियों को इकट्ठा कर विद्रोह भी किया था। उसकी आँखों से चिंगारियाँ बरस रही थी। दिल में नश्तर चुभे थे। गाँव में भिखारियों की यूनियन बनने की भी बात फैली थी पर रात पण्डित ने चार पाँच भिखारियों की मुट्ठी गरम कर दी एवं उनके साथियों को ठर्रा पिलाया। दूसरी दिन यही भिखारी कलुवा की जान के दुश्मन बन गए। कलुवा की अच्छी फ़ज़ीहत हुई। वह लहू का घूँट पीकर रह गया।
इस बात को भी अब कई वर्ष हुए। अब तो कलुवा भी बूढ़ा होने को आया। चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ गई, देह ढल गई, बाल पक गए। मेरी नौकरी लगे भी आठ वर्ष होने को आए। आठ वर्ष पहले शायद कलुवा की दुआओं से ही मैं पुलिस महकमे में सब-इंसपेक्टर नियुक्त हुआ था। तैनाती अक्सर शहरों में होती पर जब भी गाँव आता, माँ से कलुवा की जानकारी जरूर लेता।
पूरे गाँव में कलुवा पर रहम आता तो सेठ गिरधारी को। वह गाँव का सबसे बड़ा रईस था। सबसे ज्यादा जमीन उसी के पास थी, बस बोतल की ऐब थी। उसकी घरवाली उसके पीछे डण्डा लेकर पड़ी रहती, एक बार तो भरे मौहल्ले में उसे पीटा भी पर गिरधारी ने शराब से बेवफाई नहीं की। रोज देर रात शराब पीकर नीम के पेड़ के पास से निकलता, कभी-कभी पर्स में से दस रुपये तक निकालकर कलुवा को दे देता। उसकी घरवाली दूर से ही देख लेती, दूसरे दिन ही उससे छीनकर ले जाती। कलुवा ने यह बात गिरधारी को कभी नहीं बताई। कभी-कभी जब नशा सर चढ़ जाता तो गिरधारी उसके पास ही चबूतरे पर सो जाता। दो महीने बाद बेटी की शादी होनी थी पर ससुरे को चिंता कहाँ थी। बाप धन की गठरी छोड़कर जो मरा था।
गिरधारी की बेटी की शादी को अब मात्र दस दिन शेष थे फिर भी मुआ आज शराब पीकर चबूतरे पर आकर बैठ गया। कलुवा उसे देखते ही उठा और हाथ जोड़कर खड़ा हो गया, ‘सरकार ! अब तो बिटिया के ब्याह के दिन अंगुलियों पर रह गए हैं, अब तो पीना बन्द कर दो।’ गिरधारी ने उस दिन कलुवा की आँखों में आँखें डालकर उसके कन्धे पर हाथ रखा, ‘कलुवा ! राज की बात बताऊँ! घर वाली बेईमान है…..साली का पति मैं हूँ पर प्रेम पिछवाड़े के मास्टर से करती है। अब तू ही बता मैं पीऊँ नहीं तो क्या करूँ। कलुवा ! इन्सान अपनी परछाई को पकड़ सकता है पर औरत की चाल को नहीं।’ कलुवा हाथ जोड़े चुपचाप सुन रहा था। मन की भड़ास निकालकर गिरधारी चार कदम आगे बढ़ा होगा कि उसको अपनी गलती का अहसास हुआ। नशे में भिखारी को सारा राज बता दिया, कल गाँव में बात फैल गई तो। थोड़ी देर बाद कुछ सोचकर वह वापस आया और कलुवा की आँखों में घूर कर बोला, ‘किसी को भी यह बात बताई तो समझले जुबान खींच लूँगा।’ कलुवा ने काँपते हुए उत्तर दिया, ‘नहीं सरकार!’ गिरधारी ने राहत भरी आँखों से देखा, ‘शाबास कलुवा!’, बाद में न जाने क्या सोचकर उसने थैले में से बिटिया के ब्याह का एक कार्ड निकाला, पैन से उस पर कलुवा लिखा और उसके हाथ में पकड़ाते हुए कहा, ‘कलुवा ! बिटिया की शादी में जरूर आना।’ कार्ड हाथ में लेते-लेते कलुवा के पाँव काँप गए, शरीर शिथिल हो गया, आँखों में आँसू भर आए। वह एक अद्भुत रोमांच से भर उठा।
यह कलुवा के जीवन का पहला निमंत्रण था। पाँव जमीन पर न पड़ते थे। गाँव भर के भिखारियों को उसने घूम-घूम कर यह कार्ड बताया। एक भिखारी कुछ पढ़ लेता था, कलुवा ने उससे कार्ड चार बार पढ़ाया। यह उसके जीवन का सबसे रोमांचक समय था। पतझड़ में मानो बहार आ गई। पहले उसकी आँखों में कभी इतना नशा, चाल में इतनी चपलता, हृदय में इतना कंपन नहीं देखा गया। कलुवा एक अद्भुत स्वर्गीय सुख से नहा गया। आनन्द के घोड़े पर बैठकर वह एक अद्भुत कल्पना लोक में खो गया। इतने बड़े आदमी के भोज में शामिल होने की कल्पना ही उसके नस-नस में रस घोलने लगती। कार्ड को सीने से लगाए मन की मिठाई में मगन रहता। लोग जब उसे उस दिन बनने वाले व्यंजनों के नाम बताते तो उसकी भौंहें थिरक उठती, मन में कोयल कूकने लगती। अब उसे अपने कपड़ों की सुध आई पर इसका बंदोबस्त भी उसने गाँव के धोबी को पाँच रुपये देकर कर लिया।
गाँव की स्कूल के खुले प्रांगण में गिरधारी की बिटिया के ब्याह का भव्य पण्डाल सजा था। शहर से टेन्ट मंगवाया गया था। गिरधारी ने दिल खोलकर खर्च किया। इस शादी में मैं भी शहर से अवकाश लेकर आया।
पण्डाल देखते ही बनता था। खुले पण्डाल में पूर्ण चन्द्र की मनमोहक चाँदनी छिटकी हुई थी। हल्का मधुर संगीत वातावरण को और रसमय बना रहा था। आस पास के चौबीस गाँवों के महाजन एवं पंच इस शादी में आए थे। पण्डाल में मैंने दूर खड़े कलुवा को देखा तो दंग रह गया। चोर आँखों से वह इधर-उधर देख रहा था। मन में अब भी डर था कि गिरधारी उसे निकाल न दे। आज मैंने उसे पहली बार पेन्ट-शर्ट में देखा। खूब जम रहा था। पहली बार तो देखने वाला कोई भी व्यक्ति आज उसे भिखारी नहीं मानता। विनोदवश मेरी उससे मिलने की इच्छा भी हुई पर इसी दरम्यान किसी पुराने मित्र ने पुकारा तो मैं उसके साथ हो लिया हालांकि जब-तब मैं कलुवा को देखता रहा।
अब तक खाने की प्लेट पकड़े कलुवा एक-एक चीज को देख रहा था। ओह! कितना लज़ीज़ खाना था। बादाम का हलुवा, देशी घी में तली पूरियाँ, पनीर की सब्जी, दूध-जलेबी, कचोरी और न जाने क्या-क्या। मन करे उतना खाओ। कलुवा ने एक-एक चीज को कई बार लिया। आज जीवन में पहली बार उसने इतना लज़ीज़ खाना पेट भरकर खाया। अब उसे लगा अब तक उसने खाना खाया ही नहीं। आज वह पहली बार तृप्त हुआ।
दूसरी सुबह मेरी आँख भोर होने के पहले ही खुल गई। दोनों हथेलियों के नीचे सर को रखे मैं लेटे-लेटे खुले आसमान को तक रहा था। अप्रेल का महीना था, आसमान में बादलों का नाम तक नहीं था। एक-एक कर विलुप्त होते तारे जीवन की निस्सारता की कथा कह रहे थे। ऐसा लग रहा था मानो जीव अपनी-अपनी आयु पूर्ण कर निजधाम को जा रहे हों। सिर्फ भोर का तारा अब भी जिद पर अड़ा था। सारी रात अंधकार के आगोश में रहने के बाद जिसे कुछ पल का चमकना नसीब हुआ हो, वह यूँ कैसे जाए। पूर्वी क्षितिज से उदित होते सूर्य यमराज की तरह इस आखिरी तारे को भी काल कवलित करने पर आमदा थे। देखते-ही-देखते वह भी विलुप्त हो गया। झिंगुर इस दृश्य को देखकर स्तब्ध रह गए, पक्षी हाहाकार करने लगे। प्रकृति सजल आँखों से उसे नम विदाई दे रही थी। उसकी आँखों से गिरे आँसू पेड़-पौधे, पत्तियों पर भी बिखरे पड़े थे।
आज कलुवा का गीत नहीं सुनाई दिया तो मैं समझ गया कि रात खा-पीकर खर्राटें भर रहा होगा। थोड़ी देर बाद हाथ-मुँह धोकर बाहर आया तो देखकर हैरान रह गया। गाँव के लोग कन्धे पर गमछा डाले कलुवा के दाह संस्कार की तैयारी कर रहे थे।
भूख ने जिसे वर्षों जिंदा रखा तृप्ति ने एक रात की मोहलत भी नहीं दी।
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24.03.2003