उसका असली नाम तो ‘प्रियरंजन’ था, पर उसकी हरकतों, शरारतों या यूँ कहिए उसके पैदा होने के बाद हादसों का ऐसा सिलसिला चला कि सभी उसे ‘यमराज’ कहने लग गए। उसके पैदा होने के बाद से ही पुश्तैनी अनाज के धंधे में ऐसी मंदी चली कि वर्षों की जमी दुकान उखड़ गई। कोई पाँच वर्ष का रहा होगा कि माँ-बाप का रेल दुर्घटना में निधन हो गया। वे हरिद्वार गंगास्नान हेतु जा रहे थे। प्रियरंजन भी साथ था पर उसे खरोंच तक नहीं आई। वह सपाट बच निकला। बच्चे पर दया कर नानी उसे साथ ले गई, मुश्किल से एक वर्ष ननिहाल रहा होगा, लेकिन दुर्भाग्य! यहां भी छः महीने बाद नाना का निधन हो गया, एवं इसी गम में कुछ माह पश्चात नानी भी चलती बनी। एक मामा था पर उसके खुद का भरा पूरा परिवार था, तीन बेटियां एवं एक बेटा। पहले ही परिवार बड़ी मुश्किल से पलता था तिस पर प्रियरंजन, कोढ़ में खाज की तरह आकर रहने लगा था। मामी को सर पर मेंढक लगता था। मामी ने एक दिन स्पष्ट कह दिया, ‘‘इसे इसके बड़े भाई दिनेश के पास भेज दो वहां लोक-लाज में पल जाएगा। जग हँसाई से सब डरते हैं।’’ मामा ने बीवी का आदेश शिरोधार्य कर चुपके-से विदा किया। दिनेश से मिलने के बहाने एक दिन गांव आया और वहीं छोड़ गया।
दिनेश उससे उम्र में बीस वर्ष बड़ा था। चार वर्ष पहले ही उसकी शादी सुशीला से हुई थी, अब परिवार बढ़ गया था। इन्हीं वर्षों में उसे दो पुत्रियों का इजाफा हुआ, तीसरे की तैयारी थी। इस बार सभी पुत्र की उम्मीद कर रहे थे लेकिन भाग्य के आगे किसका वश है, इस बार भी पुत्री हुई। उसका नाम ‘गरिमा’ रखा गया।
सुशीला नाम के ठीक विपरीत स्वभाव से तुनकमिजाज एवं बड़बोली थी, उसके व्यंग्य-बाण हृदय विदारक होते थे। तीसरी पुत्री होने के बाद और बिगड़ी-सी रहती। जुबान से विष बुझे तीर ही छोड़ती। वाणी बर्छी की तरह चलती थी। वह जब भी बोलती, दिनेश घर से बाहर निकल जाता। कहाँ मृदुभाषी, शालीन एवं सहिष्णुता की तस्वीर दिनेश और कहाँ सुशीला! पर जोड़े तो ऊपर से ही उतरते हैं, यहां तो सिर्फ भुगतते हैं।
जिस दिन मामा प्रियरंजन को छोड़ गया वह उसे देखते ही बिफर पड़ी, ‘‘अब एक और पालो, माँ-बाप बुढ़ापे में पैदा करके मेरी जान को छोड़ गए। जबसे पैदा हुआ है बला ही बला आ रही है। पहले धंधा बरबाद हुआ, फिर माँ-बाप को खा गया, नाना-नानी के यहाँ गया, वो भी नहीं रहे, अब हमारे यहाँ क्या कयामत ढाने आया है यह यमराज!’’ दिनेश ने मध्यस्थता करते हुए अपनी भार्या को चुप रहने को कहा, पर सुशीला रुकती कहां थी। वाचाल स्वभाव से विवश होते हैं।
खैर! बाद में न जाने क्या हुआ उसका नाम यमराज ही पड़ गया। उसके बाल मन पर भाभी के स्वागत वाक्यों का इतना गहरा असर पड़ा कि वह भी धीरे-धीरे हठी एवं जिद्दी हो गया। स्वच्छ पानी पर गाढ़ी काई जम गई। अब उसको इस नाम से पुकारा जाने पर कोई आघात नहीं लगता। बुराई जल्दी चिपकती है। मौहल्ले के बच्चे, बड़े-बूढ़े एवं यहाँ तक स्कूल में भी उसके सहपाठी उसे यमराज कह कर पुकारते। गली मौहल्ले में कोई मर जाता तो लोग मजाक करते, कल यमराज इधर से गुजरा था। उसका बाल हृदय इन सब बातों को बलात् सहन तो कर लेता पर उसके मस्तिष्क में कहीं गहरे एक कुण्ठा ने डेरा डाल दिया।
मौहल्ले में बच्चों के साथ वह खूब खेलता, फिर हारा-थका, थाली पर गणेश की तरह आकर बैठ जाता। उससे भूख जरा भी बर्दाश्त नहीं होती। तरह-तरह के पकवान बनते तो उसका मन और भी ललचा जाता। घर-बाहर के काम में जरा भी हाथ नहीं बँटाता, पर खाने में अव्वल। खाना बनने की सुगंध आते ही वह थाली लेकर चौके के बाहर बैठ जाता। भाभी को जलाने के लिए धीरे-धीरे चम्मच से थाली बजाता रहता। थाली चम्मच का यह स्वर सुशीला को युद्ध के नगाड़े की आवाज लगता। सुशीला उसे खरी-खोटी सुनाती, ‘‘न काम का न धाम का, बस चरने आ जाता है। कुछ नहीं तो इन बच्चों को ही खिला लाया कर। चौथी जमात में आ गया है पर लक्षण मूर्खों के ही हैं। कभी अपना रिपोर्ट कार्ड भी देखा है? हर बार जैसे-तैसे पास होता है। खेल और खाने के अलावा भी कोई काम है या नहीं। तुमसे तो ये बच्चियां, सरला और सुधा ही अच्छी, हमेशा अव्वल आती हैं। तुम तो निपट पशु ही ठहरे।’’ यमराज पर कोई असर नही होता वरन् चिकने घड़े की तरह वह सब सुनता रहता। भाभी के तानों का सारा गुस्सा वह खाने पर निकालता। चार-पाँच रोटी तो यूँ चट कर जाता। फिर भी उसकी उदर-क्षुधा शांत न होती। अन्त में भाभी ही कहती, ‘‘अब उठ भी जा, बच्चे इससे ज्यादा नहीं खाते, पेट में कीड़े पड़ जाएंगे।’’ वह तमक जाता, खाने में व्यवधान उसे जरा भी सहन नहीं होता, वह उल्टा जवाब देता, ‘‘ भाभी, कीड़े पड़े तुम्हारी जुबान में, मेरा पेट तो अच्छा भला है। अब बैठा हूँ तो भूखा तो उठूंगा नहीं। तुम्हारे पीहर का धान नहीं आता है इस घर में, मेरा भाई कमाता है। मेरे माँ-बाप भी फकीरी में नहीं मरे हैं। खाना खाते वक्त टोका मत कर। खिला-पिला कर सही रखोगी तो मैं ही एक दिन काम आऊंगा।’’ उसके जवाब सुशीला की क्रोधाग्नि में घी का काम करते। उसके बाद मोटी-मोटी रोटियाँ आती। सुशीला मन ही मन कुढ़ती, यह नासपीटा कहाँ पल्ले पड़ गया! ज्यादा कहूंगी तो मौहल्ले में बदनाम करेगा। सब यही कहेंगे माँ-बाप मर गए तो भाभी जुल्म ढा रही है। मुआ, अपने करमों को खुद एक दिन भरेगा।
दिनेश पास ही सैकेण्डरी स्कूल में अध्यापक था। पगार इतनी ही थी कि बस गुजर हो जाता। चार सेर के पात्र में छः सेर कैसे समाते ? हर वक्त पैसे की कश्मकश रहती। मास्टर की तनख्वाह हर साल कितनी तो बढ़ती है। लेकिन दिनेश शांत, गंभीर व्यक्ति था। बीवी की खरी खोटी भी सुनता एवं भाई को भी कभी नहीं टोकता वरन् कभी-कभी उसे प्यार से बुलाकर अपने पास बिठाता, उसके सिर पर हाथ फेरता , उसे समझाता, ‘‘पढाई-लिखाई तेरे ही काम आएगी एक दिन। क्यों सारे दिन खेलता रहता है? पढ़ेगा तो साहब बनेगा, नहीं तो घोड़े चराएगा।’’ यमराज चुपचाप सुनता रहता। अपने भाई के सामने कभी नहीं बोलता पर भाभी से उसके छत्तीस का आँकड़ा था। यमराज को भाई की राय तो अच्छी लगती पर विद्या उसके दिमाग में चढ़ती ही नहीं थी। बड़े भाई की बात उसको तर्कसंगत भी नहीं लगती थी। वह अक्सर सोचता, पढ़ लिखकर भाई साहब ने क्या कमाया? नौकरी में जो कुछ लाते हैं उससे एक परिवार का पेट भी नहीं भरता। उसका स्वप्नलोक तो कहीं और ही था।
बचपन कब पीछे रह जाता है पता ही नहीं चलता। यमराज अब सोलह वर्ष का हो गया था। जैसे तैसे उसने सैकण्डरी पास की, दो विषयों में तो ग्रेस मार्क्स से उत्तीर्ण हुआ। घर आया तो भाभी ने रिपोर्ट कार्ड माँगा।
सुशीला : ‘‘यमराज जरा रिपोर्ट कार्ड तो बताना।’’
यमराज : ‘‘क्या करोगी रिपोर्ट कार्ड देखकर? तुम खुद भी तो दसवीं फेल हो।’’
सुशीला : ‘‘मैं तो औरत जात हूँ, हमें तो चूल्हा-चौका करना है, पर तुम्हें तो खाना कमाना है। सारी उम्र यहीं मूंग दलेगा क्या? रिपोर्ट कार्ड बताने में कैसी शर्म ? ’’
यमराज : ‘‘दिनेश भाई आएगा तब दिखा दूंगा। मेरा रिपोर्ट कार्ड, मैं पढे़-लिखों को ही बताता हूँ।’’
रिश्तों का देवासुर संग्राम और भयानक होता। सुशीला को जैसे किसी ने काट खाया हो, लगा जैसे किसी ने वज्र प्रहार किया हो। उसकी त्यौरियां चढ़ी, तमक कर बोली, ‘‘हरामखोर कुछ करता-धरता तो है नहीं, ऊपर से आँख दिखाता है। इतनी ही खुद्दारी है तो खुद क्यों नहीं कमाता। यहां मुफ्त की क्यों तोड़ता है, आधा आटा तो तेरे लिए ही गूंथती हूँ।’’ इतनी बात यमराज की सहनशक्ति के बाहर थी। वह फुंफकारते हुए यह कहकर चला गया, ‘‘अब मैं तेरे हाथ का खाना, खाने वाला नहीं।’’ सुशीला और बिगड़कर बोली, ‘‘जा, जा मुए, तेरे जैसे कई देखे है! तेरे से कभी भूख सहन हुई है?’’ इस बार यमराज ने पीछे मुड़कर नहीं देखा।
उसने सीधी जयपुर की राह ली। गांव काफी अंदर था। दो मील पैदल चला फिर जयपुर की बस पकड़ ली। घर की अलमारी से उसने सौ का नोट लेकर खीसे में रख लिया था। उसका मन इतना आहत था कि उसने सूचना देना तक मुनासिब नहीं समझा। आवेश और क्रोध में भरा इंसान जिन पगडण्डियों को देखता है, उसी मार्ग को पकड़ लेता है। वह यह नहीं सोच पाता कि मार्ग उसे कहाँ ले जाएगा, वह विधाता के अधीन हो जाता है। युवावस्था में आत्मविश्वास होता है उसे किसी अवलंब की परवाह नहीं होती। भावी भयावह परिस्थितियाँ उसके चाल की गति और बढ़ा देती है।
जयपुर आकर उसने शहर के बाहर ही एक ढाबे में नौकरी की। वहीं काम करता, वहीं खाना खाता, वहीं सो जाता। धरती उसका बिछौना होती एवं आसमान चादर। हवाएँ उसे थपकियाँ देकर सुलातीं। अब वह पहले वाला यमराज नहीं था। जबसे भाभी से लड़कर आया, उसके मन की भूख ही मर गई। उसे काम के सिवा कुछ ना सूझता। ढाबे का मालिक एक कुंवारा बुड्ढा था, न जाने कब हरिद्वार से आकर जयपुर बस गया था। उसे भी वर्षों पहले किसी ने ऐसे ही प्रताड़ित कर घर से निकाल दिया था। यमराज का दुख उसे अपने जैसा ही लगता था। हमगम हमसाया बन गया। उसे यमराज पर स्नेह उमड़ आया। अब वो असहाय भी हो गया था, उसने धीरे-धीरे सारा ढाबा यमराज के हवाले किया एवं एक दिन परलोक की सुध ली। ढाबे की लम्बी चौड़ी जमीन वह मरते हुए यमराज के नाम कर गया।
जब से ढाबा यमराज के हाथ लगा उसकी किस्मत बदल गई। पास हीे बैंक से लोन लेकर उसने इसे आधुनिक स्तर में ढाला। नई कुर्सियां, टेबल, फ्रीजर, चमकते फानूस एवं लाइटों की व्यवस्था की। ढाबे का रंग बदल गया। अब यहां बड़े-बड़े रईस अपनी कारों में आने लगे। ढाबा बड़े लोगों की नजरों में चढ़ गया। जिस मार्ग पर बड़े आदमी चलते हैं, वही मार्ग बन जाता है। शहर की घुटन से दूर सांस लेने को यहां लोगों का हुजूम लग जाता।
यमराज के पौ बारह हो गए। अब उसे एक पल की फुरसत न थी। शहर बढ़ने के साथ उसकी जमीन के भाव भी आसमान छूने लगे। बढ़ती आमदनी के साथ उसने एक आलीशान कार खरीदी एवं वहीं कोठी बना ली। दिन गुजरने लगे। काम बढ़ने के साथ-साथ कई मुलाजिम, नौकर -चाकर उसके यहां काम करने लगे। दिन-रात ग्राहकों का तांता लगा रहता। ढाबा सोना उगलने लगा। अब वह एक धनी मानी व्यक्ति था पर था निपट अकेला। रात जब भी सोता अतीत तन्हा-तन्हा दस्तक देता, उसे अपने भाई-भाभी, सरला, सुधा व गरिमा की याद आती। सोचता भाई-भाभी की क्या दशा होगी? सब कैसे होंगे? मुझे भैया को तो बताकर आना ही चाहिए था। उन्होंने मेरा क्या बिगाड़ा था ? उनका सरल, शीतल एवं स्नेहपूर्ण चेहरा याद आते ही उसकी आँखें छलछला आती। उनका विशाल हृदय उसके प्रेम-वंचित हृदय को तसकीन देता। वह उनकी छवि में धैर्य एवं सहिष्णुता की प्रतिमा के दर्शन करता। एक-दो बार उसने जाने की भी सोची पर उसका ज़मीर उसे इजाजत न देता था। उस पर हठ और पांवों में बेड़ी डालती। गांव छोड़े उसे अब तीन वर्ष हो चुके थे।
इन्हीं दिनों एक रोज रेस्टोरेन्ट में एक लड़का आया, उम्र कोई बीस वर्ष। रेस्टोरेन्ट के बाहर उधर से गुजरने वाली एक बस खराब हो गई अतः यात्री रेस्टोरेन्ट में चले आए थे। यमराज काउन्टर पर ही बैठा था। उसने यमराज को देखा और अवाक्-सा रह गया। दोनों ने देखते ही एक दूसरे को पहचान लिया। दोनों बाल-सखा थे। सज्जनसिंह देखते ही चिल्लाया, ‘‘तु…म यमराज! यहां पर?’’ यमराज गद्गद हो उठा। दोनों के हृदय के तूफान थमे तो उसने बताया कि दो माह पूर्व हृदयघात से उसके बड़े भाई दिनेश का निधन हो गया है। उसकी भाभी एवं बच्चे घोर विपत्ति में है एवं अनाथों-सा जीवन बिता रहे हैं। यमराज की आँखों से अविरल आँसू बह निकले। जैसे लक्ष्मण से उसका राम बिछुड़ गया हो, नियति ने ये दुःख भी उसके नसीब में लिखा था।
वक्त ने पगड़ी उसके सिर पर रख दी थी। वह संज्ञाहीन हो गया। उसकी सारी मर्मांतक व्यथा, विरोध, क्रोध एवं नैराश्य एक पल में समाप्त हो गए। मन का विष औषधि बन कर उभर आया। नौनिहाल अब कवच बनकर खड़ा हो गया , जमा रक्त प्रवाह उद्रेक हो उठा। संवेदनाओं की आंच में मन की बर्फ पिघल गई। अब वही नाव का एकमात्र खेवैया था। उसने अपने ही तरीके से भाई को श्रद्धांजलि देने की ठान ली। उनके अहसान एवं स्नेह अभी भी उसके हृदय में बसे थे। अच्छी यादें सदैव स्मृति में रहती हैं। स्नेह का सूर्य घृणा के समस्त तिमिर को हर लेता है। उसने सज्जनसिंह से बस से अपना सामान लाने को कहा और बोला, ‘‘कल सुबह हम दोनों कार में साथ गाँव चलेंगे।’’
गाँव वहां से आठ घण्टे के रास्ते पर था, काफी दूर। फिर रास्ते में कच्ची सड़क भी थी। ज्यों-ज्यों गाँव नजदीक आता, उसे अपना बचपन नजदीक आता लगता। अतीत आँखों के सामने फिरने लगा। शैशव अपनी सारी मधुरता के साथ ताजा हो गया। ये खेत, ये खलिहान, रास्ते, चौपाल एवं मंदिर सब परिचित से लगते। वो सभी उसे पुकारते हुए से लगते। इंसान अगर जड़ वस्तुओं से इस तरह जुड़ा होता है तो चैतन्य से कैसे विलग हो सकता है? निर्जीव वस्तुएं भी जब नहीं छूटती तो सजीव से बिछोह कैसे संभव है? उसे बचपन तेज आवाज से पुकारने लगा।
दोपहर होते-होते वे गांव पहुंचे। सूर्य सर पर चढ़ आया था। शहरों में गाड़ी वालों को कोई नहीं देखता, पर गाँव में गाड़ी आती है तो सबकी नजर उस पर होती है। गाड़ी सीधी दिनेश के घर के आगे रुकी। यमराज सीधा भाभी के पास गया एवं उसके पाँव छूए। भीगी आँखों से सुशीला ने उसे गले से लगा लिया, ‘‘अरे, ऐसा भी क्या कह दिया था प्रियरंजन ! तुम तो घर से ही चले गए। तुम्हारे जाने के बाद तुम्हारे भैया एक दिन भी ठीक नहीं रहे। हमने तुम्हें कहां-कहां नहीं ढुँढवाया पर हमारे नसीब खोटे थे। मैंने तुम्हें खरी खोटी कह दी तो क्या हो गया? तुम्हारी माँ होती और वो ऐसा कहती तो क्या तुम ऐसे ही चले जाते?’’ यमराज की आँखें तर हो गई। सामने दिनेश की तस्वीर लगी थी, जैसे शांति, प्रेम और आशीर्वाद की सुधा बरसा रही हो। भाई की तस्वीर देखकर वह फूट-फूट कर रो पड़ा। सरला, सुधा, गरिमा सभी उससे लिपट कर बिफर पड़े। उनके आँसू थमते न थे। सारे गाँव में यमराज के आने की खबर फैल गई। इस बार वो सबका प्रियरंजन बनकर आया था, उसे अभी अन्न का मूल्य चुकाना था। भाभी का खिलाया खाना रक्त बनकर उसकी जिम्मेदारी को पुकार रहा था। उसे अब इस सूखे बाग को गुलजार करना था।
दूसरे ही दिन गाड़ी सारे परिवार को लेकर जयपुर के लिए निकल गई। पीछे सिर्फ यादों के गुबार थे।
दुनिया नदी-नाव के संजोग से बंधी है। मिट्टी के ठीकरे भी यहां कुल दीपक बन जाते हैं। कभी-कभी ‘यमराज’ भी यहां प्राणदान करने आते हैं।
………………………………
29.11.2002