बोध

कुंकुम भरे पांव सुनंदा ने अवस्थी साहब के आंगन में रखे तो उनके एक पुराने मित्र कहे बिना नहीं रह सके, ‘‘यार अवस्थी! तुमने ताश की गड्डी से दूसरा इक्का निकाला है।’’ अवस्थी साहब इस प्रशंसा को सुनकर फूले नही समाए। खुशी से उनके मन की कली-कली खिल गई। उनके मित्र ने सच कहा था। सुनंदा नख-शिख अप्रतिम सौन्दर्य से भरी थी, साथ ही एम.ए. अर्थशास्त्र में गोल्ड मेडलिस्ट। तीखे नाक-नक्श, सुघड़ देह, सुंदर सजल आँखें, और उस पर इतनी पढ़ी-लिखी। साक्षात् सरस्वती ही ब्याह कर लाए थे अवस्थी जी अपने पुत्र के लिए।

इसके पहले भी अपनी पुत्री मधु की शादी उन्होंने अत्यन्त धनी घराने में की थी। उसके श्वसुर दीनानाथजी तो लड़की के रूप रंग और नाक-नक्श पर ही मोहित हो गए थे। लड़का भले काला था पर अवस्थीजी, दीनानाथजी के धन-वैभव की चमक के आगे पसर गए, सोचा बच्ची खुश रहेगी, अतः तोल-मोल कर उसे इसी घर में ब्याहने का निर्णय लिया। बाद में उनका निर्णय सही भी उतरा। मधु दामाद अविनाश के साथ सही समायोजित हो गई एवं बच्ची के श्वसुर दीनानाथजी ने दहेज या किसी भी बात को लेकर उन्हें कभी परेशान नहीं किया। उनके खुद का बहुत बड़ा कारोबार था, एक ही पुत्र था एवं लक्ष्मी की भी असीम कृपा थी। पुत्र के विवाह के बाद तो जैसे उनका चिर-मनोरथ पूरा हो गया। अविनाश दीनानाथ जी के कहे में था एवं गंभीर एवं समझदार भी। पिता के कारोबार में वह रच-बस गया।

अवस्थीजी मेरे ही पड़ौस में बीस वर्षो से उदयपुर में रह रहे हैं। मेरा पूरा नाम जगदीशचन्द्र शर्मा है, पर अवस्थीजी मुझे शर्माजी कहकर बुलाते थे। हम दोनों ने साथ-साथ मकान बनाए थे। मेरा किराणे का कारोबार है एवं ईश्वर की कृपा से अच्छा चलता था। मुझे मकान बनवाने में कोई खास दिक्कत नहीं आई। अवस्थीजी ने भी जोड़-तोड़ जुगत लगाकर मकान बना ही लिया। अवस्थीजी तब सिंचाई विभाग में जूनियर इंजीनियर थे, धन कमाने की कला में अच्छे-अच्छे लोग उनका लोहा मानते थे। जब तक ठेकेदारों की चमड़ी न उधेड़ लेते, ठेका देने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता। ऊपर तक साँठ-गाँठ रखते थे, अफसरों की तीमारदारी करने में सबसे अव्वल होते। ऑफिस के लोग उन्हें प्यार से ‘मिदास टच’ कहते थे। जिस ठेकेदार के काम को अवस्थीजी देखते उस का पूरा होना तय था। वक्त की नजाकत एवं ऊपर के अफसरों की ताकत को वे अच्छी तरह जानते थे अतः जीवन में क्रमशः आगे बढ़ते गए। तनख्वाह के अतिरिक्त उन्होंने जीवन में बहुत कुछ कमाया, पर उनका लोभ सुरसा के मुख की तरह दिन-ब-दिन बढ़ता गया। धन के लोभ पर वह कभी अंकुश न लगा सके। दीन-दुखियों की सेवा, परमार्थ उनके कोर्स में ही नहीं था। लक्ष्मी को सदैव संवार कर रखते, लक्ष्मी कितनी ही चंचल चपला क्यों ना हो, अवस्थीजी की पकड़ से कभी नहीं निकल सकी। मैं उनकी इस वृत्ति से परिचित भी था, पर जिसकी जैसी मिट्टी सोचकर चुप रहता था। पड़ौसी कैसा भी हो, उससे मित्रता ही भली।

सुनंदा को अवस्थीजी के पुत्र के लिए मैंने ही सुझाया था। उसके पिता रामकिशोर सरकारी स्कूल में हेडमास्टर थे, मेरे ही साथ बचपन में पढे थे, उनकी ईमानदारी एवं विद्वत्ता ने मुझे सदैव प्रभावित किया था। वर्षों से हमारे घर आते-जाते थे। उनकी पत्नी शालिनी भी एक सुसंस्कृत महिला थी, दोनों जैसे एक दूसरे के लिए बने हों। मेरे ही सामने सुनंदा पली बढ़ी थी। रामकिशोर के तीन पुत्रियाँ थी। दो की शादी समय से हो गई थी, यह अंतिम रिश्ता उसने मेरे कहने से तय किया था। शादी में अपनी हैसियत से ज्यादा खर्च किया रामकिशोर ने हालांकि अवस्थीजी का लड़का देवेन दो बार फेल होकर बीए हुआ था एवं एमए करना उसके बस में नही था, फिर भी मैंने सोचा, सुसम्पन्न परिवार का एकमात्र पुत्र है, पिता इतने चतुर इंसान है तो आज नहीं तो कल देवेन सेटल हो जाएगा लेकिन ऐसा हुआ नहीं। बाद में मेरी पत्नी एवं बिटिया सुनयना ने बताया कि देवेन को सेटल करने की समस्या को लेकर अवस्थीजी बहुत परेशान है। देवेन का ना तो किसी व्यापार में मन लगता है एवं ना ही वह किसी प्रतिस्पर्धी परीक्षा में निकल पाया है। इतना होते हुये भी मुझे विश्वास था अवस्थीजी कोई ना कोई रास्ता निकाल लेंगे। कुछ भी नहीं बन पाया तो ठेकेदार तो बना ही देंगे। सुनंदा की शादी को अब तक दो वर्ष हो चुके थे पर स्थिति वहीं की वहीं थी।

रविवार मुझे दुकान नहीं जाना होता था। सुबह की गुनगुनी धूप में बैठकर अखबार पढ़ना एवं चाय के साथ पकोड़े खाना मुझे बहुत रास आता था। बेतकल्लुफी के साथ आज सुबह मैं आरामकुर्सी पर बैठा अखबार पढ़ रहा था कि अवस्थीजी के घर यकायक एक माजरा देखकर दंग रह गया। आनन-फानन अवस्थीजी ने अपनी गाड़ी निकाली, पीछे बेसुध-सी सुनंदा को बाहों में लेकर देवेन एवं उसकी माँ गाड़ी में डाल रहे थे। मैं हतप्रभ रह गया, लेकिन जब तक मैं अवस्थीजी के घर तक जाता, गाड़ी फर्राटे से निकल गई। मैं अपने कौतुहल को दबा नहीं पाया, पास ही खड़ी अवस्थीजी की नौकरानी माया से पूछा, ‘‘क्या हुआ?’’

घबराई माया ने मुझे अन्दर बुलाया और कहा ‘बाबूजी सुनंदा ने जहर खा लिया है। तबीयत इतनी बिगड़ी कि अब प्राइवेट अस्पताल ले गए हैं।’’ आखिर क्यों? मेरे नीचे से धरती सरक गईं। जेहन में एक ही बात घूम रही थी, रामकिशोर को क्या जवाब दूंगा? मेरी परेशानी तब कम हुई जब चार घण्टे बाद गाड़ी वापस आई एवं सुनंदा स्वयं उतरकर घर के अन्दर गई। माया से ही मुझे पता चला कि अवस्थीजी के मित्र डाॅ. बेनर्जी ने स्थिति पर तुरन्त नियंत्रण किया एवं उन्हीं की कृपा से सुनंदा सकुशल बच गई। थोड़ी देर बाद रामकिशोर भी आया पर सभी चुप्पी मार गए। शायद पुलिस केस से सभी बचना चाहते थे। अवस्थीजी भी अगले चार-पांच रोज मुझसे नहीं मिले एवं स्थिति भांपकर मैं भी उनके घर नहीं गया, लेकिन मैंने तय कर लिया कि मैं सुनंदा को न्याय दिलाकर रहूंगा। मुझे आश्चर्य तो इस बात का था कि रामकिशोर एवं सुनंदा ने दो साल से मुझे कभी नहीं कहा कि वे तनिक भी परेशानी में हैं। गरल-पान भगवान शिव ने ही नहीं किया है, दुनिया में ऐसे असंख्य लोग हैं जिन्होंने अपने जीवन का गरल चुप अकेले पिया, अपनी व्यथा किसी को नहीं बताई। शिव, ज्ञात-अज्ञात, अनन्त रूपों में प्रस्फुटित हैं।

अगले रविवार बिटिया को भेजकर मैंने सुनंदा को अपने घर बुलवाया। ड्राईंग रूम में अलग से बिठाकर मैंने उससे पूछा, ‘‘क्या बात है बेटी, तुम कुशल से तो हो?’’ सुनंदा चुपचाप अपने पांव के नाखून से जमीन कुरेदती रही। उसका चेहरा पीला पड़ गया था, चेहरे से सारी लालिमा काफूर हो चुकी थी। आँखों के किनारे की काली झांइया उसके दंश का संदेश दे रही थी। मैंने पुनः उससे कहा, ‘‘बेटी! मुझे पापा ही समझो, तुम्हें कोई तकलीफ तो नहीं है?’’ मर्माहत सुनंदा फूट-फूट कर रो पड़ी। मैंने उससे जब दृढ़ता के साथ कहा कि तुम निर्भीक होकर सारी बात साफ-साफ बताओ तो उसने पिछले दो वर्ष में उस पर हुए जुल्मों का सारा इतिहास खोल दिया कि किस तरह उसके कुंकुंम भरे पाँव इन वर्षों में खून से सन गए हैं। देवेन खुद तो कुछ करता नहीं एवं अपनी असफलता की सारी भड़ास मुझ पर निकालता है। दो-चार कारोबार में हाथ डालकर कई लाख बर्बाद भी कर दिए हैं। रात देर तक शराब पीकर आता है, कितनी ही बार उसने मुझे यह कहकर पीटा है कि यह सब कुछ तुम्हारे आने के बाद हुआ है। सास-श्वसुर भी उसी के सुर में सुर मिलाते हैं। भगवान का दिया सब कुछ है, पर श्वसुर जी किसी न किसी बहाने कुछ न कुछ पीहर से मंगवाते रहते हैं। गत दो वर्ष में पापा को परेशान करके रख दिया है, आखिर पापा भी कहां तक करें, कितना दें ? इनका तो पेट ही नहीं भरता। पीएफ लोन तक लेकर पापा ने इन्हें रुपये दिए हैं। अब मुझसे और सहा नहीं जाता, इन दानवों ने मिलकर मेरा जीवन नरक कर दिया है। सुबह-शाम काम करती हूँ पर सास हर काम में मीन-मेख निकालती है। ससुरजी भी किसी न किसी उत्सव के बहाने पीहर से कुछ न कुछ मंगवाते रहते हैं। कहते है लोक-लाज में लेना-देना तो पड़ता ही है। देवेन के सेटल न होने का सारा इल्जाम मेरे मत्थे डालते हैं। रात-दिन कलह में जीने से तो मर जाना श्रेयस्कर है। मैं तो मरना ही चाहती थी पर विधाता को शायद यह भी मंजूर नहीं। सुनंदा की बातों ने मेरे अंतस्तल को झकझौर दिया। क्या इंसान का लोभ कभी नहीं भरता? कुछ लोगों की मिट्टी ऐसी क्यों होती है? बेटी का कण भर दर्द उन्हें पर्वत के बराबर लगता है पर बहू का पर्वत भर दर्द कण बराबर क्यों? इतनी संवेदनशून्यता? मैंने अवस्थीजी को सबक सिखाने की ठान ली।

दूसरे ही दिन मैं अवस्थीजी की बेटी मधु के श्वसुर दीनानाथजी से मिलने गया एवं उन्हें सारा माजरा कह सुनाया। दीनानाथजी अत्यंत सुलझे विचारों के आदमी थे। वे थोड़े में बात का सार समझ गए। यकायक उनके दिमाग में एक योजना बनी। बड़े आदर से उन्होंने अपनी योजना मुझे समझाई, मैं आश्वस्त होकर घर चला आया। कुछ समय पश्चात् दीनानाथजी ने अपने पुत्र अविनाश को बुलाया एवं विश्वास में लेकर उसे सारी योजना समझाई। अविनाश अत्यन्त समझदार एवं क्रांतिकारी विचारों वाला युवक था। सुनंदा को न्याय दिलाने में उसने पिता के कंधे से कंधा मिलाने की ठान ली।

अगले दिन से अवस्थीजी को जैसे राहू लग गया। दीनानाथजी ने मकर सक्रान्ति पूर्व अवस्थीजी से दो लाख रुपये की मांग की। उन्होंने अवस्थीजी को साफ-साफ कह दिया कि लोक-लाज के अनुरूप उन्हें घर पर उत्सव मनाने के लिए यह रकम चाहिए। रिश्तेदारों में भी बहुत कुछ बांटना होगा। अब तक हमने आपको समझदार समझ कर कुछ मांगा नहीं, सोचा आप खुद रीति-रिवाजों से परिचित होंगे, पर गत वर्षों में आपने कुछ नहीं किया लेकिन अब तो करना ही होगा। अवस्थीजी को सांप सूंघ गया। दिन में तारे नजर आने लगे। मधु को जब पता चला तो उसे यकीन ही नहीं आया कि मेरे श्वसुर पापा से कुछ मांग भी सकते हैं। उसने अविनाश को कहा लेकिन उसने स्पष्ट कह दिया कि पापा पर मेरा बस नहीं फिर तुम्हारे पिता के पास कौन-सी कमी है, पिछले बीस सालों से ठेकेदारों का खून चूस रहा है। थोड़ा-सा बाबूजी के सम्मान के हिसाब से भी खर्च कर देंगे तो कौन-सा घट जाएगा? गंभीर मुद्रा में कहकर अविनाश वहां से चला गया।

मधु ने अवस्थीजी को सारी बात कही तो अवस्थीजी को बेटी का दर्द शूल की तरह लगा। उन्होंने मन मारकर दो लाख रुपये भिजवा दिए। अभी दो माह भी नहीं हुए थे कि दीनानाथजी ने होली पर मधु के लिए दस तोले गहने की मांग कर दी, ‘‘हमारे रीति-रिवाज के अनुसार बहू होली पर सोने से लदकर पीहर आती है। ’’अविनाश ने भी बाप की हाँ में हाँ मिलाई। इस बार अवस्थीजी को तगड़ा झटका लगा। मुसीबत में पड़ गए, एक तरफ खाई एक तरफ खंदक। बार-बार इतनी रकम कहां से लाऊंगा। दीनानाथजी ने मुँह खोलना चालू किया है तो अब वे रुकने वाले नहीं। न करता हूँ तो मधु तकलीफ में आ जाएगी। मधु के तकलीफ का अहसास होते ही उनकी नब्ज तेज हो गई। सोचते-सोचते रक्तचाप बढ़ गया। चार रोज बाद अविनाश और मधु में इसी बात को लेकर झगड़ा हो गया। गुस्से में अविनाश मधु को उसके पीहर छोड़ आया। ससुराल से लौटते हुए वह तमतमा कर बोला, ‘‘सम्भालो अपनी बेटी को। कोई गुण नहीं है इसमें। जब से आई है परेशान कर रखा है, मैं इसे तलाक देकर रहूंगा।’’

अवस्थी परिवार पर बिजली गिरी। श्रीमती अवस्थी तो बेसुध हो गई। देवेन का नशा काफूर हो गया। कुछ ही दिनों में उसने मामा के साथ कारोबार प्रारंभ किया, कड़ी मेहनत से कुछ ही समय में कारोबार चल निकला। नशा-पता सब छूट गया। कारोबार के अलावा उसे अब कुछ नहीं सूझता था। कारोबार चलने के साथ ही वह सुनंदा से भी ढंग से पेश आने लगा। अब मधु को लेकर बाप बेटे परेशान रहते थे। अविनाश के गुस्से एवं दीनानाथजी के प्रभामण्डल के आगे कुछ कहते नहीं बनता था। अवस्थी परिवार का खून सूख गया।

दशहरे के दिनों से उदयपुर में हल्की ठंड शुरू हो जाती है। अरावली की उपत्यका में पसरा यह शहर शिशिर के आगमन के साथ एक नई अंगड़ाई लेता है। घाटियाँ तरह-तरह के फूलों से लद जाती हैं। वर्षा के बाद शहर की भरी झीलें सुन्दर, शांत, मनोहारी लगती हैं।

आज सुबह बाहर आंगन में आकर बैठा ही था कि एक गाड़ी दरवाजे पर आकर रुकी। गाड़ी में दीनानाथजी को देखकर मैं दंग रह गया। वे गाड़ी से उतरे एवं मुझे साथ लेकर अवस्थीजी के घर पहुंचे। कहते है बहुत प्यार किया हुआ अथवा बहुत मार खाया हुआ आदमी कुछ कहने की स्थिति में नहीं होता। दीनानाथजी को देखकर अवस्थीजी की दशा ऐसी ही थी।

ड्राईंगरूम में कुछ पल औपचारिक वार्ता के पश्चात् दीनानाथजी ने अपने बैग से कुछ रुपये निकाले। अवस्थीजी के आगे उन्होंने गत महीनों में मांगी सारी रकम रख दी। विस्मय से अवस्थीजी की आँखें फेल गई। पास ही खड़ी सुनंदा को बुलाकर उन्होंने आशीर्वाद दिया। कुछ रुक कर गंभीर मुद्रा में बोले, ‘‘सभी के खून का एक ही रंग होता है अवस्थीजी। सभी के दर्द की भी एक ही भाषा होती है फिर बेटी का दर्द ही आपको इतना विचलित क्यों कर गया? बहू के दर्द को आपने महसूस तक नहीं किया? बेटी के दर्द के जरिए आपको बहू का दर्द महसूस हो यह एहसास करवाने के लिए ही मैंने एवं अविनाश ने यह नाटक खेला था। मेरी तो बहू ही मेरा वैभव है एवं उसे लेने मैं स्वयं आया हूँ। अविनाश उसके बिना कैसे रह रहा है, यह मैं ही जानता हूँ।’’

मधु की आँखें सजल हो उठी। आँखों से गंगा-यमुना बह चली। अविनाश एवं श्वसुर का कद उसकी आँखों में और बढ़ गया। काश! मैं पापा की वृत्ति पर अंकुश लगाती एवं सुनंदा के दर्द को महसूस करती तो यह दुर्दिन नहीं देखने पड़ते।

दीनानाथजी बहू मधु को साथ लेकर गाड़ी में बैठे लेकिन जाने के पूर्व अवस्थीजी को एक गहरा ‘बोध’ दे गये। भविष्य में बहू को बेटी की तरह रखने की कसम खाकर ही वे घर के भीतर आये।

एक अज्ञात उपलब्धि से हर्षित मैं चुपचाप घर लौट आया।

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11.09.2002

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