संकल्प

जो पीड़ा पंछी को पंख कटने पर अथवा घोड़े को टांगो से लाचार होने पर होती है, उससे कहीं अधिक पीड़ा का अनुभव आज नलिनी कर रही थी। समय अनुकूल होने पर कदाचित पंछी के नये पंख उग आये, लाचार घोड़ा भी ठीक हो जाये पर नलिनी के लिए अब ऐसी कोई संभावना नहीं बची थी।

अपने प्राणवल्लभ पति की चिता को स्वयं के सम्मुख जलते देख किस पत्नी की मनोदशा ऐसी नहीं होगी?

अभी तो नलिनी की उम्र ही क्या थी। चार माह पूर्व ही उसने चालीस पार किये थे। उसकी दोनों बेटियों की उम्र भी पन्द्रह वर्ष से अधिक न होगी। मधुसूदन का व्यवसाय भी एक दशक के कठोर संघर्ष के बाद गत एक वर्ष से पटरी पर आया था। दोनों मियाँ-बीवी इन दिनों आर्थिक-सामाजिक स्तर पर सुकून महसूस करने लगे थे लेकिन दुर्भाग्य! किसे पता था हाल ही खरीदी जिस कार को देखकर सभी आनन्दमग्न हुए थे वही मधुसूदन के लिए जानलेवा बन जायेगी। नलिनी कोसे भी तो किसे, नशे में धुत्त उस ट्रक ड्राइवर को जिसने मधुसूदन की गाड़ी को इतनी भीषण टक्कर मारी कि मरने के पूर्व वह एक शब्द भी नहीं बोल सके अथवा अपने भाग्य को जिसने असमय उससे मुँंह फेर लिया।

नलिनी एवं उसकी दोनों बेटियाँ नीतू एवं स्वाति ने घर वालों के तमाम विरोध के बावजूद न सिर्फ मधुसूदन की अरथी को कंधा दिया, उसकी चिता प्रज्वलित करने की औपचारिकाताएँ भी सम्पन्न की। नलिनी ने अब तक किसी मुद्दे को लेकर घर के बुजुर्गों का शायद ही कभी विरोध किया हो। वह स्वयं एक संस्कारित गृहिणी थी एवं अपनी सीमाओं से खबरदार थी लेकिन आज उसने किसी की नहीं सुनी। कुछ माह पूर्व अखबार पढ़ते हुए मधुसूदन के शब्द अब भी उसके कानों में गूंज रहे थे, नलिनी! हमारे बेटा न सही पर मुझे कुछ हो जाए तो तुम एंव बेटियाँ कंधा देकर श्मशान तक अवश्य जाना। इस अन्तिम यात्रा को भी मैं ठीक वैसे ही तुम सबके साथ करना पसन्द करूँगा जैसे जीवन के सभी सुख-दुःख हमने साथ जीये हैं। यह सुनकर नलिनी बोली कि ऐसी बहकी-बहकी बातें क्यों कर रहे हैं तो मधुसूदन मुस्कुराकर बोले, ‘अखबार के शोक-संदेश तो देखो। पूरा पृष्ठ भरा पड़ा है। बूढे़-जवान-अधेड़ सभी के तो समाचार हैं। कौन जाने कल इस पेज पर हमारा नाम भी छप जाये।’

नलिनी तब रूठकर रसोई में चली गई थी।

किसे पता था कौतुकवश मधुसूदन द्वारा कहे इन शब्दों पर सरस्वती यूँ बैठ जायेगी। सद्व्यवहार से आपूरित एवं मधुर वचन बोलने वाले सज्जनों की जिव्हा पर ही क्या उसका बसेरा है?

एक पेड़ के नीचे नीतू एवं स्वाति के साथ बैठी नलिनी प्रज्वलित चिता को देख किस झंझावत से गुजर रही थी, वही जानती थी। जिस देह से इतना प्यार किया, जिस देह ने इतना प्यार दिया, जिसके क्षणभर दुःखी होने से नलिनी एवं जो उसकेे क्षणभर दुःखी होने से परेशान हो उठता था, जिसके साथ उसने यौवन के महत्वपूर्ण बीस वर्ष गुजारे, आज वही उसकी आँखों के आगे चिता में भस्म हो रहा था। नियति कितनी निष्ठुर एवं देव कितना दुर्दांंत हैं।

मधुसूदन का प्रेम, सद्भाव एवं सदैव मुस्कुराने वाले चेहरे को याद कर नलिनी के आँसू थमते ही न थे। वह रह-रहकर चिता की ओर देखकर मन-ही-मन कहती, मधुसूदन! ऐसा क्यों हो गया ? यह तो सरासर धोखा हुआ ना ? तुम तो बीच राह छोड़कर यूँ चले गये मानो मैं तुम्हारी कुछ भी न थी। तुम्हारे बिना कैसे गृहस्थी का बोझ उठाऊंगी ? बिना अनुभव कैसे तुम्हारे व्यवसाय को संभालूंगी? बच्चों की परवरिश कैसे होगी? ऐसे अनंत प्रश्न उसके मस्तिष्क में बिजलियों की तरह कौंध रहे थे। वह संयत होने का प्रयास करती पर पुनः वही प्रश्न उस पर औसान जमा लेते। वह पुनः चिता की ओर देखती और कहती मधुसूदन! क्या तुम नहीं जानते थे कि पतिविहीन स्त्री का जीवन कंटकाकीर्ण बन जाता है? उसके बिना स्त्री का कोई नहीं रहता। सारे नाते उसके होने तक के हैं। स्त्री के सारे सुख पति के साथ हैं। उसके बिना यह समाज शोक-स्थान के अतिरिक्त कुछ नहीं। सोचते-सोचते मधुसूदन के स्नेहिल व्यवहार का स्मरण कर वह पुनः चिता की ओर ऐसे देखती मानो उस चिता में मधुसूदन नहीं वह जल रही हो। वह फिर-फिर चिता की ओर देखकर प्रश्न करती, प्रिय! तुमसे तो मेरा पलभर वियोग भी सहन नहीं होता था, मुझे जरा-सी व्यथित देख तुम क्या-क्या उपाय नहीं करते थे, आज फिर तुम्हें यह क्या हो गया है? तुम्हारे बिना जीने से तो यही अच्छा है कि मैं भी प्राण त्याग दूँ। कदाचित इससे मेरे दुःखों का अन्त हो जाये। इन्हीं विचार-वर्तुलों के चलते नलिनी की हिचकियाँ बंध गई।

चिता जलते हुए अब आधा घण्टा बीत चुका था। देह देहांतर में विलीन होने की प्रक्रिया में थी। नलिनी वहीं स्तब्ध बैठी थी। उसकी दशा ऐसी थी मानो हाल ही खिली कमलिनी पर यकायक पाला पड़ गया हो। बुझा, कांतिहीन चेहरा स्वयं उसकी करुण कथा कह रहा था।

खुदा हर जगह क़ादिर है। यकायक नलिनी ने अपने कंधे पर किसी का स्नेहिल स्पर्श महसूस किया। वह चौंकी एवं चीखकर बोली, ‘तुम कौन हो? तुम दिखते क्यों नहीं?’ उसने गर्दन घुमाकर क्षणभर के लिए इधर-उधर देखा। सभी को मानो किसी ने स्तंभित कर दिया था। ऐसे में कोई कैसे सुनता ? तभी एक धीर-गंभीर आवाज आई, ‘मैं इस श्मशान का देव हूँ। दुःख की घड़ी में मुझे अपना मित्र ही समझो।’ नलिनी इस आवाज को सुनकर सहम गई। कुछ क्षण की चुप्पी के बाद दोनों में पुनः वार्तालाप होने लगा।

‘मित्र हो तो सामने क्यों नहीं आते? क्या तुम्हें मेरी व्यथा का बोध नहीं? क्या तुम नहीं जानते मुझ पर कैसी विपत्ति आन पड़ी है?’ कहते-कहते नलिनी के कपोलों पर नदी में आई बाढ़ की तरह अश्रु बह गए।

‘इस अनित्य संसार में सभी नाशवान है नलिनी! यहाँ सभी मृत्युधर्मा है। जैसे नदी अंततः समुद्र में विसर्जित होती है हर जीव भी मृत्यु को प्राप्त होता है। तुम्हारे साथ यहाँ बैठे सभी एवं स्वयं तुम भी समय के दूसरे हिस्से पर मरी पड़ी हो। जब अंततः नष्ट ही होना है तो नष्ट होने का दुःख क्यों करें?’

‘ज्ञान बघारना बहुत सरल है लेकिन जीवन जीना अत्यंत कठिन है। अगर सब कुछ नष्ट हो जाना है तो क्या सब कुछ छोड़कर वन में चले जाएं ? जीवन को फिर गति कौन देगा? जो अपने हैं, जिनके बीच हम दिन-रात रहते हैं, जिन रिश्तों को प्राण देकर, रक्त जलाकर हम पालते हैं, उनका वियोग ही दुःखकर नहीं होगा तो फिर किसका होगा?’ नलिनी ने उतर दिया।

‘यह तुम्हारा मोह है नलिनी जो समय के इस हिस्से पर उभर आया है। जगत में कोई भी नाता चाहे माँ, बाप, पति, पुत्र, भाई, सखा अथवा अन्य सुहृद ही क्यों न हो, स्थायी नहीं होता। संकट की घड़ी में धैर्य ही निकटतम संगी होता है।’

‘मेरा तो सब कुछ बरबाद हो गया। क्या ऐसे समय में भी कोई धैर्य रख सकता है?’

‘अवश्य रख सकता है। संयम एवं धैर्य से बड़े-बड़े कार्य बन जाते हैं। दुनिया में ऐसे लोगो की कमी नहीं है जिन्होंने संकट की घड़ी में धैर्य रखा एवं कालांतर में जीवन का पुनर्निमाण कर लिया।’

‘ तो क्या मनुष्य इतना पत्थरदिल बन जाए कि वह अपनों के अवसान तक पर चिंता न करे?’

‘चिंता चिता से अधिक दाहक है। जो हो गया है उस पर चिंता करने से क्या वह पुनर्जीवित हो जायेगा? कभी नहीं। हाँ, उस चिंता में घुल-घुलकर तुम अवश्य रूग्ण हो जाओगी।’

‘तुम फिर ज्ञान देने लग गए! क्या तुम नहीं जानते मधुसूदन की मृत्यु मेरे हृदय को छेदे जाती है। अब जबकि मैं दुःख की आग में जल रही हूँ तुम अपने शब्द-लेप से मुझे क्या बोध देना चाहते हो? क्या जो कुछ हुआ उसमें मेरा कोई दोष है?’

‘मैं तुम्हें दोष नहीं दे रहा हूँ। दुःख से दग्ध लोगों की बुद्धि विचलित हो ही जाती है। प्रारब्ध की चाल कौन रोक सकता है ? प्रारब्ध का प्रेरा मनुष्य सुख-दुःख पाता ही रहता है। समय एवं प्रारब्ध किस के वश में रहे हैं? यहाँ कौन काल का उल्लंघन कर पाया है? मनुष्य का प्रारब्ध सोने पर उसके साथ सोता है, उठने पर साथ उठता है एवं दौड़ने पर साथ दौड़ता है। समय से ही सभी बली है। समय डाॅक्टर को मरीज एवं राजा को रंक बना देता है।’

‘तुम स्वयं इस बात को समझते हो तो फिर क्या कहना चाहते हो?’

‘मै कहना चाहता हूँ कि कालचक्र स्वभावतः परिवर्तनशील है। यह दिन भी नहीं रहेंगे। सबको सुख-दुःख बारी-बारी से मिलते हैं। यहाँ पराभव है तो अभ्युदय भी है। क्या जो तुम कल थी, आज हो? तो फिर ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि जो तुम आज हो कल नहीं रहोगी? तुम स्वयं को संयत करो। इस जगत में कौन है जिसने ऊँच-नीच नहीं देखी? किसकी अवस्थाओं में उलटफेर नहीं हुआ? किसने निरंतर सुख पाया है?’

‘मैं तुम्हें समझ नहीं पा रही हूँ।’

‘मैं यही समझाने का प्रयास कर रहा हूँ कि बुरा समय सभी के जीवन में आता है। मैं मानता हूँ बुरे समय में कोई भी मंत्र , औषधि कारगर नहीं होती लेकिन मैं यह भी कहना चाहता हूँ कि जिन्होंने अपने बुरे समय को धैर्य से सहा, जीवन पुनर्निर्माण की शिद्दत दर्शाई, जगत में अंततः उन्होंने ही विजय-पताका फहराई है। इस जीवन समरांगण में युद्ध तो हमें करना ही होगा। स्मरण रखना! मनुष्य का पुनर्निर्माण उसकी बुद्धि में ही प्रतिष्ठित है।’

‘क्या सचमुच ऐसा संभव है?’

‘निसंदेह यह संभव है। जैसे शारीरिक रोग औषधि से दूर होते हैं, मानसिक दुःख बुद्धि एवं विवेक से मिटाये जा सकते हैं। बुरे समय में विवेक एवं आत्मबल ही हमारे दो नेत्र हैं। तुम डरो नहीं! उठो! जागो! पर्वत की तरह अविचल भाव से खड़ी हो जाओ। स्वयं को आत्मविश्वास से परिपूर्ण करो। तुम्हारा तेज, बल ही तुम्हारा नवजागरण होगा। अभी तुम्हें बहुत कुछ करना है। मधुसूदन तुम्हारे आत्म-उत्कर्ष के लिए ही तुम्हें अकेला छोड़ गया है। तुम आगे बढ़ो। तुम्हें उसके कारोबार को नयी गति देनी है, दोनों बेटियों को उच्च शिक्षा दिलानी है, बूढ़े माँ-बाप को संभालना है। ऐसा करके ही तुम मधुसूदन को सच्ची श्रद्धांजलि दे सकोगी।’

यकायक नलिनी चौंकी। आश्चर्य! वहाँ कोई भी तो नहीं था। लोग अंतिम क्रिया में मशगूल थे।

इतनी देर फिर वह किससे वार्ता कर रही थी? किसने उसके कंधो का स्पर्श किया था? कौन उसे धैर्य, आशा एवं उत्साह का पाठ पढ़ा रहा था? वह चीखी तो लोगों ने सुना क्यों नहीं? किसने भीड़ का स्तंभन किया?

नलिनी ने पुनः चिता की ओर देखा। यह मधुसूदन की सीख ही थी जो जीवन के प्रतिकूलतम समय में मधुसूदन नलिनी को बताया करते थे। नलिनी जब-जब व्यथित होती कंधे पर हाथ रखकर ढाढ़स बंधाते हुए वे यही कहते, ‘नलिनी! जीवन की सरगम में सदैव मधुर सुर नहीं लगते, बेसुरे भी लगते हैं। मनुष्य धैर्य एवं अनवरत् संघर्ष कर इन बेसुरे सुरों को भी साध लेता है।’

अनंत में विलीन होते हुए भी आज मधुसूदन की वही सीख विवेक बनकर नलिनी की आत्मा को स्फुरित कर रही थी। अवचेतन मन की इसी सीख ने आज उसके कंधे का स्पर्श किया था। इसी सीख ने उसके चिंतन की चीखों को मौन एवं भीड़ की सांत्वना को स्तंभित कर दिया था। यही सीख देव बनकर उसे हौसला देने आयी थी।

‘चिता जल चुकी है, सभी प्रस्थान करें।’ किसी की आवाज सुनकर नलिनी धीरे-धीरे चलकर चिता के समीप आई, वहीं इर्द-गिर्द खड़ी नीतू एवं स्वाति के कंधे पर बाजू रखे एवं मन ही मन संकल्प लिया, ‘मधुसूदन! ताउम्र तुम्हारी सीख को पल्लू से बांध कर रखूंगी।’

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16-11-2011

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