ईश्वर चाहे नरक का वास दे पर किसी को ‘निन्यानवे के फेर’ में न उलझाए। गणित का अधिक ज्ञान कभी-कभी गर्दन का फंदा बन जाता है।
हर शास्त्र का सम्यक् ज्ञान ही उचित है। बचपन में बाबूजी को अंक-तालिका दिखाते वक्त मैं उनको जोर देकर बताता था कि बाबूजी, देखो! मेरे गणित में इतने अच्छे नम्बर आए हैं, इस विषय में मैं कक्षा में अव्वल हूँ। बालोचित अबोधता के साथ मैं उनकी ओर प्रशंसा के लिए तकता पर बाबूजी की दार्शनिक आंखें, चेहरे का गांभीर्य एवं मूक भाव मुझे विचलित कर देते। उनका मौन कुछ पल के लिए मुझे शक्तिहीन कर देता। तब अम्मा खफा होकर बिखरती, ‘‘थोड़ी तारीफ भी कर दिया करो, कोई जुबान थोड़े घिसती है।’’ बाबूजी चुपचाप वहां से सरक जाते। हाँ, अगर हिन्दी अथवा साहित्य के किसी विषय में अच्छे नम्बर आते तो वे अवश्य प्रशंसा करते। वे हमेशा यही कहते, ‘‘साहित्य एवं कला की गंगोत्री हृदय है लेकिन गणित का उद्गम दिमाग से है। देश एवं समाज को अच्छे हृदय चाहिए, अच्छे दिमाग नहीं। जैसे अच्छा तैराक अक्सर डूबता है, अच्छा गणितज्ञ कभी-कभी स्वयं गणित के फेर में फंस जाता है।” तब यह बात मुझे समझ नहीं आई थी लेकिन अब जब कि बैंक से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लिये मुझे एक वर्ष से ऊपर होने आया है, बाबूजी की बात अक्षरशः सत्य प्रतीत होने लगी है।
बाबूजी अक्सर कहते थे, जीवन में ज्ञान तीन तरह से आता है-उम्र से, अनुभव से एवं किताबों से। तीनों प्रकार के ज्ञान की अपनी सत्ता है, अपना महत्त्व है। कुछ ज्ञान सिर्फ उम्र से आता है, अनुभव एवं पुस्तकों से नहीं; तो कुछ ज्ञान सिर्फ अनुभव अथवा पुस्तकों से आता है, उम्र से नहीं। तीनों प्रकार के ज्ञान मिलकर ही जीवन को समग्र बनाते हैं एवं तीनों का अपना-अपना वजूद है। उम्र के पैंतालीस वर्ष एवं बैंक में नौकरी के पच्चीस वर्ष पूरे करने पर अब लगता है बाबूजी का विवेचन कितना सटीक था।
बैंक में वीआरएस अर्थात् ‘वोल्यूंटरी रिटायरमेंट स्कीम’ (स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति) का परिपत्र आया तो मैं बल्लियों उछल पड़ा। मेरे अंतःकरण में स्वाधीनता के अंकुर फूटने लगे, पंछी पिंजरे से बाहर आने को आतुर हो उठा। नौकरी और गुलामी में क्या अन्तर है? जैसे किसी ने आपकी प्रतिभा को कुछ रुपयों में कैद कर लिया हो ? जहाँ आपके विवेकाधिकार के लिए कोई स्थान नहीं ।बड़े बुजुर्ग ठीक ही कह गए हैं, नौकरी न कीजिए घास खोद खाइए, यहाँ वहाँ नहीं मिले तो थोड़ी दूर जाइए। आंखें मूंद कर उच्चाधिकारियों के निर्देशों का पालन करो, उनकी प्रशंसा व चाटुकारिता को जीवन का सिद्धान्त एवं शैली बनाओ तब तो ठीक है अन्यथा चार लाइन का स्थानान्तरण आदेश आपकी नींद हराम कर सकता है। फिर लम्बा मुंह एवं कृत्रिम मुस्कुराहट चेहरे पर लिये बाॅस लोगों के इर्दगिर्द घूमना आपकी नियति बन जाती है। सेवक में सेवकाई का गुण ही देखा जाता है, सेवक अगर मालिक से गुण दिखाए तो आँखों से उतरते देर नहीं लगती।
गणित बचपन से ही तेज थी, मैंने तुरन्त हिसाब लगाया। पांच लाख पीएफ जमा चार लाख ग्रेच्युटी जमा एक लाख छुट्टियों के शेषों का भुगतान एवं समय पूर्व रिटायरमेंट लेने के लिए दस लाख रुपये अतिरिक्त एक्सग्रेशिया प्रतिपूर्ति रकम यानि करीब-करीब बीस लाख रुपये। दस प्रतिशत ब्याज दर से भी विनियोजन करो तो एक वर्ष का ब्याज बना दो लाख, अर्थात् वर्तमान ‘केरी होम’ तनख़्वाह से भी अधिक पगार यानि पांचों अंगुलियां घी में। लगा जैसे कारूँ का खजाना मिल गया, घर बैठे गंगा आ गई। भविष्य आठ वार नौ त्यौहार लगने लगा। और क्या चाहिए? क्या सरकार बेवकूफ हो गई है? यह तो अशर्फियों की लूट हुई। मन के घोड़े हवा से भी तेज दौड़ने लगे, कल्पना आकाश छूने लगी। यकायक मुझे लगा न जाने कितनी तकलीफों से अब मुक्ति मिलने वाली है। न तबादले का झमेला, न छुट्टियों का झमेला, न बाॅस की डांट-फटकार, यह टारगेट पूरे नहीं हुए, वह टारगेट पूरे नहीं हुए, तुम्हारे यहां इतना स्टाफ है, क्या तुम्हें मैनेज करना नहीं आता, इतने स्टेटमेंट आने हैं, इतने प्रपोजल पैंडिंग हैं, इतने पत्रों का उत्तर नहीं आया? आखिर करते क्या हो? एक सप्ताह में क्लीयर कर देना नहीं तो ऐसा पदस्थापन दूंगा की सब छकड़ी भूल जाओगे।’’ घर आकर सारा गुस्सा बीबी पर निकालता, ‘‘तुम खाना क्या बनाती हो? कभी नमक कम तो कभी मिर्ची ज्यादा। सब गुड़ गोबर कर देती हो। दिन भर बैंक में पचो, शाम को ऐसे टुक्कड़ तोड़ो। इतनी पढ़ी-लिखी हो, कभी पाकशास्त्र का अध्ययन भी किया है ? स्कूल में अध्यापक की नौकरी करती हो तो कोई तीर नहीं मार लिया, एक बार बैंक मैनेजरी करके देखो, कलेजा मुँह में आ जाएगा।’’
वह तुरन्त समझ जाती, आज बाॅस की डांट पड़ी है। सीधे एक ही बात करती, ‘‘आज बाॅस ने डांटा है क्या?’’ सत्य के पर्दाफाश होते ही मैं झुंझलाकर उसकी ओर देखता। तब मेरी आँखों में करुणा एवं याचना अधिक और क्रोध कम होता। पत्नी से अधिक पुरुष के व्यवहार को कौन समझ सकता है? मैं खिसिया कर रह जाता। मन ही मन सोचता बैंक मैनेजरी भी कोई नौकरी है ? द्रौपदी की तरह सभी चीर हरण करते हैं। इधर पब्लिक पल्लु खींचती है , उधर यूनियन वाले। तिस पर टारगेट का चक्कर, स्टाफ की मारामारी एवं सुरसा के मुख की तरह दिन-ब-दिन बढ़ने वाला अंतहीन कार्य। अफसर बाबुओं का तो कुछ कर नहीं सकते, सारी खीझ हम पर निकालते हैं।
दुनिया में हर व्यक्ति अपने वर्तमान से विद्रोह करता है। विद्रोह का यह अंकुर अगर कोई सहारा पा जाए तो इंसान आगा-पीछा कुछ नहीं सोचता। मेरी तेज गणित ने इसे पूर्णतः लाभ का सौदा करार दिया। बलि का पशु सिर्फ हरी-हरी घास देखता है। गणित की नाव पर चढ़ा मैं स्वयं को अचल एवं संसार को मेरे इर्दगिर्द घूमते हुए देख रहा था। जैसी भावी होती है, वैसी ही बुद्धि बन जाती है।
मैंने तुरन्त ‘स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति’ हेतु आवेदन कर दिया एवं उस दिन की राह तकने लगा जब मुझे इतनी मोटी रकम मिलेगी। श्रीमतीजी की नौकरी ने मेरे आत्म विश्वास को हौसला दिया। कुछ भी हो एक तनख्वाह तो आएगी ही, फिर इतने झमेलों से मुक्ति। अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम। मैं मूँछों में मुस्कुराने लगा।
स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति का आवेदन भेजने के दिन घर लौटते समय बाॅस मुझे रास्ते में दिखे पर आज मैंने उन्हें नमस्कार करना भी लाजमी नहीं समझा। उन्हें देखकर भी यूं तनकर चलता रहा जैसे ‘बहुत जुल्म सह लिया तुम्हारा। अब क्या उखाड़ लोगे ? हमारे जैसे योग्य आदमी चले जाएंगे तो अपने करमों को रोओगे।’ जिस तरह पूर्ण चन्द्रमा को देखकर समुद्र उन्मत्त होकर उछलता है, आने वाली धन की गठरी की कल्पना से मेरा मन शिखर साहस को छू रहा था। रक्त की रवानी एवं इरादों का जोश देखने लायक था। आश्चर्य! उस दिन बाॅस ने ही मुझे आवाज देकर बुलाया, गंभीर होकर बोले, ‘‘त्रिवेदी! यह क्या कर डाला तुमने? अभी तो तुम मात्र पैंतालीस वर्ष के हो? इस अवस्था में वानप्रस्थ? बाकी समय कैसे निकालोगे? बेकारी में जीवन कैसे कटेगा?’’ उनके उपदेश मेरे इरादों के चिकने घड़े पर नहीं ठहर पाए। गर्म लोहा ठण्डे लोहे से नहीं जुड़ता। मैंने झूठमूठ कहा, ‘‘सर! मेरे भाई के अच्छा कारोबार है, उसके साथ कोई काम कर लूंगा। काम करने वाले के लिए काम की क्या कमी! ऐसी स्कीम बार-बार नहीं आने वाली।’’ पहले बाॅस से बात करने में जुबान अटक जाती थी पर आज मेरा वीरोचित शौर्य देखने लायक था। जुबान वीररस से पगी हुई थी। बाॅस चुपचाप चले गए। मैंने मन ही मन उन्हें दनादन गालियाँ दी। अब डाँटना फोन पर? तेरी ऐसी कम तैसी? आँखें ऐसे तरेरता था जैसे हृदयहीन महाजन के तकाजे का दिन निकल गया हो। छुट्टी ऐसे देता था जैसे बाप की दुकान हो।
उस दिन मेरी बांछें खिल गई जब डाक विभाग का क्लर्क मेरे ‘स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति’ की स्वीकृति सूचना एवं सोलह लाख का चैक लेकर आया। रुपये चार लाख कम का चैक देखकर मैं सकपका गया। चार लाख टीडीएस (अग्रिम आयकर) के ऐसे काट लिए गए, जैसे किसी कसाई ने छुरा चलाया हो। मुझे मानोे बिजली का झटका लगा। दूसरे दिन मेरे ऋणों की टोटल कर तीन लाख रुपये और काट लिए गए। खाते में मात्र तेरह लाख का जमा शेष लेकर मैं कार्यभार मुक्त हुआ। सारी गणित गड़बड़ा गई, तरबूज-सा मुंह पपीते की तरह लटक गया। विदाई के समय आँखों में पानी एवं गला रुँधा हुआ था। सभी यही सोच रहे थे कि मैं बैंक छोड़ने एवं उनसे बिछुड़ने से गमगीन हूँ पर मेरा हृदय जानता था सत्य क्या है। विधाता रूठ जाते हैं तब ऊंट चढे़ को कुत्ता काट जाता है। बैंक ने गुड़ में डालकर कड़वी गोली दे दी। सरकार ने उल्टे छुरे से मूंड लिया। आगे की कहानी और भी हृदय विदारक थी।
भेड़ पर ऊन कौन छोड़ता है? वर्षों बाद इतनी मोटी रकम घर आई थी, सभी रिश्तेदार मित्रों ने जमकर पार्टी ली। मैंने किसे छोड़ा था जो वो मुझे छोड़ते। मेरे ना-नुकर करने पर भी शहर की अच्छी होटल में मुझे पार्टी देनी पड़ी। इतने बिल का भुगतान मैंने पहले कभी नहीं किया। बिल कमीज की जेब में रखते वक्त लगा जैसे हृदय पर पत्थर रख रहा हूँ।
श्रीमतीजी वर्षों से गहनों का कहती थी, उन्होंने भी अपनी इच्छा इसी मौके पर पूरी की। इस मौके पर उसे मना करने का अर्थ संपूर्ण जीवन के सुख को धार पर रखने जैसा था। उसकी नौकरी ही अब मेरी जीवन आशा का आधार थी। मकान कई वर्षों से मरम्मत मांग रहा था। रंग-रोगन की उतरती हुई पपड़ियां व चरमराते दरवाजे अपने करुण नेत्रों से मुझे कह रहे थे, त्रिवेदी साहब! वर्षों आपको सहारा एवं सुकून दिया है, आज हम भी आपकी कृपा के भिखारी हैं। एक लाख से ऊपर यहां भी शहीद हुए। साले साहब को कारोबार करने के लिए दो लाख देने पड़े, रकम पास हो तो मना कैसे करें ? वैसे भी जीवन अब उसकी बहन के आसरे था। पीछे कुल मिलाकर कोई सात लाख बचे उन्हें लेकर एफडीआर करवाने गया तब तक दो प्रतिशत ब्याज दर सरकार ने कम कर दी। मेरा खून सफेद हो गया। लगा जैसे गंजे सिर पर ओले पड़ रहे हों। यह मैंने कैसा निर्णय कर डाला ? विधाता ने विपत्ति का बीज बो दिया। करम फिर गया, कुचाल समझ नहीं आई। अपने ही वृक्ष को अपनी कुल्हाड़ी से काट दिया। अपने ही हाथों मिट्टी खराब कर दी। अब छाती पर सांप लोटने लगे। पासा उल्टा पड़ गया। सरकार के पेट की दाढ़ी समझ नहीं आई, आमों की कमाई नींबुओं में गमा दी। मुहर्रमी सूरत लिए मैं घर लौटा।
घर पर खाली बैठना दस-पन्द्रह रोज तो अच्छा लगा पर बाद में बोरियत होने लगी। खाली कब तक बैठता, कार्य करना तो मानवी स्वभाव है, पर अब काम कहाँ था ? मित्रों के यहां जाते-जाते बोर हो गया, वो इशारे से टरका देते। कहां मैं उनकी आँख का अतिथि एवं दिल का मेहमान होता और कहाँ आज मूसलचंद-सी हालत थी। श्रीमतीजी कार्य करने को निकलती तो मन आत्मग्लानि से भर जाता। हृदय अपमान से पीड़ित हो उठता। अरे निर्लज्ज! बीवी कमाने जाती है और तू नाकारा बैठा है। रुग्ण नेत्रों से मैं उसे जाते हुए निहारता। बेटी के सम्बन्ध के लिए लोग आते, पूछते! अभी आप क्या करते हैं? मैं इस यक्ष प्रश्न का उत्तर कैसे देता ? शर्म के मारे गड़ जाता।
खाली बैठे देखकर श्रीमतीजी कई काम मेरे जिम्मे कर देती, ‘‘धोबी से कपड़े ले आना, शाम को शाकभाजी ले आना, नल खराब हो रहे हैं उन्हें ठीक करवा देना, बिजली के पंखे आवाज कर रहे हैं, इलेक्ट्रीशियन को दिखवा देना, रसोईगैस वाला आए तब सिलैण्डर ले लेना, बच्चों को बेकार टोकना मत आदि-आदि।’’ सुनकर कलेजे में कटार चलती, लोई उतर जाती। लगता जैसे नागिन फुफकार रही हो। मैं रुई की तरह माथा धुनने लगता। उसके ये अनुरोध मुझे बाॅस के आदेशों से भी कठोर लगते। वहां आदेश कार्य कुशलता को पराकाष्ठा पर पहुंचाने की सारगर्भित भावना से भरे होते थे पर ये अनुरोध मेरी आत्मा को आहत करते हुए-से लगते। अकारण ही कुण्ठा मन में आश्रय लेने लगी, बिना कारण ही अब बच्चों और श्रीमतीजी को डांट देता। परिस्थितिजन्य श्रीमती का साहस भी अब द्विगुनित था, गाल फुलाकर कहती, ‘‘अब बैंक नहीं रहा तो बिना बात घर में मैनेजरी झाड़ते रहते हो।’’ उसका उत्तर नाविक के तीर की तरह सीधे अंतःस्तल पर लगता। मैं तिलमिला उठता। बच्चों को मैं अब उनकी स्वाधीनता पर अंकुश लगता, वो भी पंजे पैने करने लगे। धीरे-घीरे बच्चों से, श्रीमतीजी से झगड़ा होने लगा। शाम अब वह इंतजार नहीं होता जो पहले था। मोती का पानी उतर गया।
अब पुराने दिन याद आने लगे। कैसे बड़े-बड़े व्यापारी घर मिलने आते थे? कैसे बाबू लोग अवकाश-पत्र देकर निवेदन करते थे? कैसे बैंक में सभी ‘सर! सर!’ कहकर बुलाते थे। कैसे जगह-जगह चीफ गेस्ट बनकर जाता था। उन स्वप्निल दिनों को याद करके मैं बिलख उठता पर अब चिड़िया खेत चुग चुकी थी।
स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति लिये अब एक वर्ष होने को आया। समय पहाड़ हो गया। दिन भर अपलक दीवारों को देखता, काठ के उल्लू की तरह तकता रहता। कर्महीन जीवन भी कोई जीवन है? जिस जीवन में आशा नहीं, तनाव नहीं, लाग नहीं, जिसकी श्वासों में कर्म का संगीत नहीं, वह जीवन मृत्यु से भी बदतर है। कर्महीन जीवन खुदा का अजाब है। बैंक ने फूलों की छड़ी से मार दिया। काश! मेरी गणित कमजोर होती तो भाग्य का यूं मर्सिया न पढ़ना पड़ता। पहाड़ से लौटकर आने वाली पक्षी की आवाज की तरह पिताजी के शब्द कानों में गूंजने लगे।
आज सुबह से टीवी देखते-देखते बोर हो गया। सर्दी के दिन थे, दुपहर तीन बजे बाहर आकर आराम कुर्सी पर बैठ गया। अधेड़ उम्र के आदमी की तरह सूर्यदेव आसमान को आधे से ऊपर पार कर चुके थे। तभी आसमान में आवारा घूमते हुए बादल का एक टुकड़ा सूर्य के आगे आया। प्रकाश एकाएक क्षीण हो गया। दुपहरी में संध्या-सी हो गई पर आज असमय संध्या का आना मुझे बहुत बुरा लगा। इस संध्या में न वो शीतलता थी न वो सुकून। न पक्षियों का वह कलरव था, न वो उल्लास जो कार्य समाप्त कर घर जाते मजदूर के चेहरे पर होता है। पेड़-पौधों में भी वो स्तब्धता, वो शांति नहीं थी। यह दुपहरी संध्या थी।
एकाएक पोस्टमैन ने घर का मुख्य द्वार खोलकर एक लिफाफा लाकर दिया। खोलकर पढ़ा तो आँखे चमक उठी-स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति स्कीम सुप्रीम कोर्ट ने अवैधानिक घोषित कर दी है।
मैं उस सुबह को तकने लगा जब सूट-बूट पहनकर वापस बैंक निकलूंगा। ईश्वर की कृपा ने मेरा आत्माभिमान मुझे वापस लौटा दिया। खाने और सोने का नाम जीवन नहीं है, जीवन का आनन्द सम्मान और स्वाभिमान के साथ जीने में है। खिदमत से अजमत है।
दूसरे दिन बैंक जाने के लिए पत्नी ने जब हाथ में सूटकेस दिया तो मैं ऐसे ऑफिस की ओर चला जैसे कोई शेर पिंजरे से छूटकर वापस जंगल की तरफ जा रहा हो।
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18.08.2002