पहली बरसात

आषाढ़ अभी लगा ही था। जेठ ने पूरे महीने तप कर सभी जीव जन्तुओं एवं वनस्पतियों को व्याकुल कर दिया। दिन भर सूर्य आँखें फाड़े आग उगलता। कामविकला स्त्री की तरह पृथ्वी का अग्नितत्त्व उसे यूँ जला रहा था मानो उसकी रचना पंचतत्त्वों से न होकर मात्र अग्नितत्त्व से हुई हो। तभी विकल धरती ने क्षितिज के उस पार आसमान के कान में जाने क्या फुसफुसाया कि आसमान दंभ से गरज उठा। आँखों में गांभीर्य भरकर उसने धरती की ओर ऐसे देखा मानो कह रहा हो, धीरज धर! ऐसा कभी हुआ है कि स्त्री निवेदन करे एवं पुरुष उसे न दे। देखते ही देखते असंख्य काले बादल आसमान की विशाल छाती पर तैरने लगे। बिजलियों के दाँतों से क्रूर अट्टाहास कर बादलों के लिंग से उसने वीर्यपात किया तो धरती की कली-कली खिल गयी। मूसलाधार स्खलन से धरती अघा गयी। तृप्त धरती ने कृतज्ञ आँखों से नभनाथ का आभार प्रकट किया तो गड़गड़ा कर उसने पृथ्वी को समझाया, ‘‘मेरे प्रेम के अंकुर जब हरे भरे फलों से लद जायें तो उन्हें अपने बच्चों में बाँट देना। विश्वास रखना! तू जब भी रीती होकर मुझे पुकारेगी, मैं पुनः तुम्हें प्रेम दान करने आऊंगा।’’


शहर के उस पार एक कच्ची बस्ती से कुछ दूर एक पुराने खण्डहर में जेठा और रतना आषाढ़ की फुहारों का आनन्द ले रहे थे। दोनों चिरकुँवारे थे, बत्तीस के ऊपर ही होंगे। दोनों एक नम्बर के लफाड़ी, कामचोर एवं मक्कार थे। दोनों से काम करवाना पत्थर पर दूब उगाने जैसा था। ऐसे ऐसे बहाने बनाते कि सामने वाला दंग रह जाता। हाँ, डींग मारने में उनका कोई सानी नहीं था। लोगों को इकट्ठा कर धरती-आकाश की बातें कर लेते। लेकिन काम की बात आते ही ऐसे रफूचक्कर होते कि ढूंढ़े नहीं मिलते। बिना मतलब आहत अंगुली पर भी नहीं मूतते। दोनों की आदतें भी एक-सी थी। ऊँट लम्बा तो गधा खवास। जैसे भात देखते ही कौए आ जाते हैं, वैसे ही ये दोनों किसी भी उत्सव एवं शादी ब्याह में बिन बुलाये मेहमान की तरह हाजिर हो जाते। वहाँ भी आकाश-पाताल की बातें करते। सौ गज नापते नौ गज फाड़ते। दोनों देखने-दिखाने में ठीक-ठाक थे पर ऐसे हरामखोरों को लड़की कौन दे? जेठा का बाप रामजी कुम्हार एवं रतना का बाप अणजी धोबी पीढ़ियों से कच्ची बस्ती में रह रहे थे। दोनों अब तक अपने बेटों से तंग आ चुके थे।


जेठा के हाथ में ताड़ी की बोतल थी जिसे दोनों बारी-बारी से पी रहे थे। दोनों में दाँतकाटी रोटी थी। दोनों ने अपने-अपने गधे पचास कदम दूर नीम के पेड़ से बाँध रखे थे। आषाढ़ की फुहार उनके मन को भी उमंग से भर रही थी। ताड़ी का घूंट गले से उतारते हुए जेठा बोला, ‘‘रतना! इस बार बारिश जरा देरी से आयी।’’


‘‘अरे, बारिश तो हर बार आषाढ़ लगते ही आती है, पर जवानी जलाने लगे तो फुहारें क्या करें?’’ रतना ठण्डी आहें भरता हुआ बोला।
‘‘रतना! हममें और इन गधों में क्या फर्क है। दोनों दिन भर मारे-मारे फिरते हैं लेकिन यश जरा भी नहीं।’’ जेठा ने पेड़ से बंधे गधों की ओर देखकर रतना के सुर में सुर मिलाया।


‘‘ठीक कहता है जेठा! बस्ती वाले कहते हैं वो तो फिर पराये हैं, घर वाले भी हमारी कद्र नहीं करते।’’ कहते-कहते रतना ने गट-गट दो तीन घूंट नीचे उतारे तो जेठा बोतल छीन कर बोला, ‘‘ठर्रे की दुकान से बोतल मैंने पार की पर तू ऐसे सपूड़ रहा है जैसे तेरे बाप का माल हो !’’


‘‘अरे, बाप दो हो तो क्या हो गया, हम तो भाई-भाई हैं। मैं तुझसे बड़ा हूँ, थोड़ी ज्यादा उतार ली तो तुझे ही पुण्य चढ़ेगा। शायद मेरी दुआओं से तेरा ब्याह हो जाये। ब्याह होगा तो बच्चे भी होंगे, तेरी सेवा करेंगे, नहीं तो तू बेऔलाद मरेगा। न नाम लेवा न पानी देवा।’’ कहते-कहते रतना जोर-जोर से हँसने लगा।


‘‘फिर तू फाड़कर न खा जाये मुझे। मैं तो मेरी घरवाली को देखने भी न दूँ तुझे। तेरा क्या भरोसा। हर वक्त तो इधर-उधर ताकता फिरता है।’’ ब्याह के नाम से जेठा का हृदय उछलने लगा था।


‘‘अरे, परेशान क्यूँ होता है! बड़े-बड़े शहरों में तो ऐसा होता ही है। वहाँ तो मैंने सुना है कि एक औरत कइयों से लगी होती है। पति अलग, प्रेमी अलग, और न जाने क्या-क्या? सारे धर्म का ठेका हमने ही ले रखा है क्या? मैंने तो यह भी सुना है कि आजकल आदमी-आदमी से और औरत-औरत से ब्याह कर लेती है।’’


‘‘यह तो तुमने गज़ब बात बतायी। अब तो ब्याह की चिंता ही मिटी।’’


‘‘वह कैसे?’’


‘‘हम दोनों आपस में ब्याह कर लेंगे।’’ कहते-कहते जेठा ने शरारत भरी आँखों से रतना की ओर देखा।


‘‘लेकिन दहेज तेरे घर से ही आयेगा। मैं तो घर जंवाई बनने वाला नहीं।’’ रतना नीचे के होठ से चिकौटी काटते हुए बोला।


‘‘तेरी माँ की………..।’’ कहते-कहते जेठा ने अपने पाँव से चप्पल उतारी तो रतना खड़ा होकर भागने लगा। दोनों हँस-हँस कर लोटपोट हो रहे थे।
आषाढ़ की फुहार जड़-चेतन सभी के मन को उमंग से भरने लगी थी। पेड़ से बंधे गधे भी कुलेल करने लगे थे। दोनों में से एक गधी होती तो बेचारे मस्ता लेते पर फिलहाल कामजयी शिव को याद कर छाती कूट रहे थे।


जेठा और रतना दोनों अनुभव शिरोमणि थे। दोनों ने अब तक अनेक कार्य बदले। जेठा के बाप ने कुम्हार का काम सिखाया पर काम करने में उसका मन लगे तो। आधे बर्तन तो वह चाक पर ही तोड़ देता। कभी-कभार पके बर्तन लेकर शहर जाता तो रास्ते में ही सो जाता। कई बार बर्तन दिखाते हुए ऐसे पटकता कि मटके फूट जाते। यही हाल रतना का था। बाप धोबीपटक की तरह कूटता पर काम के नाम से ही उसे साँप सूंघ जाता। दोनों ने शहर में कितने रईसों के घर काम किया, कितनी फैक्ट्रियों में काम किया पर दोनों हरामखोरी से बाज नहीं आते। सभी ने उनको चलता किया। जेठा का बाप चीख-चीख कर समझाता, ‘‘अरे! सेठों का दिल जीतना सीख ! सबको काम प्यारा है चाम नहीं। बड़े बरतन की तो खुरचन भी बहुत होवे।’’ यही बात रतना का बाप भी समझाता पर दोनों दायें कान से सुनकर बाँये कान से निकाल देते। थोड़े दिन बाद और नये स्वांग भरते। दोनों कभी ज्योतिषी, तो कभी हस्तरेखा विशेषज्ञ, तो कभी साधु बनकर डोलते। लेकिन धीरे- धीरे लोग पहचान गये कि दोनों नाकारा है, काम-धाम इनसे होता नहीं, उन्हें देखते ही किनारा कर लेते। दोनों फिर शेखचिल्ली की तरह नये मंसूबे बनाते लेकिन मन-मोदकों से भी कभी भूख मिटी है?


कहते हैं सौ चाण्डालों से भी बुरा एक कंगाल होता है। कंगाल अगर हरामखोर हो तो वह हज़ार चाण्डालों से भी बुरा हो जाता है।


आषाढ़ बीता, सावन आया। धरती ने हरियाली की चादर ओढ़ ली। पेड़, पौधे, वनस्पतियाँ एवं पहाड़ जो जेठ तक फकीरों एवं विरक्तजनों की तरह सूखे नजर आ रहे थे अब सुसंपन्न गृहस्थियों की तरह फले-फूले नजर आने लगे। पालतू एवं जंगली जानवर सभी उमंग से झूमने लगे। मोर पंख फैलाकर नाचने लगे, पपीहे पीहू-पीहू करने लगे। चिड़ियाँ, सारस, कबूतर, बगुले, बाज, गिद्ध एवं अन्य असंख्य पक्षी अपने स्वर एवं सुरों में गाने लगे। जड़-जानवरों की ऐसी दशा के चलते मनुष्य भी बौरा गया। रात बंद कमरों में उन्मत्त पुरुष कामिनियों की पुष्ट जंघाओं पर आघात करते तो बाहर पेड़ों पर बैठी कोयलें उनके मधुर दर्द में सुर मिलाकर कुहू-कुहू की ध्वनि करती।


इन्हीं दिनों एक दोपहर जेठा और रतना अपने-अपने गधे पर बैठकर शहर जा रहे थे। पहाड़ की तराई के आगे असंख्य स्वच्छ पत्थर ऐसे बिखरे थे मानो पहाड़ के गर्भ से अभी-अभी निकले हों। यकायक जेठा को एक चमकती हुई चीज दिखायी दी। अभी कुछ रोज पहले रतना को भी सड़क पर सौ रुपये का नोट मिला था। रतना ने गधे से उतरकर चुपचाप उसे जेब के हवाले किया तो जेठा चीख पड़ा, ‘‘हरामखोर! दोस्त होकर दगाबाजी करता है? क्या इतना भी नहीं मालूम कि साथ चलने वाले मित्र का आधा हिस्सा होता है?’’ उस रात दोनों ने जमकर ताड़ी पी एवं छककर भोजन किया।


जेठा ने गधे से उतरकर चमकीले पत्थर को उठाया। रतना को कुछ संदेह हुआ। शायद आज फिर कोई कीमती चीज मिली हो। कहीं जेठा अकेला ही न हड़प ले। अकर्मण्य व्यक्तियों की आत्मा कितनी अशक्त होती है। अशक्त आत्मा में शक, संदेह तुरन्त प्रविष्ट कर जाते हैं। रतना जेठा के पास आया तब जेठा उस पत्थर को उलट-पुलट कर देख रहा था। रतना को देखकर जेठा बोला, ‘‘यह तो कोई कीमती पत्थर दिखता है, ऐसा हरा चमकीला पत्थर पहले तो नहीं देखा।’’


‘‘हाँ रतना! यह पत्थर कुछ अलग तरह का लगता है, यह काँच का टुकड़ा नहीं हो सकता।’’ कहते-कहते उसने पत्थर हाथ मैं लेकर जमीन पर रगड़ा तो पत्थर का हल्का हरा रंग और गहरा गया। दोनों को दाल में काला लगा, दोनों शहर में एक जौहरी की दुकान पर आये।


ईश्वर की कृपा एवं भाग्य अनुकूल हो तो कई बार जन्मों का दरिद्र अनायास कल्पवृक्ष के नीचे आकर खड़ा हो जाता है। कल्पवृक्ष जो निष्पक्ष भाव से सबकी याचनाओं को पूर्ण करता है, जो कभी यह नहीं देखता कि याचक कौन है, कैसा है। धर्म-अधर्म का विवेचन उसका काम नहीं, उसका काम है याचकों की इच्छा पूर्ण करना। यही उसका कर्तव्य है एवं यही उसकी परिधि होती है।


जौहरी ने अपनी अनुभवी आँखों से उस पत्थर को देखा तो विस्मय से उसकी आँखें फैल गयी। यह पत्थर तो एक दुर्लभ पन्ना था जिसकी कीमत एक करोड़ से कम नहीं थी। उसकी सही कीमत आँकने का अर्थ था बाजार में हड़कंप मचा देना। बात पुलिस तक भी जा सकती थी।


आनन्द का उछाल जौहरी के हृदय में समा नहीं रहा था पर स्थिति देखकर उसने अपनी भावनाओं को ऐसे दबा लिया जैसे किसी अमीर द्वारा अकारण डांटे जाने पर भी दरिद्र क्रोध को दबा लेता है। आज जौहरी का चन्द्रमा था। उसे समझते देर न लगी कि आज बाज के बिल में बटेर स्वतः घुस आये हैं। जैसे कोई शिकारी मृग को देखकर फंदा तैयार करता है, जौहरी ने धीरे-धीरे उन्हें अपने चातुर्य की रस्सी में बाँधना प्रारंभ किया।

चतुर जौहरी ने जेठा की ओर देखकर मुँह बिगाड़ा एवं बोला, ‘‘यह काँच का टुकड़ा तुम्हें कहाँ मिला है?’’ उसे क्या पता था कि जेठा भी गुरुघण्टाल है।


‘‘तुम्हें इससे मतलब! तुम्हें आम खाने है कि पेड़ गिनने हैं।’’ जेठा नाराज होता हुआ-सा बोला।


‘‘ओहो! नाराज क्यूँ होते हो भाई! साफ क्यूँ नहीं कहते यह पुरखों की विरासत है।’’

जौहरी आश्वस्त हो लेना चाहता था कि रत्न चुरा कर नहीं लाया गया है।


जीवन में पहली बार विरासत की बात सुनकर उनकी छाती फूल गयी। दोनों के कानों में अमृत बह गया। जेठा एवं रतना ने एक दूसरे को सगर्व आँखों से ऐसे देखा जैसे दो खानदानी आदमी एक दूसरे को देखते हैं। जौहरी की दुकान न होती तो जेठा रतना से अवश्य कहता, ‘‘आज मेरे कारण तू भी खानदानी हो गया। इसे कहते हैं दोस्ती!’’


जौहरी ने शायद उनके मनोभावों को पढ़ लिया। इस बार उसने सीधे ही पूछ लिया, ‘‘कहीं से चुराकर तो नहीं लाये?’’


‘‘चोर होगा तू और तेरा बाप! हमें नहीं बेचना यह पत्थर तुम्हें।’’ कहते- कहते जेठा ने पन्ना जौहरी के हाथ से छीन लिया।


जौहरी का दिल बैठ गया पर वह कौन-सा कम था। उसने तुरन्त पन्ना जेठा से छीना एवं आँखों में विनम्रता भरते हुए बोला, ‘‘नाराज क्यूँ होते हो सेठ! बाजार में आधे चोर आते हैं तो हमारे पूछने की आदत हो गयी है, इत्ता तो मैं भी समझता हूँ कि तुम दोनों शरीफ हो।’’


जीवनभर हरामखोर, चोर, उच्चके एवं कुत्ते जैसे विशेषण सुनने वाले जेठा एवं रतना ने शरीफ शब्द सुना तो वे पानी-पानी हो गये। जेठा और रतना एक दूसरे को देखकर लजा गये। शराफत की झाडू से अपने मन का आँगन साफ कर जेठा बोला, ‘‘सच्ची बात तो यह है कि पहाड़ की तराई में शहर आते हुए हमें यह पत्थर मिला है। अब इसका तुरत भाव-ताव करो नहीं तो हम चले।’’ जेठा को उठता हुआ देख रतना भी आधा उठ गया।


जौहरी आश्वस्त हुआ। अब उसका व्यावसायिक कौशल उसकी आँखों में सिमट आया। दोनों को जबरन बिठाते हुए उसने नौकर को आवाज दी, ‘‘टुक्कड़खोर! तुम्हें दिखता नहीं ग्राहक कितने थके हुए हैं। जाओ, जाकर दो माखनिया लस्सी लेकर आओ और साथ में मावा एवं नमकीन भी लाना।’’
लस्सी एवं नाश्ते का नाम सुनकर दोनों रुक गये। मुफ्त की गंगा में हराम के गोते कौनसे बुरे होते हैं? न जाने आज किसके शगुन लेकर निकले। दोनों जब भी शहर आते तो माखनिया लस्सी एवं मावा-मिठाइयाँ देखकर उनके मुँह में पानी भर आता पर आज तो यहीे सुख पत्थर के मोल मिल रहे थे।


थोड़ी देर में नौकर लस्सी एवं मावा-नमकीन लेकर आया। दोनों ने झट से नाश्ता किया एवं गट-गट लस्सी पेट में उतारी। लस्सी का ग्लास समाप्त होते ही जौहरी पत्थर को हाथ में लेकर उछालने लगा। थोड़ी देर बाद उसने पत्थर अपने गल्ले में रखा एवं दोनों की ओर देखकर बोला, ‘‘हजार रुपये लोगे।’’


दोनों के ऊपर की सांस ऊपर एवं नीचे की नीचे रह गयी। बनिये ने लस्सी भी पिलायी और एक हजार भी दे रहा है। दोनों के मन-जलधि पर आशंकाओं की लहरें उठने लगी। हाँ, अगर वो सौ रुपये कहता तो वे तुरन्त ले लेते पर एक हजार सुनकर बिदक गये। रतना जरा पारखी था, उसने जेठा को इशारे से चुप रहने को कहा।


‘‘एक हजार में तो हम यह रतन तुम्हारे हाथ में भी नहीं दे। हमें मालूम है तुम इसे तराशकर हजारों में बेचोगे।’ रतना होशियारी दिखाते हुए बोला।
व्यापारी आश्वस्त हुआ। चलो, पन्ने का मूल्य इनकी नजर में हजारों से तो ज्यादा नहीं है। ऊपर आसमान की ओर देखकर उसने ईश्वर का शुक्रिया अदा किया, प्रभु! ऐसे ग्राहक पहले भेज देता तो बेड़ा पार हो जाता।


अपने आनन्द को संयमित करते हुए वह बोला, ‘‘दस हजार लोगे।’’


जौहरी चतुराई से चारों ओर देखकर धीरे-धीरे बोल रहा था। ऐसा ग्राहक उसके लिए जीवन-मरण का प्रश्न था।


दस हजार सुनते ही रतना आश्वस्त हो गया, इसकी कीमत हजारों में नहीं लाखों में है। शायद दो-तीन लाख से कम न हो। दोनों ने भाव-ताव करना प्रारंभ किया। दस से बीस हजार, बीस से चालीस एवं फिर एक लाख तक आये। भाव और बढ़ते गये अंत में व्यापारी ने तीन लाख मोल किया तो रतना ने कहा, ‘‘अब बस पाँच लाख में नक्की कर दें।’’ जौहरी ने बिना कुछ बहस किये पाँच लाख उसके हाथ में रख दिये। आँखों में बनावटी गांभीर्य भरकर उसने रतना की ओर देखकर कहा, ‘‘आज तो लुट गये सेठ। खैर, अब बिदकना नहीं। दोनों को खानदानी समझकर बात पक्की की है।’’


हाथ मैं पाँच लाख रुपये एवं खानदान की दुहाई। रतना के मुँह से अनायास ही निकल गया, ‘‘बिल्कुल पक्की बनिये! जो अपनी बात का नहीं वह अपने बाप का नहीं।’’


हे मायापति! तुझे हज़ार हाथों से नमस्कार है। तेरी माया का नशा तो देख, रुपये हाथ में आते ही गधा चराने वाला सेठ को बनिया कहकर डपटने लग गया।


पाँच लाख हाथ में लेते ही दोनों को चक्कर आने लगे। रतना ने पाँच लाख अपने गमछे में डाले तो जेठा ने गमछा पकड़कर कहा, ‘‘आधे इधर कर। उस दिन सौ मिले तब आधा-आधा करने का कौल हो चुका है। पत्थर मुझे मिला एवं तू ऐसे रख रहा है जैसे मेरा कोई लेना देना ही नहीं।’’

जौहरी को लगा यह दोनों जितना जल्दी सरके, उतना अच्छा। रतना को हिदायत देते हुए बोला, ‘‘दोनों साथ-साथ थे अतः आधा-आधा कर लो। इतनी बड़ी रकम तुममें से एक हजम नहीं कर सकेगा। इतनी बड़ी रकम एक के पास होगी तो पुलिस भी पीछे पड़ सकती है।’’ यह कहते-कहते उसने रतना से ढाई लाख रुपये लेकर जेठा को दे दिये। जौहरी को लगा झगड़े की जड़ खतम करो नहीं तो दूसरा चीखेगा, बाजार में बेवजह बात फैलेगी। ऐसे मुर्गे बार-बार नहीं मिलते।


दोनों ने ढाई-ढाई लाख रुपये अपने-अपने गमछे में बाँधे, दुकान के पास खड़े गधों को खोला एवं उन पर बैठकर वैसे ही चले गये जैसे आये थे।


दोनों के जाते ही जौहरी ने पन्ना गल्ले से निकाला एवं सीने से लगा लिया। उसका दिल उछलकर मुँह को आने लगा था।


जेठा और रतना दोनों बस्ती में वापस आये। बस्ती पहुँचते-पहुँचते रात हो चली थी। दोनों बाग-बाग हो रहे थे। भाग्य अनुकूल हो तो करमफोड़ों को भी कल्पवृक्ष का साया मिल जाता है। दोनों देर रात तक ताड़ी पीते रहे। मस्ती में आज उन्होंने गधों को भी ताड़ी पिलायी। ताड़ी पीकर गधे उछलने लगे मानो कह रहे हो, ‘‘हम सब जानते हैं…………….सब जानते हैं।’’ जो सुख अंधे को आँखें पाकर अथवा गूंगे को वाणी पाकर मिलता है ऐसा ही अगोचर सुख आज चारोें नर-गर्दभों के हृदय में उछाह ले रहा था।


दोनों के अब पौ बारह हो गये। दोनों की पताका उड़ने लगी। दोनों ने सबसे पहले लाख-लाख रुपये लगाकर अपने मकान पक्के किये। सेठ भी क्या झोंपड़ियों में रहते हैं? बाकी एक लाख से रतना ने शहर में बस्ती के बीच एक ड्राईक्लीनिंग कार्य के लिए दुकान खरीदी, जेठा ने चालू पूंजी के रूप में एक लाख लगाये। जिनकी जेब में दो लाख हो उन्हें बैंक से चार लाख का ऋण मिल जाता है। दोनों ने दलाल से साँठ-गाँठ कर बैंक से चार लाख का ऋण ले लिया। बैंक ने मकान-दुकान गिरवी रखवाये। दोनों कुछ मशीनें, फर्नीचर भी खरीदकर लाये। बैंक को झूठे बिल भी पेश किये। बस्ती के लोग ही नहीं उनके माँ-बाप भी हैरान थे कि इनके पास इतने रुपये आये कैसे? दोनों ने असली बात किसी को नहीं बतायी। जौहरी ने उन्हें कूट-कूट कर समझा दिया था कि सड़क पर मिलने वाला धन अथवा रत्न कानूनन सरकार के होते हैं। बहुत पूछने पर दोनों यही कहते कि उनके पुराने सेठ ने उनके काम से प्रसन्न होकर दिये हैं। इससे अधिक छानबीन की हिम्मत बस्ती वालों में कहाँ थी। भला धनी लोगों के चरित्र के बारे में भी पूछा जाता है?
अब देशी मुर्गियाँ विलायती बाँग बोलने लगी। अब गधे घर पर बँध गए, दोनों ने न जाने कहाँ से एक पुरानी मोटरसाइकिल खरीद ली, दोनों इसी पर आते जाते। रात ताड़ी की बजाय अंग्रेजी शराब छानते। कपड़े भी अब टनाटन पहनने लगे। कई बार तो ग्राहकों तक के कपड़े पहन लेते।


गुड़ आते ही मक्खियाँ भी आ जाती हैं। पराये धन पर नाचना किसे नहीं सुहाता। हरे पेड़ सबको भाते हैं। रात शराब के दौर में कई मनचले प्रसाद पाने उनके पास बैठ जाते। दोनों चण्डूखाने की बातें करते। एक की ग्यारह बताते। शेखी बघारने में पहले से पारंगत थे, अब बढ़ चढ़ कर ढोल पीटते। मनचले बस्ती में जाकर खबर देते कि दोनों सेठ हो गये हैं।


दोनों की किस्मत बदली, दोनों का विवाह दो रूपसी कन्याओं से हुआ। चतुर औरतों ने तुरन्त बात की थाह जान ली कि कामचोर पल्ले पड़ गये हैं। दोनों ने सर पीट लिया। दोनों क्या-क्या ख्वाब लेकर ससुराल आयी पर यहाँ तो स्थिति ढोल में पोल जैसी थी। कल्पवृक्ष के फल बबूल में लग गये।


रतना एवं जेठा न घर में काम करते न दुकान में। भला सेठ भी काम करते हैं। जेठा रतना पर एवं रतना जेठा पर काम पटक देता। मैं राजा तू रानी कौन भरे घड़े का पानी। हाँ, डोलने-फिरने एवं दारू पीने में कभी कोताई नहीं करते। दोनों धन को पानी की तरह बहाते। धीरे-धीरे ग्राहक टूटने लगे। कई बार तो दुकान पर झगड़े की नौबत आ जाती। खेती खसम सेती। अब बाड़ खेत को खाने लगी। कुछ दिनों में धन रीतने लगा, बैंक वालों के नोटिस आने लगे, मोटरसाइकिल बिक गयी एवं चालू पूँजी डूब गयी। बैंक वालों ने दुकान पर ताले जड़ दिये। ओछी पूँजी धणी को खा गयी। यह बातें कब तक छिपती। औरतें पहले से भरी बैठी थी, मौका पाकर कहीं और नाते बैठ गयी। दोनों फिर छड़े हो गये। बिना धन मित्र एवं मनचले भी ऐसे गायब हुए जैसे गधे के सिर से सींग। दोनों व्यापार को डूबने का दोषारोपण एक दूसरे पर करने लगे। साझे की हाण्डी चौराहे पर आकर फूट गयी, दोनों चींटियों की तरह मूत के रैले में बह गये।


आषाढ़ फिर आया। रीती धरती ने फिर आसमान को पुकारा। आसमान ने अपना वादा पूरा किया। आषाढ़ की पहली बरसात बरसी तो नदियाँ फिर उमड़ पड़ी। नदियों के साथ-साथ ही कई छोटे-छोटे नाले कगारों को तोड़कर ऐसे उफन पड़े जैसे मूर्ख थोड़ा-सा धन पाकर बावले हो जाते हैं। जिनके कगारों में दम नहीं हो वो नाले कब तक टिकेंगे? बारिश रुकते ही उन्होंने भी दम तोड़ दिया। हाँ, पक्के जलाशय अवश्य पानी से भर गये थे एवं नदियाँ अपने मजबूत कगारों के बीच अब भी निश्छल बह रही थीं। पहली बरसात का फेन पीकर कई मछलियाँ बदहवास हो गयी थी, नया पानी पीकर मोर मोटे हो गये थे एवं कई मेंढकों ने दम तोड़ दिया था।


धन कमाने से भी ज्यादा जरूरी है धन को सहेजना। कमाने से ज्यादा पचाने में अकल चाहिए। हम सभी के जीवन में ऐसा समय आता है जब ईश्वर हमें जीवन बदलने का अवसर देता है। ऐश्वर्य एवं वैभव सभी के जीवन में दस्तक देते हैं लेकिन ठहरते वहीं है जो इन्हें पाकर मदांध नहीं होते। ईश्वर ऐश्वर्य देता है तो कसौटी पर भी कसता है। सयंमित एवं श्रमजीवी इसे उसकी नियामत मानकर अपने कैरियर की ईंटें रखते हैं, मूर्ख दिखावा करके धन का नाश कर देते हैं।

अलसुबह बस्ती रोज की तरह जग उठी थी। किसानों ने अपने हल संभाले, लुहार अपने मजबूत कंधों पर हथौड़े रखकर घर से निकले। जुलाहे अपने करघों पर बैठ गये एवं गृहिणियाँ रोज की तरह घर के काम में मशगूल हो गयी। बिना काम निजात कहाँ। सूरज ऊपर चढ़कर बस्ती को ऐसे देखने लगा मानो किसी फैक्ट्री का सुपरवाईजर हो। कुछ देर पश्चात् डुगडुगी बजाते हुए कोर्ट के आदमी जेठा एवं रतना के घर बैंक वालों के साथ पहुँच गये।
दोनों ने अपने-अपने गधे संभाले एवं भागकर उन्हीं खण्डहरों में चले आये। रात चाँद उन्हें देखकर हँसा तो दोनों फिर ताड़ी पी रहे थे।


ताड़ी पीते-पीते जेठा रतना से बोला, ‘‘अब आगे क्या करेंगे?’’


अपनी हिलती हुई गर्दन को संयत कर रतना बोला, ‘‘अभी तो ताड़ी पी! रामजी सबको भूखा उठाते हैं पर पेट भर कर सुलाते हैं। क्या अब तक भूखे मरे जो आगे भूखे मरेंगे। रामजी का काम रामजी जाने।’’


दूर खड़े गधे आसमान की ओर सर उठाकर ढेंचू-ढेंचू करने लगे थे, शायद अपने मालिकों के वार्तालाप का गूढ़ार्थ समझ कर वे भी ऊपर वाले का आभार प्रकट कर रहे थे।

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22.04.2006

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