आसमान के कान होते तो क्या वह धरती की व्यथा सुनता? अपनी भड़ास तो वह बादलों के मुँह से निकाल लेता है।
सोनिया के बारे में इससे अधिक सुनना मेरे लिए कठिन था। यह बातें कोई और बताता तो मैं उसका मुँह नोच लेता मगर शिवा की बातों पर अविश्वास करना आसमान पर चढ़ आये सूर्य को झुठलाने जैसा था। शिवा मेरी नजरों में महाभारत के युधिष्ठिर जैसा था, साक्षात् धर्मपुत्र। शिवा अगर झूठ बोलेगा तो मात्र धर्म के लिये। मगर यहाँ वह झूठ क्यों बोलता ? जो बात घर-घर पहुँच गई हो उसे शिवा नहीं तो कोई और कहता। दिन की धूप में प्रकाश को कौन झुठला सकता है?
रात आँखों में नींद कहाँ थी। मन-हिरन स्मृतियों के अरण्य में ऐसे भागने लगा था मानो किसी ने टेप रिवाईंड कर दिया हो। अतीत यादों का पिटारा लेकर खड़ा हो गया।
यादें फुहार से भीगे रेगिस्तान पर ऊँट के पदचिन्हों-सी होती हैं। यादें दूर मंदिर में बजने वाली घण्टियों की मधुर आवाज के मानिंद होती है। यादें जैसे दूर खड़ा गड़रिया बांसुरी बजा रहा हो। जीवन में यादों का सहारा न हो तो जीवन निर्जन अरण्य बन जाता है।
काॅलेज के दिन मानों सुख के हिंडोलों पर झूलती हुई गुलाबी उम्र। हम चारों ने इंजीनियरिंग साथ-साथ की। अंतिम वर्ष आतेे हमारी मित्रता और प्रगाढ़ हो गयी थी। हृदय पवित्र एवं मन में निःस्वार्थ भाव हो तो मित्रता आनन्द का झरना बन जाती है। कितना शानदार ग्रुप था हमारा। मैं, शिवा, संदीप एवं सोनिया। सोनिया अक्सर कहती, ‘सूर्या! भगवान भी क्या राशि मिलाकर मित्रता बनाता है? हम सबके नाम अंग्रेजी के ‘एस‘ से प्रारम्भ होते हैं, यह क्या अजीब इत्तफाक नहीं? मैं उत्तर देता उसके पहले संदीप बोल पड़ा, ‘अरे हमारे नाम ‘एस‘ से इसलिये प्रारम्भ होते हैं क्योंकि हम ताश की गड्डी से भगवान के निकाले हुए ‘एस‘यानि चार इक्के हैं। हमसे ऊपर कोई नहीं।‘ संदीप के उत्तर ने उस दिन सबको आत्ममुग्ध कर दिया। उसका वाक्चातुर्य देखते बनता था। अपनी बड़ी-बड़ी आँखों के बीच पुतलियाँ घुमाते हुए वह जब भी बोलता, सबको मंत्रमुग्ध कर देता। उसका शब्द-विलास मोहिनी मंत्र की तरह असर करता। सोनिया उसकी हाजिर जवाबी की अक्सर तारीफ करती।
हम तीन लड़कों के बीच वह अकेली गर्लफ्रेंड थी। कितनी निर्भीक, कितनी बिंदास। न जाने क्यूँ उसे लड़कियों के साथ रहना अच्छा नहीं लगता था। वह अक्सर कहती, ‘लड़कियाँ हमेशा छिछली बातें करती हैं। काॅलेज में आकर भी घर से निज़ात नहीं। लड़के काॅलेज आकर तो घर को भूल जाते हैं।‘
जवानी का ज्वार हम तीनों लड़कों में जोर मारने लगा था। सोनिया की छातियाँं भी अब उभार लेने लगी थी। कई बार तो वह इतना महीन टाॅप पहन कर आती कि हम निहाल हो जाते। सभी चोर आँखों से उसे देखते रहते।
हम तीनों जब भी अलग से मिलते सोनिया की अक्सर चर्चा होती। यौवन में युवक, युवतियों की बातें नहीं करेगा, उनमें रुचि नहीं लेगा तो कब लेगा? कई बार तो मैं आश्चर्य करता कि लोग यौवन में संन्यासी कैसे बन जाते हैं? इसका जवाब भी संदीप देता, ‘यौवन में संन्यासी या तो मनुष्य परिस्थितिजन्य बनता है अथवा मात्र सन्यासी का मुखौटा लगाकर जनता को ठगता है। जो बसंत में पतझड़ का स्वांग भरता है वह निरा ढोंगी है।‘ संदीप का उत्तर शिवा के गले नहीं उतरा। वह उबल पड़ा, ‘यह मात्र तुम्हारी सोच है संदीप! यह कहकर तो तुम उन तपस्वियों, मनस्वियों एवं संतो के त्याग को नकार रहे हो जिन्होंने अपनी चिर तपस्या से समाज की दिशा बदल दी। ऊर्जा के रेचन का तरीका भिन्न हो सकता है। आवश्यक नहीं है ऊर्जा का अधोगमन ही हो, ऊर्ध्वगमन भी संभव है। जिस अनुभव से तुम नहीं गुजरे उसे तुम नकार नहीं सकते।‘ शिवा के उत्तर से मैं हतप्रभ था। यह सेर को सवासेर वाली बात थी पर संदीप हार कहाँ मानने वाला था, झल्लाकर बोला ‘अपनी साधुगिरी जेब में रख! मुझे इतनी ऊँची बातें समझ नहीं आती। मैं तो इतना भर जानता हूँ कि नल भरा हो तो पानी नीचे ही गिरेगा। बादलों से बूंदे धरती पर गिरेंगी। तुम प्रकृति की शक्तियों को अवरुद्ध नहीं कर सकते। पहाड़ों से नदियाँ मैदानों में ही बहेंगी। तू हरिद्वार से गंगा गंगोत्री की ओर ले जा सकता है क्या?’
शिवा के पास कौनसे उत्तरों की कमी होती। तमक कर कहता, ‘तुम्हारा मतलब महावीर, बुद्ध, विवेकानन्द, जीसस असामान्य थे? जिन ऊँचाइयों पर तुम नहीं पहुँचे, उन ऊँचाइयों को छोटा करने का तुम्हें क्या अधिकार है? विवेकानन्द भी उपलब्ध होने के पूर्व तुम्हारी तरह तर्क करते थे। उपलब्ध होकर वह भी तो यौवन में संत बन गये थे।
बात बढ़ती तब मैं ही बीच-बचाव करता, ‘तुम दोनों की बातों में दम है दोस्तों! अपने-अपने अनुभव, मार्ग एवं दृष्टिकोण हैं। एक बात एवं एक अनुभव हर व्यक्ति के लिए प्रासंगिक नहीं होता।’
इन छोटी-बड़ी चर्चाओं के बीच एक बात तय थी। हम तीनों सोनिया की तरफ आकर्षित थे। रूप-गुण-सौन्दर्य की त्रिवेणी थी वह। तीखी नाक, गहरी काली आँखें, तराशी हुई भौहें ,सुन्दर कपोल जिसके बीच पड़ने वाला गड्ढा उसे एक विशिष्ट पहचान देता। मुस्कुराती तब दंत पंक्ति मोतियों-सी चमकती। अच्छी लम्बी थी, अक्सर हाई हील की सैंडिल पहनती इससे और लम्बी लगती। हम तीनों मन ही मन चिडिया फांसने का स्वप्न देखते पर धीरे-धीरे मुझे एवं शिवा को समझ में आ गया कि उसका झुकाव संदीप की ओर है, यहाँ दाल नहीं गलने वाली। लेकिन संदीप की तरफ भी उसका झुकाव स्पष्ट नहीं था। कुल मिलाकर सोनिया हम सब के लिये उस धुएं की तरह थी जिसके पार कुछ नहीं दिखता।
एक बार हम चारों कैन्टीन में बैठे चाय का लुत्फ ले रहे थे। उस दिन औरत एवं उसके हकों पर बात चल पड़ी। शिवा में तर्क-वितर्क की आदत तो थी ही। बात बढी तो उसने शेक्सपीयर को उद्धृत किया। उस महान कवि ने ऐसा क्यों कहा, ‘फ्रेइल्टी दाई नेम इज वुमेन‘ अर्थात् औरत, तुम्हारा नाम बेवफ़ाई है।‘ सोनिया को तब मैंने पहली बार तैश में देखा। उसकी त्यौरियाँ चढ़ गयी, चेहरा लाल हो गया। तमक कर बोली, ‘जो कुछ शेक्सपियर ने कहा वह उस पात्र का एक विकृत रूप है जो उन्होंने रचा। इसे आप सम्पूर्ण नारी जगत का पैमाना नहीं बना सकते। यह पुरुषों के सोच की संकीर्णता है, क्षुद्रता है। वही चरित्र ठोकर खाये एक पुरुष का भी हो सकता है। मुझे तो यह तक कहने में गुरेज़ नहीं कि पुरुष तो होते ही बेवफ़ा हैं, औरत तो मात्र चोट खाकर ऐसी बनती है। हाँ! जिन पुरुषों को स्त्रियाँ नकार देती हैं वे यहाँ-वहाँ से ऐसी पंक्तियाँ ढूंढ़ लाते हैं। कहने को तो तुलसी ने भी कहा है ‘ढोर, गंवार, शूद्र, पशु-नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी।‘ उसी तुलसी ने सीता को जगतजननी जैसे शब्दों से सम्बोधित किया है। सीता की महानता एवं ऊँचाइयों की व्याख्या तुलसी से अधिक किसने की है? हर कवि एवं लेखक अपने अच्छे-बुरे पात्रों के साथ बहते रहते हैं, इसका अर्थ यह हरग़िज नहीं होता कि एक विशिष्ट अच्छाई अथवा बुराई उस वर्ग में सनातन होती है। यह उस पात्र एवं वर्ग का मात्र सम-सामयिक रूप है।‘ सोनिया की ललाट पर गांभीर्य एवं चिंतन की रेखाएँ उभरने लगी थी। कुछ रुक कर पुनः बोली, ‘शिवा! औरत ज़िन्दगी में एक ही बार प्यार करती है। दूसरी जगह तो वह मात्र समझौता करती है। शील उसका श्वास है, उसकी अंगूठी में जड़ा हुआ नगीना है। औरत धरती की तरह सहिष्णु होती है, व्यभिचारी आकाश की तरह उन्मत्त नहीं। उसका हृदय बेतरतीब फैलने वाले जंगल के पेड़-पौधों की तरह नहीं होता, वह गमले में खिले गुलाब की तरह होती है। उसका घर ही उसका मंदिर, उसकी परिधि होता है। यह परिधि उसकी बेड़ियाँ नहीं होती वरन् यह बेड़ियाँ उसका गहना होती हैं। अपना आकाश वह तभी बनाती है जब पुरुष बेवफ़ाई करते हैं। हाँ, तब उस आकाश के अनंत छोर होते हैं। वह पुरुष से अधिक तीव्रता से गिरती है।’
उस दिन शिवा का चेहरा देखने लायक था। मानो किसी की नंगी पीठ पर कोड़ा पड़ा हो और वह कराह नहीं सकता हो। हाँ, मैं मन ही मन खुश था, आज से शिवा का पत्ता कट गया। मेरी आशंका निर्मूल सिद्ध हुई। दूसरे दिन सोनिया ने सबसे पहले आकर शिवा से हाथ मिलाया, ‘शिवा! कल की बातों का बुरा नहीं मानना। तुम जैसे विद्वान व्यक्ति से बहस करने का अलग आनन्द है। टक्कर का योद्धा हो तभी युद्ध में आनन्द आता है ,इतना कहकर उसने शिवा के कंधों पर अपने दोनों हाथ रखे। उसकी आँखों में झाँककर बोली, ‘शिवा! यू आर सिंपली ग्रेट।’ मेरी छाती पर साँप लोट गये। उस दिन मेरा और संदीप का चेहरा लटक गया।
एक दिन हम सभी काॅलेज से घर लौटने के लिये पार्किंग स्टैण्ड पर खड़े थे। काॅलेज छोड़ते हुए भी हम न जाने कितनी बातें कर लेते। मौसम खुशगवार था। हल्की बूंदाबांदी हो रही थी। सोनिया के चेहरे पर गिरी बूंदें एवं ललाट पर बिखरी जुल्फें उसके रूप की आभा सहस्र गुना कर रही थी। उसकी बड़ी-बड़ी आँखें कितनी खूबसूरत थी। उस दिन मुझे समझ में आया कि अनंग दिखता क्यों नहीं। जो रूपसियों की आँखों में छिपा हो, वह दिखेगा कैसे?
मैं स्कूटर उठाने ही वाला था कि सोनिया मेरे पास आयी एवं सभी को ‘एक्सक्यूज मी‘ कहकर मुझे एक तरफ ले गयी। इस छोटे से रास्ते में मेरे मन के आकाश पर इन्द्रधनुषी रंग बिखर गये। उसके बाद उसने जो कुछ कहा तो लगा सुख के अमृतघन मेरे माथे पर बरस पड़े हों। वह कह रही थी ‘सूर्या! मुझे तुमसे कुछ आवश्यक, गोपनीय बातें करनी है। तुम शाम चार बजे मेरे घर आना।‘ मेरे कानों में शहद घुल गया। मन-मयूर पंख फैलाकर नाचने लगा। मैं मंसूबों की नाजुक सुइयों से स्वप्नों के रेशमी वस्त्र सीने लगा। ओह! मैं कितना भाग्यशाली हूँ। सोनिया ने मुझे इस लायक समझा। मन की कली-कली खिल गयी। आदमी अपनों के बीच पदोन्नत होकर कितना गौरवान्वित होता है।
उस शाम उसने दिल खोलकर रख दिया था। वह कितनी मीठी आवाज में कह रही थी ‘सूर्या! तुम मेरे सबसे अच्छे मित्र हो।‘ यह कहकर वह कुछ पल के लिए रुक गयी। यह पल मेरे जीवन की बेशकीमती नेमत थे। क्या सचमुच आज मेरे कान वह सुनेंगे जिनका उन्हें इन वर्षों में इंतजार था ? मेरा मन आनन्दसिंधु में डुबकी लगाने लगा। कल्पनाओं ने सतरंगी सपनों का एक ऐसा साम्राज्य रच डाला जिसकी महारानी सोनिया एवं महाराजा मैं था। अपने स्वप्न रोमांच को छुपाते हुए मैंने वार्ता को गति दी, ‘कम ओन सोनिया! यू केन शेयर एनी थिंग विद् मी।‘ मेरी वाणी आत्मविश्वास से लबरेज थी। दिल उछलकर बाहर आना चाहता था। मैंने स्वयं को संयत किया। सोनिया की आँखें अब लाज से लाल होने लगी थी। कुछ झिझकते हुए बोली, ‘सूर्या! आज मुझे तुम्हारे सहयोग की जरूरत है। पहले मैंने सोचा कि इस कार्य में मैं शिवा का सहयोग लूं पर तुम तो जानते हो वह ‘प्योर थियोरी‘ है , उसमें वह प्रक्टिकेलिटी नहीं है जो तुममें है। तुम सत्य-असत्य का अन्वेषण नहीं करते, तुम मित्र के लिए मर सकते हो ‘ कहते-कहते वह फिर कुछ पल के लिए रुक गयी। मेरी छाती गर्व से फूल गयी। उसने वार्ता जारी रखी, ‘दरअसल, मैंने तुम्हे एक अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य से यहाँ बुलाया है। मैं एक अरसे से मन ही मन……।‘ कहते-कहते उसने चेहरा हथेलियों से ढक लिया। मेरा साहस आसमान छू गया। मैंने उसकी हथेलियाँ हटाकर कहा, ‘अब बता भी दो यार।‘ आँखों में आये लाल डोरों के बीच गहरी काली पुतलियाँ घुमाते हुए वह बोली, ‘सूर्या! मैं मन ही मन संदीप को चाहने लगी हूँ। मैं उससे सीधा कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही हूँ। मेरी इच्छा है कि तुम इस महापुण्य के सेतु बनो।’
भरे गुब्बारे पर जैसे किसी ने पिन मार दी हो, वही हालत मेरी थी। चेहरे की रंगत बदल गयी। संदीप परोसा हुआ थाल छीन कर ले गया।
स्थिति देखकर मैंने पैंतरा बदला, ‘बधाई सोनिया! यह सब तुम मुझ पर छोड़ दो।‘ इससे आगे कहने का साहस ही कहाँ बचा था। किसी तरह काम का बहाना बनाकर मैं वहाँ से उठकर चला आया।
पूरे रास्ते हृदय में हाहाकार मचा था। मेरी मनोदशा का मैं खुद बयाँ नहीं कर सकता। संदीप के प्रति मेरे मन में ईर्ष्या बुलंदी छू रही थी। हरामी साला! जब देखो बकर-बकर करता रहता है। यह लड़कियाँ भी कितनी मूर्ख होती हैं,हमेशा बातूनी लड़कों पर मरती हैं। मन की गहराई में झाॅकना इन्हें आता ही नहीं। उस समय संदीप और हम किसी तालाब के किनारे खड़े होते तो मैं उसे पानी मैं धक्का दे देता एवं ईश्वर से यही दुआ करता कि वह कभी ऊपर नहीं आये। सोनिया के शब्द छाती में तीर की तरह धंस गये थे। आज मुझे शिवा कितना अच्छा लग रहा था। माना कि प्योर थियोरी है, भांजी तो नहीं मारता।
घर आकर मैंने नींद की दो गोलियाँ ली, तीन घण्टे तक सोया तब जाकर मन संयत हुआ।
विवके रथी बनकर अब भावनाओं पर लगाम लगाने लगा था। मानव मन कितना रहस्यमयी है? इसे समझने , न समझने के रहस्य में कितना सौन्दर्य, कितनी कसक छुपी है। जान लेने पर यह खोखले ढोल के अतिरिक्त कुछ नहीं। अपवित्रता से पवित्रता, ईर्ष्या से प्रेम एवं क्रोध से शांति की ओर जाता हुआ मन सचमुच कितनी लम्बी यात्रा कर लेता है।
मुझे अब मेरे ही विचारों से आत्मग्लानि होने लगी थी। सोनिया की मित्रता कितनी महान थी, उसका रहस्य प्राकट्य कितना गरिमामय था। क्या मित्र होना प्रेमी होने से कम सुखकर है? स्त्री-पुरुष के बीच पवित्र भावों से भरी मित्रता अनेक बार पति-पत्नी के प्रेम से भी ऊँची होती है। क्षणभर में मेरे हृदय से संदीप के प्रति ईर्ष्या, क्रोध एवं घृणा का भाव विलुप्त हो गया। अब मैं मात्र एक मित्र था, मेरे दो मित्रों का प्रणयसेतु। ओह! यह समाचार सुनकर संदीप कितना आह्लादित होगा। मैं मन ही मन उसके मुस्कराते हुए मुख को देखने लगा था। संदीप जैसे कह रहा था, ‘सूर्या! आज मैं सदैव के लिये तुम्हारा ऋणी हो गया।’
संदीप पर जब मैंने यह राज प्रकट किया तो वह बल्लियों उछल पड़ा। मुझे बाहों में भरकर बोला, ‘सूर्या! क्या मैं इतना भाग्यशाली हूँं ?’
दो प्रेमियों का प्रेम अब परवान चढ़ने लगा था। यह गालों पर गुलाब खिलने का मौसम था। इन दिनों दोनों शहर के किसी रेस्तराँ अथवा दर्शनीय स्थानों के इर्द-गिर्द नजर आते। दोनों जब भी काॅलेज आते, उनकी आँखों में एक विशिष्ट चमक होती। सोनिया के व्यक्तित्व में भी कुछ अजीब परिवर्तन आने लगे थे। अब वह पहले जैसी बिंदास नजर नहीं आती थी। कई बार तो बात करते-करते अकारण शरमा जाती। उसका चेहरा लाज से आरक्त हो उठता। चेहरे के इस रंग को परिभाषित करना मुश्किल है। प्रेम का यह आठवाँ रंग अन्य सभी रंगों से अनूठा है। सोनिया इन दिनों खिली-खिली नजर आती जैसे कोई कली अभी-अभी चटकी हो। कभी वह कल-कल बहती हुई नदी की तरह लगती तो कभी ऐसा लगता मानों बगीचे में खिले सहस्त्रों फूलों का अर्क उसकी आँखों में सिमट आया हो।
प्रेम जीवन का राग बसन्त है। कितनी ऊर्जा, कितना उल्लास है इसमें! आत्मा के आकाश पर मानो सहस्त्र सूर्य एक साथ उग आये हों। अब मुझे समझ आया विष्णु का एक नाम चतुर्भुज क्यों हुआ? यह नाम उन्हें लक्ष्मी को वरण करने के बाद मिला होगा। फिर लक्ष्मी चतुर्भुज क्यूं नहीं हुई ? संभवतः इसलिये कि स्त्री का प्रेम सिर्फ देना जानता है, खोना जानता है। मन भावन पुरुष को पाकर वह सर्वस्व दान कर देती है। स्त्री कितनी विशाल है, कितनी महान। प्रेमिका बनकर वह महानतम बन जाती है।
इंजीनियरिंग की डिग्री लेने के पश्चात् दोनों ने प्रशासनिक सेवाओं की तैयारी की एवं दोनों का एक ही बैच में चयन हुआ। आईएएस बनने के लिए दोनों ने कड़ी मेहनत की। फल श्रम के पीछे चलते हैं। इस अप्रत्याशित उपलब्धि की काॅलेज में ही नहीं शहर भर में चर्चा हुई। दोनों की पोस्टिंग भी एक साथ मुम्बई में हुई। मुम्बई पोस्टिंग होने के दो माह बाद उनका विवाह हुआ। दोनों के विवाह-उत्सव में मैं एवं शिवा झूम-झूमकर नाचे थे। मित्रता भी एक अनूठा नशा है।
संदीप के विवाह के दो माह पश्चात् मेरा एवं चार माह पश्चात् शिवा का विवाह हुआ। हम दोनों के विवाह में संदीप और सोनिया भी अवकाश लेकर आये।
जैसे चौराहे पर आकर पथिक अपने-अपने मार्ग पर चले जाते हैं, हम सभी अपनी-अपनी केरियर यात्रा पर चले गये। पक्षियों के झुण्ड की तरह सभी अपनी-अपनी महत्वांकाक्षाओं के आकाश में उड़ गये।
काल का अजगर दिन, महीनों एवं वर्षों तक निगल गया।
मैं स्थायी रूप से पटना में सेटल हो गया। शिवा, संदीप एवं सोनिया मुम्बई में बस गये। शिवा से जब-तब मुझे सबकी जानकारी मिलती रहती। धीरे-धीरे यह सम्पर्क भी कम होता गया। हमें विवाह किये दस वर्ष होने को आये। मैं ठेकेदारी कार्यों में मशगूल हो गया। अब यदा-कदा वर्ष में एकाध बार ही शिवा से फोन पर वार्ता होती। संदीप, सोनिया एवं मेरे मध्य वही सेतु होता।
इन्हीं दिनों एक आवश्यक कारोबारी कार्य से मुझे मुम्बई जाना पड़ा। मैंने शिवा को फोन किया। शिवा मुझे स्टेशन पर लेने आ गया था। मिलते ही हमने एक-दूसरे को अंक में भर लिया। हम दोनों की ऐसी दशा थी जैसे बचपन में बिछुड़े दो भाई मिले हों। दो जड़ नदियों का मिलन अगर इतना पवित्र होता है तो दो चैतन्य मित्रों का मिलन कितना पवित्र, आल्हादकारी होता होगा?
लंच के बाद शिवा ने जो कुछ कहा उसे सुनकर मेरी आत्मा हिल गयी। उसने जब बताया कि सोनिया अभी मुंबई एवं संदीप दिल्ली में है तथा दोनों के बीच गहरी अनबन हो गयी है तो मेरा हृदय कांप उठा।
‘क्या बात कह रहे हो शिवा!’ मैं लगभग चीख उठा।
‘सच कह रहा हूँ।’ शिवा ने अपनी बात दोहराई।
‘वे तो मेड फोर इच-अदर थे। ऐसा क्या हो गया?’ मेरी आँखें फैल गयी।
‘सूर्या! तुम यह जानकर हैरान हो जाओगे कि सोनिया एक बेवफा औरत है। उसके कई मर्दों से जिस्मानी संबंध हैं। हैरत की बात तो यह है कि वह इसे खुले आम स्वीकारती है। गमले का पौधा अब जंगल का पौधा बन गया है।’
मैं अवाक् रह गया। मेरी नसों में खून निचुड़ने लगा था। क्या इसी दुष्परिणति का मैं सेतु बना था? आखिर सोनिया ने ऐसा क्यों किया? संदीप जैसा भावुक व्यक्ति ऐसा आघात कैसे सहेगा? सोनिया उसे तलाक क्यों नहीं दे देती? संदीप को भी ऐसी औरत की क्या पड़ी है? मेरे मन में एक गहरा अंधेरा पसर गया। इसी अंधेरे में असंख्य प्रश्न जुगनुओं की तरह चमकने लगे। क्या उसी सोनिया ने ऐसा किया जोे शील को नारी का गहना कहती थी ? मैं मन की जिज्ञासा नहीं रोक पाया। मैंने उससेे मिलना तय कर लिया।
उस समय वह मुम्बई नगरनिगम के सचिव पद पर तैनात थी। एक हजार से अधिक कर्मचारी उसके अधीनस्थ थे। बहुत पाॅवरफुल पोस्ट थी उसकी। भू-मालिक उसके इर्द-गिर्द मक्खियों की तरह भिनभिनाते। उसकी कृपा दृष्टि किसी को निहाल कर सकती थी।
मैंने सोनिया को फोन किया तो वह भावुक हो उठी। मैंने दूसरे दिन शाम को मिलने का समय लिया एवं नियत समय पर पहुँच गया।
वह गार्डन में आरामकुर्सी पर बैठी थी। कितना विशाल गार्डन था उसका। आवास उससे भी बड़ा था। क्या बड़े लोगों के दुःख भी उनके भवनों की तरह भव्य होते हैं? इतने बड़े घर में अकेली सोनिया कैसे रहती होगी?
मुझे देखते ही वह कुर्सी से उठी, आगे बढ़कर हाथ मिलाया एवं पास ही रखी आरामकुर्सी पर बैठने को कहा। हाथ मिलाते हुए उसने मुस्कराने का असफल प्रयास किया पर इस मुस्कुराहट में वो निर्मल उल्लास नहीं था जो कभी उसके चेहरे पर हुआ करता था। आज उसकी मुस्कुराहट में अपराध बोध स्पष्ट झलक रहा था।
हम दोनों आरामकुर्सियों पर आमने-सामने बैठे थे। बीच में सेन्ट्रल टेबल रखी थी जिस पर नौकर अभी-अभी चाय रखकर गया था। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं बात कहाँं से प्रारम्भ करूँ ? संदीप के बारे में बात करूँ या न करूँ ? आशंकाओं के असंख्य मेघ मेरे मस्तिष्क पर छा गये। मैंने आँख उठाकर सोनिया की ओर देखा। आकाश का असीम खोखलापन उसकी आँखों में सिमट आया था। मुझसे रहा न गया। मैंने साहस कर वार्ता प्रारम्भ की।
‘‘कैसी हो? संदीप के क्या हाल हैं?’’
मेरे कहने भर की देर थी कि उसकी सिसकियाँ बंध गयी। कपोलों पर टप-टप आँसू बहने लगे। वर्षो का मवाद क्षण भर में पिघल गया। वह उत्तर देना चाहती थी और नहीं भी। कुछ संयत होकर बोली, ‘तुम्हे शिवा ने सब कुछ कह दिया होगा, सूर्या!’
‘नहीं! ऐसा क्या हो गया?’ मैंने जान बूझकर बात छुपाने का प्रयास किया।
‘मैं और संदीप अब एक साथ नहीं रहते। गत दो वर्षों से हम अलग-अलग रह रहे हैं। संदीप ने कुछ दिन पूर्व तलाक का नोटिस भी भेज दिया है।’ उसने एक लम्बी श्वास भरते हुए कहा।
दोनों कुछ देर मौन बैठे रहे। मैं चाहता था कि वही बात आगे बढ़ाये पर ऐसा नहीं हुआ। मुझे चुप्पी तोड़नी पड़ी।
‘अब पुरानी बातों को भूल जाओ सोनिया!किस दंपति में मत-मतांतर नहीं होते। कभी-कभी ऐसा हो जाता है। अतीत को जितना खोदोगे, वर्तमान की इमारत उतनी ही कमजोर होगी। मैं संदीप से बात कर उसे समझाऊँगा।’
‘अनेक बार अतीत के दंश मिटाना मुश्किल हो जाता है। सूर्या! क्या हमारे चेहरे पर लगे बचपन के घाव मिट जाते हैं? कुछ दुःख जीवन का हिस्सा बन जाते हैं, उन्हें हमें ढोना पड़ता है।’
बगीचे में बह रही हवाएँ मानो कुछ पल के लिए रुक गयी। सोनिया के मन में बवण्डर उठने लगे थे। दुःख सुनने वाला विश्वासपात्र सामने आ जाये तो दुःख स्वयं पिघल जाता है। दुःख रूपी घी को पिघलने के लिए मात्र विश्वास की आँच चाहिए। इस बार सोनिया ने बात आगे बढ़ायी।’
‘सूर्या! तुम जानते हो, मैं संदीप को कितना चाहती थी। उससे विवाह करके मैं स्वयं को धन्य समझती थी। जीवन में किसी बात की कमी नहीं थी। विवाह के सात वर्ष बाद मेरे पापा बीमार पड़े। तुम्हें मालूम है मेरी माँ बचपन में गुजर गयी थी एवं मैं मेरे माता-पिता की एक मात्र संतान थी। मैंने संदीप से पापा को हमारे आवास पर लाने का अनुरोध किया पर वह नहीं माना। मैंने बार-बार अनुरोध किया तो उसने तैश में कहा, ‘मैं घर को ससुराल बनाना नहीं चाहता। तुम किसी नर्स को लगा दो।’ उसकी माँ बीमार पड़ी तब मैंने पूरे सात माह सेवा की थी, लेकिन मेरे पिता के प्रति उसका यह रवैया मुझे सहन नहीं हुआ। मैं अपने पिता के घर चली आयी। उन्हें मैं इस हालत में कैसे छोड़ती? मैंने एवं पापा ने उससे कुछ समय ससुराल रहने का अनुरोध किया पर वह नहीं माना। मैंने फोन पर मनाने का प्रयास किया तो उसने अत्यन्त रूखा जवाब दिया, ‘मुझे घर जंवाई नहीं बनना, बुड्ढा मरे मेरी बला से।’
संदीप की इस बात ने मेरे अंतर-क्रोध को दहका दिया। क्या दामाद अपरिहार्य परिस्थितियों में ससुराल नहीं रह सकता? औरत तो सब कुछ छोड़कर पति के घर चली आती है। सब कुछ समाहित कर लेती है। पुरुष के यह पूर्वाग्रह क्यों? अगर मैंने उसके पिता को पिता तुल्य समझा तो वह मेरे पिता का अपमान क्यों करे? समाज की प्रथाएँ मनुष्य की सुविधा एवं सुख के लिए बनायी गयी हैं, उनके प्रति जड़ता का भाव ही रुढ़ियों को जन्म देता है। एक दामाद श्वसुर की सेवा क्यों नहीं कर सकता? श्वसुर के पैसे से तो वह परहेज नहीं करता? मैंने मन मारकर उसकी बात मान ली। अकेली पापा की सेवा करती रही लेकिन बात यहीं नहीं रुकी। उन्हीं दिनों मुझे पता चला कि उसके पाँव बहक गये हैं। मेरे विश्वासपात्र साथियों ने जब बताया कि वह यहाँ-वहाँ औरतों पर मुँह मारता रहता है तो मेरे पाँव तले जमीन सरक गयी। जिस आदमी को मैंने भगवान समझा, उसका यह रूप? क्या औरत इतनी मजबूर है? हम दोनों की शैक्षणिक योग्यताएँ बराबर, उपलब्धियाँ बराबर, आय बराबर, फिर गिरने का अधिकार मात्र पुरुष को क्यों? मेरे पिता को कहीं से यह बात पता चल गयी। इसी ग़म में उन्हें हृदयाघात हुआ एवं वे चल बसे।’
अपनी व्यथा कहते-कहते उसकी हिचकियाँ बंध गयी, चेहरा आँसुओं से नहा गया। उसके आँसू मानो उसके संतप्त हृदय का अभिषेक करने लगे थे। जब आँसू थमे तो उसका चेहरा रंगत बदलने लगा। अब उसके चेहरे पर रोष उभरने लगा था। आगे जो कुछ उसने बताया वह ज्वालामुखी के लावे से कम नहीं था।
‘सूर्या! इसके बाद मैंने संदीप को जवाब देने की ठान ली। औरत खूंटे से बंधी बकरी नहीं है? सामाजिक रुढ़ियों का यह शूल स्त्री के लिए ही क्यों?’ उसकी आँखों से चिंगारियाँ फूट रही थी।
मनुष्य का अंतर-क्रोध कई बार उसे उन राहों पर धकेल देता है जहाँ से लौटना नामुमकिन हो जाता है।
मैंने उसे समझाने का प्रयास किया, ‘यह सब भाग्य का खेल है। तुम धैर्य रखो सब कुछ ठीक हो जायेगा।‘ मुझे उम्मीद थी कि मेरी बातों से उसका क्रोध ठण्डा होगा पर ऐसा नहीं हुआ। उल्टे मेरी समझाइश ने आग में घी का काम किया। वह तमतमा कर बोली, ‘सूर्या! भाग्य की ढाल से कमजोर व्यक्ति रक्षा करते हैं, वीर तो सदैव अपने रण-कौशल पर विश्वास रखते हैं। संसार की सहानुभूति और सांत्वना पर जीने के लिये मेरा जन्म नहीं हुआ है। दूध और मन फटने पर कभी नहीं जुड़ते। उनको जोड़ने का प्रयास भी मूर्खता है। मैंने भी अपनी परम्पराएँ तोड़ दी हैं। अब मेरे लिए भी मात्र एक पुरुष का नियम क्यों? मेरे आकाश भी तो बदल सकते हैं। आज मैं भी शराब पीती हूँ, मेरे भी अनेक पुरुष मित्र हैं। मेरा व्यक्तित्व, मेरी सेक्सुअलिटी अब एक व्यक्ति के लिए नहीं है। अगर अपनी शक्ति एवं धन का सहारा पाकर पुरुष बहुस्त्रीगामी हो सकता है तो स्त्री बहुपुरुषगामी क्यों नहीं हो सकती? क्या द्रोपदी के पाँच पति नहीं थे? क्या वह स्त्री नहीं थी? हमारे ही धर्म ने उसे एक सम्मानित स्त्री का दर्जा दिया है, फिर सोनिया ऐसा क्यों नहीं कर सकती? कुपथगामी होना क्या मात्र पुरुष का अधिकार है? हाँ, एक बात और अपने मित्र तक पहुँचा देना। मैं उसे तलाक नहीं दूंगी। मैं उसे वर्षों कोर्ट में घसीटूंगी। मैं उसे तड़पते हुए देखना चाहती हूँ। अब मेरे जीवन का यही ध्येय है।’
सोनिया का चेहरा तपे अंगारों की तरह लाल हो उठा था। दिल से फफोले फूट रहे थे। इससे आगे सुनने का साहस मुझमें नहीं था। मेरा कलेजा ऐंठने लगा।
अब मेरे पास कहने को क्या बचा था ?
अगर आकाश भटक जाये तो उसे कौन राह दिखा सकता है?
मैंने सोनिया से विदा ली।
दूर नीले आकाश पर सूर्य अस्त हो रहा था।
…………………………………………….
13.03.2005