चाँद आसमान को दो-तिहाई से ऊपर पार कर थकी-सी जम्हाई ले रहा था।
चांदनी की महीन चादर ओढ़े थार के टिब्बे मीलों पसरे पड़े थे। भोर का तारा अंधेरे दरवाजे के पीछे खड़ा बाहर निकलने का मौका तक रहा था। पूरा भैरवगढ़ गाँव, ढोर एवं पेड़-पौधे सभी निशादेवी की गोद में निश्चिंत पड़े थे।
तभी झाड़ पर बैठे कुछ बूढ़े मोरों ने जोर से कूक कर ढलती रात की सूचना दी। बुजुर्गों का अनुसरण करते हुए एक के बाद एक कई युवा मोर बोल उठे….पि…..आ…..ओ।
परदेस गये प्रियतम की विरहिणी की छाती में मानो कटार-सी लगी। घुटनों को ऊपर कर उसने तकिये को छाती से दबाया एवं मन ही मन मोरों को कोसा , कलमुंहे! यह भी कोई कूकने का समय हैे। क्या तुम्हें इतना भी होश नहीं कि अभी वो परदेस में हैं !
आशंकित नवब्याहे अल्हड़ युवकों ने अपनी प्रेयसियों को खींचकर अपने कठोर बाहुपाश में जकड़ लिया, न जाने कब इनकी नींद खुल जाये और घड़े उठाकर तालाब की ओर चलती बने। उनके विशाल नितंबों को अपने पाँव-पाश में बांधकर अधखुली आँखों से उन्होंने उनके पीन पयोधरों के मंगला दर्शन किये, फिर वहीं सर रखकर सो गये। यौवन लावण्य का सार है। प्रियतम की प्रेम भरी मुस्कान, रसमयी चितवन, रतनारे मादक नैन, भौहों के इशारे, कामातुर हाव-भाव एवं अमृत-सी मीठी वाणी ही प्रेमियों की सम्पत्ति है। भला कौन युवक इन्हें यूँ छोड़ देगा?
युवतियाँ कुछ देर चुपचाप उनके प्रेम पाश में बंधी रही वरन् और नजदीक होकर उनसे ऐसे लिपट गयी जैसे लतायें शाखाओं से चिपक जाती है। जब मर्द निश्चिंत हो गये तो एक-एक कर उनके बाहुपाश के नीचे से सरक कर चलती बनी। मूर्ख मर्द भला चतुर नारियों को कब पहचान पाये हैं ?
भंवरी के ब्याह को पन्द्रह दिन से ऊपर होने को आए। नई नौ दिन की। दस दिन बाद ही सास ने हिदायत दे दी थी, ‘अब गठिया के मारे मेरे पाँव नहीं चलते और तालाब भी ढाई कोस पर है। कल से तू ही पानी लाना।’ गत तीन रोज से लगातार वही पानी भरकर ला रही थी। वह तो भगवान का शुक्र है, उसके साथ ही ब्याह कर आई उसके गाँव की नाथी भी साथ पानी भरने जाती थी वरना अकेले इतना लम्बा रास्ता पार करते जान निकल जाये। नाथी से वह मन की बात तो कह सकती है।
भंवरी ने एक हाथ लम्बा घूंघट निकाला, सर पर ईडाणी रखी, फिर एक-एक कर तीन घड़े सर पर रखकर बाहर आई तो नाथी सामने ही खड़ी थी। उसी की तरह लंबा घूंघट निकाले एवं सर पर तीन घड़े रखे वह भंवरी का इंतजार कर रही थी। कल ही उसने नाथी को समझा दिया था, ‘मेरा दरवाजा नहीं खटखटाना, बुढ़िया टोके बिना नहीं रहेगी, एक नाथी है जिसे घर की इतनी चिंता है और एक तू बेशरम मर्द को पकड़े पड़ी रहती है।
दोनों ने तालाब की राह ली।
अकाल का लगातार चौथा साल था। अब धरती भी फटने लगी थी। वनस्पति, पेड़-पौधे सभी ठूंठ खड़े ऐसे लगते थे मानो मात्र चन्द्र किरणें पीकर जीने वाले वैरागी हों। कितने ही ढोर मर गये थे एवं कितनों ही की हड्डियां निकल आयी थी। थनों से अब दूध की बजाय खून टपकता था। गाँव के बाहर पशुओं के कंकाल इस तरह बिखरे पड़े थे मानो यम गाँव में आ बसा हो। आषाढ़ पूरा होने को आया पर पानी की एक बूंद भी नहीं बरसी। किसान आँखें फाड़े बादलों को तकते रहते, पर मेह भरे मेघ न जाने कहाँ छुपे पड़े थे। गाँव वालों ने जो बन पड़ा, किया। पण्डितों से यज्ञ करवाये, भोपों से झाड़ेे लगवाये, देवी-देवताओं को बलि दी पर मेघ अब भी रूठे थे। वह तो ईश्वर का शुक्र है कि थार में रातें ठण्डी होती है वरना सूर्यदेव तो दिनभर आँखें फाड़े अंगारे बरसाने पर आमदा थे।
इस बार ज्योतिषियों ने मूसलाधार मेह की भविष्यवाणी की तो किसानो की पथरायी आँखें चमक उठी। आशा उत्साह की जननी है। सभी ने अपने खेत, हल-बैल तैयार कर लिये। सभी के हृदय से एक ही पुकार उठ रही थी, ‘प्रभु! इस बार मेघ जम कर बरसे।’ बूढ़ी औरतें गीत गाकर मेघों को लुभाती ’ मेह बाबो आजा दूध रोटी खाजा’ यानि हे मेघ! हमारे गाँव से होकर गुजरो, तुम्हेें खीर में भिगोकर रोटी खिलायेंगे।
भंवरी और नाथी सरपट तालाब की ओर चली जा रही थी। नववधुओं की रसभरी बातों में भला कौनसे रास्ते लम्बे होते हैं। दोनों एक-सी पोशाक पहनी थी। दोनों का शृंगार भी एक-सा था। कमर पर कांचली, नीचे घाघरा, सर पर महीन ओढ़नी, पूरे हाथों को ढकता हुआ सफेद चूड़ा, माथे पर चांदी का बोर एवं पाँव में चांदी के कड़े। तेज श्वास के चलतेे दोनों के उद्दण्ड वक्ष कांचली में नहीं समाते थे। दोनों एक दूसरे को छेड़ती-इठलाती, हँसती-मुस्कुराती आगे बढ़ रही थी। पूरे रास्ते चांदनी बिछी थी। कहीं-कहीं मोड़ पर आवारा अंधेरा आँख चुराकर उन्हें देखने का प्रयास करता तो दोनों अपनी प्रथम दो अंगुलियों से घूंघट उठाकर रास्ता खोज लेती। युवतियों की अंग-कांति ही दिशाओं का अंधकार हर लेती। तब अंधेरा खिसियाकर रह जाता। दोनों की तेज चाल के साथ ऊपर नीचे होते वक्ष उनकी क्षीण कमर को भार के मारे विकल कर देते, अगर ऊँचे नितम्ब सहारा नहीं देते तो न जाने कमर की क्या दुर्गत होती ?
भंवरी नाथी से कुछ अधिक सयानी एवं चतुर थी। हँसकर नाथी से बोली, ‘बापू ने मर्द तो बांका ढूंढा, पर गाँव ऐसा देखा कि पानी लाते-लाते कमर टूट जायेगी।’
‘हाँ! आधी कमर तो रात में टूट जाती है बाकी पानी लाते-लाते टूट जायेगी।’ नाथी ने ऊपर के होठ से नीचे का होठ काटकर शरारत की। उसकी रतनारी आँखों में पिया प्रेम की मदिरा के प्याले छलक रहे थे।
‘चल बावरी ! तुम्हें शरम नहीं आती ऐसी बातें करते हुए !’ भंवरी मंद-मंद मुस्कुराते हुए बोली।
‘अरे, अब कौनसी शरम। शरम तो सारी मरद पी गया। यह तो वही बात हुई कि नटिनी बाँस पर चढ़कर घूंघट निकाले !’ नाथी ने यह कहकर अर्थपूर्ण आँखों से भंवरी की ओर देखा।
दोनों सखियाँ खिलखिलाकर हँस पड़ी।
हँसते-हँसते भंवरी चीखी, ‘ऊई नाथी! मेरी कांचली खुल गयी। दोनों वहीं रुकी। अपने घड़े उतारे। नाथी ने कसकर भंवरी की काँचली को बांधा। घड़े उठाते-उठाते नाथी ने तीर डाल ही दिया, ‘काँचली रात अच्छी तरह से नहीं बांधी थी क्या ?’
‘क्या करूं, मेरा तो हाथ नहीं पहुंचता और उस अनाड़ी को बांधना नहीं आता।’ भंवरी की आँखों में लाल डोरे तैरने लगे थे।
दोनों एक बार फिर खिलखिलाकर हँस पड़ी।
रास्ता यूँ कट गया। सामने ही तालाब था। दोनों ने घड़े वहीं रखे, नीम से दातुन किया, अपने वस्त्र उतारे एवं पानी में नहाने लगी। तालाब पर अब भी चांदनी बिछी थी। भोर का अल्हड़ तारा इस दृश्य को चोर आंखों से कब तक देखता ? अंधेरे दरवाजे को खोलकर वह भी बाहर आ गया। कामातुर आँखों से कुछ देर उसने इस दृश्य को निहारा तो उसकी आँखों की चमक बढ गयी। आनन्द के उल्लास से वह और तेज चमकने लगा।
नाथी और भंवरी दोनों ने स्नान कर वस्त्र पहने। एक-एक कर तीनों घड़े पानी से भर कर सर पर रखे एवं वापस गाँव की राह ली। सर पर बढे़ भार से सारी रसभरी बातें विलुप्त हो गई। अब तो बस किसी तरह घर पहुंचें एवं बोझ उतारें। अब रास्ता लम्बा लगने लगा। कुछ दूर चले ही थे कि दोनों की श्वासें चढ़ने लगी। एकाएक भंवरी को याद आया कि गाँव पहुंचने का एक और रास्ता है। उस रास्ते से गाँव कुछ कोस भर कम पड़ता है लेकिन रास्ते में जंगल है। उसने नाथी को यह बात बतायी। नाथी भी बोझ के मारे बेहाल थी, छोटे रास्ते का लोभ संवरण नहीं कर पायी।
‘अब कौन सा जंगल पड़ा है। सब कुछ तो सूख गया है।’ नाथी हाँफते हुए बोली।
दोनों आज नये रास्ते पर चल पड़ी।
कोई आधा कोस चले होंगे कि सामने एक दृश्य देखकर भँवरी की चीख निकल गयी।
‘उई माँ! यहाँ तो हिरण-हिरणी मरे पड़े हैं। ये तो कृष्णसार मृग दिखते हैं !’
दोनों वहीं ठिठक गई।
पास में एक छोटा-सा गड्ढा था जिसमें पानी भरा पड़ा था।
नाथी गहरे सोच में पड़ गई। ये दोनों मरे कैसे ? विस्मय से उसने अपनी सखी भँवरी से यूँ पूछा,
खड़्यो न दीखै पारधी,
लग्यो न दीखै बाण।
मैं थनै पूछूँ ऐ सखी,
किण विध तज्या पिराण।।
(अर्थात् न तो यहाँ आस-पास शिकारी दिखता है, न इनके बाण लगा है, प्यास से ये मर नहीं सकते, क्योंकि पानी पास में ही पड़ा है। फिर ये मरे कैसे?)
अपनी प्रिय सखी के मर्म भरे इस प्रश्न का चतुर भँवरी शीघ्र उत्तर ताड़ गयी। तब उसने उनके मरने की कहानी यूँ समझायी।
भाग-2
इसी जंगल में कृष्णसार जाति का एक हिरण एवं हिरणी का जोड़ा रहता था। दोनों के हृदय में एक दूसरे के प्रति अनन्य प्रेम था। हिरण का नाम कृष्णा एवं हिरणी का राधा था। दोनों हमेशा साथ-साथ रहते, एक साथ घास चरते और साथ ही पोखर पर पानी पीने जाते। कृष्णा कुछ पल भी इधर-उधर होता तो राधा विकल हो जाती। यही हाल कृष्णा का राधा के बिना होता। दोनों की जान एक दूसरे में बसती थी ।
दोनों एक दूसरे को हृदय से समर्पित थे। दोनों का अविचल और अटल-प्रेम जंगल भर में मशहूर था।
एक दिन चाँदनी रात में दोनों एक दूसरे से बतिया रहे थे। जंगल के पेड़-पौधों से छन-छन कर आ रही चाँदनी मानो अमृत कलश उँडेल रही थी। जंगल में बह रही ठंडी बयार दोनों के मन को ताज़गी से भर रही थी। प्रकृति ही जब काम-उद्दीपन पर तुली हो तो किसकी क्या बिसात ? काम मानो सारी मर्यादाओं का हरण करने पर आमादा था।
कृष्णा राधा को अपने सींगों से खुजाने लगा। प्रेम पुलकित राधा उस स्पर्श सुख का आनंद लेते हुए चुप बैठी थी। बहुत देर यूंँ ही मूक प्रेमालाप होता रहा। अंततः राधा संकोच-मिश्रित अभिलाषा से अपने प्रियतम को निहारने लगी। कृष्णा मानो उसके प्राण, मन और आत्मा का अपहरण कर रहा था। राधा की विकल दशा देख कृष्णा ने प्रेम-पगी आँखों से उसे निहारा। यूँ निहारते-निहारते ही दोनों विदेह हो गये। दोनों का प्रेम कब तुरीय तत्व को छू गया, पता ही नहीं चला। बाद में थके हारे दोनों ने तालाब में आकर जल-क्रीड़ा की।
अभी वे जल-क्रीड़ा कर बाहर आये ही थे कि दोनों घास में छुपे एक शेर को देखकर सहम गये। राधा डर के मारे थर-थर काँपने लगी। तभी शेर जोर से दहाड़ा। कृष्णा जानता था कि वह शेर के हाथ हरगिज नहीं आयेगा। उसे अपनी दौड़ पर पूरा भरोसा था पर राधा डर के मारे वहीं ठिठक गयी। उसके पाँव धरती से चिपक गये, इंद्रियाँ जड़वत् हो गयी। तभी शेर दहाड़ मारते हुए राधा की ओर बढ़ा। आज कृष्णा के प्रेम की परीक्षा थी। वह चाहता तो आराम से भाग कर अपनी जान बचा सकता था पर राधा को अकेले इस हालत में छोड़कर कैसे भाग सकता था ? आज उसने अपनी प्रेयसी के साथ ही मरने का निश्चय कर लिया। मैं मर्द हूँ, राधा की रक्षा मेरा धर्म है-पहले मैं मरूँगा। शेर के आगे बढ़ते ही कृष्णा ने साहस कर शेर के मुँह पर जोर से सींग मारे। संयोगवश एक सींग शेर की आँख में घुस गया। एक आँख फूटते ही शेर जोर से चीखा तभी राधा ने देखते-ही-देखते अपने सींग शेर की दूसरी आँख पर मारे। पलभर को मानो शेर अँधा हो गया। वह पंजा मारता तब तक दोनों भाग खड़े हुए।
दोनों तेजी से भागे जा रहे थे। जंगल में बहुत दूर पहाड़ी के नीचे एक छोटी-सी कंदरा थी। दोनों उसी में घुस गये। हाँफते-हाँफते दोनों की साँस फूल रही थी। निढाल होकर दोनों वहीं बैैठ गये। साँस थमी तो राधा ने कहा, ‘आज तुम हिम्मत कर शेर की आँख में सींग नहीं मारते तो मैं मर ही जाती।’
‘ऐसा न बोल राधा! कृष्णा प्राण रहते तुम्हें पहले नहीं मरने देगा। वह जीवन ही क्या जिसमें राधा न हो। तुम्हारे बिना तुम्हारी याद में रोते-रोते मैं यूँ ही मर जाता। फिर तुमने भी तो अपने सींग मारकर मेरी जान बचायी है।’
‘तुम तो अकारण ही इतना यश देते हो। आज दूसरा मर्द होता तो भाग खड़ा होता। सब अपनी जान पहले बचाते हैं।’
‘मेरी जान तो तुम हो राधा ! मेरा तोे श्वास-श्वास, रोम-रोम तुम्हारा है। भगवान करे पहले मैं मरूँ ताकि मुझे तुम्हारा विरह न देखना पड़े।’
उस दिन के पश्चात् दोनों का प्रेम दिन दूना रात चौगुना बढ़ने लगा।
एक बार दोनों पहाड़ी की चोटी पर हरी घास चर रहे थे कि राधा को दूर एक चीता दिखा। उसने तुरन्त कृष्णा को इशारा किया, दोनों ने ऐसी दौड़ लगाई कि चीता जाने कहाँ छूट गया। उस रात दोनों उदास बैठे भगवान को कोस रहे थे। कृष्णा चुप्पी तोड़कर बोला, ‘भगवान ने हमारी जाति को यूँ मरने के लिए ही पैदा किया है क्या ? भगवान के घर भी कैसा अंधेर है ? हम किसी को नहीं मारते पर जिसे देखो हमारी जान के पीछे पड़ा रहता है। जंगल में कोई ऐसा जानवर नहीं जिसे हमारी तलाश न हो। कभी शेर तो कभी चीता, तो कभी दूसरे हिंसक जानवर, यहाँ तक कि आदमी भी धनुष-बाण अथवा बंदूक लिये हमें ढूँढता रहता है। यूँ डर-डर कर कब तक जियें। जंगल में निकलते हैं तो अगले पल का भी भरोसा नहीं होता।’
‘सही कहते हो कृष्णा! जंगल के सभी हिंसक प्राणी तो अपनी रक्षा कर लेते है पर हमें भगवान ने इतने तेज पंजे और बल नहीं दिया, अन्यथा हम भी अपनी रक्षा कर लेते। जंगल राज में अहिंसा का कोई मूल्य नहीं।’
‘यहाँ तो जो जितना हिंसक है, वह उतना ही जीता है।’ कृष्णा गहरी साँस भर कर बोला।
यूँ दुख बाँटते-बाँटते दोनों जाने कब सो गये।
साल-दर-साल बीतते गये। पिछले तीन वर्षों में जितनी गर्मी पड़ी उतनी तो कभी नहीं पड़ी। जंगल में एक-एक कर जानवर मर रहे थे। दुर्भिक्ष काल बनकर जंगल पर छाया हुआ था। पेड़ ठूंठ हो गये, घास ढूंढे नहीं मिलती। सारे पोखर सूख गये। जानवर दिन भर इधर-उधर तकते, बस जैसे-तैसे गुजर होता। सभी जानवर आदमियों की बस्ती के पास आकर चुपके से अपनी प्यास बुझाते।
इन्हीं दिनों एक बार कृष्णा और राधा प्यास के मारे बेहाल हो गए। जंगल छान मारा पर पानी कहाँ था। गाँवों की बस्तियों में जाते तो शिकारी मार देते। पर आज तो वैसे ही मरण था। हताश दोनों गाँव की ओर आए तो उन्हें एक छोटे गड्ढे में पानी दिखा। पानी इतना भर था कि दोनों मेें से एक अपनी प्यास बुझा सकता था।
दोनों गड्ढे के पास आकर ठिठक गये। आज फिर दोनों की प्रेम परीक्षा थी। राधा ने कृष्णा से कहा, ‘कृष्णा! यह पानी तुम पी लो, तुम सुबह से प्यासे हो।’
‘नहीं राधा! पहले तुम। जब तक तुम प्यासी हो, मैं पहले कैसे पी सकता हूँ !’
‘तुम्हें मेरी कसम है !’ राधा आग्रह भरी आँखों से देखकर बोली।
‘तुम्हें भी मेरी कसम है !’ कृष्णा ने उसी आग्रह से उत्तर दिया।
दोनों कई देर खड़े एक-दूसरे की मनुहार करते रहे। पानी के मारे होठ और अंतड़ियाँ सूख रही थी पर कोई भी पहले पानी पीने को तैयार नहीं था। प्राणों पर बन आयी थी, प्राणरक्षक पानी सामने था पर प्रेम के अधीन दोनों एक-दूसरे की मनुहार किये जा रहे थे। प्रेम की घड़ियाँ तो जीवन में कितनी ही बार आयी पर आज त्याग की घड़ी थी। त्याग की पराकाष्ठा ही तो प्रेम है। एक-दूसरे की मनुहार करते दोनों परम दिव्य भाव में स्थित हो गये।
भाग-3
तब चतुर भँवरी नेे यह कहकर नाथी के मर्म भरे प्रश्न का उत्तर दिया –
जल थोड़ो नेहो घणो,
लग्यो प्रीत रो बाण।
तूं पी तूं पी कैवता,
दोनों तज्या पिराण।।
अर्थात् जल कम था और नेह अधिक। दोनों ने तू पी…..तू पी कहते-कहते प्राण त्याग दिये।
कहानी कहते-सुनते बहुत समय हो चुका था। सूर्य अब ऊपर चढ़ आया था। दोनों गाँव में पहुँचकर अपनी-अपनी फूस की झोंपड़ियों में घुसीं।
भँवरी की सास की आँखों से अंगारे बरसने लगे थे। देखते ही बोली, ‘अरे करमजली! घर में बूंद भर पानी नहीं है, तूने तो अपनी प्यास रास्ते में बुझा ली होगी। सास के मरने की राह देख रही थी क्या ?
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