पहला सुख

पटेल चैराहा, जोधपुर पर हर सुबह मजदूरों का हुजूम लगा होता। नित्य सैकड़ों मजदूर वहाँ आकर अलग-अलग झुण्डों में खड़े हो जाते। पत्थर के काम करने वाले, रंग-रोगन वाले, फर्श बनाने वाले, सफाई करने वाले एवं अन्य अनेक तरह के काम करने वाले मजदूर अलग-अलग टुकड़ियों में खड़े मिलते। यह वर्ग और कई वर्गों में बंट जाते जैसे जातियों का वर्ग, मौहल्ले का वर्ग, मित्रों का वर्ग, वगैरह-वगैरह। कई माथे पर पगड़ी पहने यहाँ-वहाँ भागते नजर आते। कुछ बीड़ी फूंक रहे होते तो कुछ आतुर नजरों से मजदूरी की तलाश में तक रहे होते। ठेकेदार या अन्य काम करवाने वाले वहाँ आते तो उनके इर्द-गिर्द भीड़ इकट्ठी हो जाती। मजदूर चिल्ला-चिल्लाकर स्वयं को प्रस्तुत करते। जिन्हें काम मिल जाता उनके चेहरे पर उपलब्धि की मुस्कुराहट होती, चलो आज की दिहाड़ी तो बनी, जिन्हें नहीं मिलता, हताश पुनः इधर-उधर तकते। अनेक बार आपस में झगड़ा भी हो जाता तो कभी हाथापाई तक की नौबत आ जाती। एक अजीब, मिश्रित भावों से भरा कोलाहल वातावरण को विचित्र-सा बना देता। भूख से बढ़कर मनुष्य का कोई शत्रु नहीं। रहीम ने ठीक ही कहा है, हे पेट! तू पीठ क्यूँ नहीं हो गया ?

वक्त वक्त की बात है। एक जमाना था जब लोगों के ढूंढे मजदूर नहीं मिलते थे । अब आर्थिक मंदी ने कमर तोड़ दी है। जब उद्योग बंद पड़े हों, व्यापारियों के माल की मांग नहीं हो तो मजदूर कहाँ जाए ? मंदी में दूर तक आशा की किरण दृष्टिगोचर नहीं होती। व्यापारी तो फिर अपनी जमा पूंजी से काम चला लेता है, मजदूरों पर बिजली गिर जाती है। कामगार काम से कई गुना उपलब्ध हों तो शोषण पराकाष्ठा छू जाता है। जब मिलों में मशीनें छन-छन चलती थी तो सभी यूनियनबाजी करते थे। अब काम नहीं मिल रहा तो मजदूरों को वो दिन सुन्दर स्वप्न जैसे लगते हैं।

आज शनिवार था। मैंने रंग-रोगन के लिए ऑफिस से छुट्टी ले रखी थी। अंजु कई दिनों से कह रही थी दीवारों पर पपड़ियाँ आ गई है, घर बहुत गंदा लगता है, इस बार डिस्टेम्पर और खिड़की-दरवाजों पर पैन्ट करवाना ही पड़ेगा। मैं कई दिनों तक टालता रहा पर पड़ोसी सिंघवी साहब के घर रंग-रोगन होने लगा तो एक स्वाभाविक हूक उठी कि अब हमारे घर भी हो जाए तो अच्छा है। किसे अच्छा लगता है कि पड़ोसी का घर अपने घर से सुन्दर लगे ?

दीवाली नजदीक आ रही थी। अंजु ने इस बार अल्टीमेटम दे दिया। उसकी बात टालना अब मुश्किल था। इस बार सोच ही लिया कि शनिवार की एक छुट्टी लेकर दो रोज में इस काम को निपटा लिया जाय।

मैंने पटेल चैराहे पर आकर कार रोकी। कार से उतरा ही था कि मजदूरों की भीड़ ने मुझे घेर लिया।
’’क्या करवाना है, बाबूजी ?’’ कुछ मजदूर आगे बढ़ते हुए बोले।
’’डिस्टेंपर , रंग-रोगन आदि करवाना है।’’
’’अरे रंग-रोगन वालो, इधर आओ!’’ भीड़ में से कोई दूसरी तरफ देखकर जोर से चिल्लाया।
इतने में इस काम के कई मजदूर आकर खड़े हो गए।
’’बाबूजी! कारीगर दो सौ रुपये एवं मजदूर के सौ रूपए।’’ भीड़ में से आवाज आई। हमारे शहर में स्किल्ड मजदूर को स्थानीय भाषा में कारीगर कहते हैं।
’’लूट मची है क्या ? सौ रुपये में आराम से कारीगर मिलते हैं, मजदूर तो पचास में ढेर पड़े हैं।’’ मैंने वापस मुड़ने का बहाना करते हुए कहा।

मेरे कहने भर की देर थी कि दो कारीगर एवं दो मजदूर तुरन्त तैयार हो गए। उनके त्वरित निर्णय को देखकर उनके साथी खीज कर रह गए। मैं सोच में पड़ गया। अगर कुछ प्रयास करता तो भाव और कम हो जाते।

मैंने कार में आकर पिछला दरवाजा खोला। दोनों कारीगर एवं एक मजदूर पीछे बैठ गए। एक आगे मेरे साथ बैठ गया। सभी गाड़ी में बैठकर साथी मजदूरों को ऐसे देख रहे थे जैसे गाड़ी के मालिक हों। काम मिलने की ख़ुशी में एक अजीब-सा गर्व उनकी आँखों में उतर आया था। मैंने गाड़ी स्टार्ट की एवं घर की राह ली।

दोनों कारीगरों एवं मजदूरों के मुँह से शराब की हल्की बदबू आ रही थी। जरूर रात ठर्रा पीया होगा। मैंने मन ही मन सोचा, सालों को खाने को नहीं मिलता पर दारू के बिना चैन नही है।

कुुछ देर तो सभी कार में चुपचाप बैठे रहे, धीरे-धीरे उनका आत्मविश्वास बढ़ने लगा। सभी आपस में बातें करने लगे। उनकी बातों से मुझे पता चला कि दोनों कारीगरों के नाम उदा एवं तेजा है तथा मजदूरों के टप्पु एवं गप्पु। ये उनके नाम होंगे या उपनाम मुझे नहीं मालूम । थोड़ी देर में उदा ने चिल्लाकर कहा, ’’बाबूजी, गाड़ी रोकिए।’’ सामने कोई उसका परिचित व्यक्ति खड़ा था। उदा के हाथ दिखाने पर वह खिड़की के पास आया, दोनों ने घुसर-फुसर की। कुल मिलाकर काम कुछ नहीं था, सिर्फ अपने साथी को बताना चाहता था कि मैं कार में बैठा हूँ। मैंने पुनः गाड़ी शुरू की। कुछ ही मिनटों में हम घर पहुँच गए।

वे सभी गाड़ी से उतर कर अन्दर आए। मैंने उन्हें घर दिखाया। कुल तीन कमरे, ड्राईंग हाॅल, एक किचन, स्टोर, वगैरह-वगैरह। पल भर में अनुभवी कारीगरों ने सामान की सूची बना दी। मैंने एक को साथ लिया एवं आधे घण्टे में सामान लाकर रख दिया। सामान की दुकान घर से नजदीक सौ कदम पर थी। कुछ ही समय में लोडिंग टैक्सी में ऊँची टेबलें, पट्टा आदि आ गए। यह सभी सामान किराये पर वहीं मिल गया।

सामान देखते ही सबके हाथ फड़कने लगेे। कामगार आदमी के लिए काम नशा बन जाता है। अंजु ने उनके आने से पहले ही दो कमरे खाली कर दिए थे।

कारीगरों ने स्टूलों पर लकड़ी का लम्बा पट्टा रखा एवं काम प्रारंभ किया। दोनों कारीगर तथा मजदूर खुरदरा रेजमाल लेकर पुराना डिस्टेम्पर उतारने में लग गए। दो घण्टे में उन्होंने दोनों कमरे घिस डाले। उसके बाद ब्रश लेकर नया डिस्टेम्पर करने लगे। सिद्धहस्त श्रमिकों की तरह उनके हाथ मशीन की तरह चलने लगे। शरीर से पसीना बहने लगा पर इन श्रमकणों की चमक ने इनके काम को और गति दी। बीच-बीच में किसी बात को लेकर झड़प भी होती, कई बार तो लड़ते-लड़ते रह गये। यही उनकी स्वाभाविक दिनचर्या थी। दोनों मजदूर उन्हें बराबर सामान लाकर दे रहे थे एवं काम में हाथ भी बँटा रहे थे। दोपहर दो बजे तक उन्होंने एक कमरा तैयार कर दिया।

कमरा तैयार होने के बाद सभी ने बाहर आकर अपना टिफिन खोला। प्लास्टिक के गंदे टिफिन। सबने मोटी-मोटी रोटियाँ निकाली। प्याज पर मुट्ठी मारकर उसके टुकड़े किए एवं मिर्ची को मुँह से काटकर रोटी के साथ खाने लगे। मैं देखकर हैरान रह गया। ऐसा खाने पर भी उनके चेहरे पर जो तृप्ति एवं आनन्द का भाव था कदाचित् मुझे पाँच सितारा होटल में भी नहीं मिला। वहीं रखी सुराही से सबने पानी पिया। कुछ देर बाद अंजु सबके लिए चाय बनाकर लाई। चाय पीने के बाद वे फिर काम में लग गए।

शाम पांच बजे तक दूसरा कमरा भी तैयार था। मुझे इतवार तक काम निपटाना था। मैंने उन्हें अतिरिक्त रकम लेकर देर रात तक काम करने को कहा। उन्हें आश्वस्त किया कि शाम का खाना हम दे देंगे एवं वे रात बाहर सो सकते हैं। सभी तैयार हो गए। कल काम मिले न मिले।

सभी पुनः काम पर लग गए। रात आठ बजे तक उन्होंने आधे से ऊपर कार्य निपटा लिया। मैं सारे दिन जब-तब उनके काम का निरीक्षण करता रहा एवं अंजु को सामान पुनः व्यवस्थित करने में मदद करता रहा। दोनों बच्चे भी स्कूल से आने के बाद मम्मी के साथ काम में लग गए। मजदूर भी हमारे काम में बराबर हाथ बँटा रहे थे।

मैं वर्षों से अनिद्रा का रोगी था। इसी शहर की एक प्रतिष्ठित कम्पनी में वाइस प्रेसीडेन्ट था। अच्छी पगार थी, पापा-मम्मी से भी जब चाहे मदद मिल जाती। इतना होने पर भी अनेक चिंताएँ घेरे रहती। कंपनी के यह काम, वह काम, मजदूरों से माथा-पच्ची, आयकर का कार्य, कोर्ट का कार्य और न जाने क्या-क्या। रात अक्सर नींद नहीं आती। विचारेां के जाल में मकड़ी की तरह खोया रहता। कभी अंजु को सोते से उठाकर झल्ला पड़ता, ’’पड़ी-पड़ी खरार्टे भर रही हो, कुछ मेरा भी ख्याल है ? चार बज गए अभी तक नींद नहीं आईं।’’ वह क्या जवाब देती, बच्चे की तरह सिर सहलाने लगती, ’’क्यों इतना सोचते हो, भगवान जो करेगा, अच्छा करेगा। सारी दुनिया की चिंता में गला मत करो।’’

मैंने डाॅक्टर की भी राय ली। पहले उसने हल्की डोज की नींद की गोली दी जिसे मैं हर रात लेता था। धीरे-धीरे डोज और ट्रांक्यूलाइजर्स बढ़ते गए। ध्यान के भी प्रयोग किए पर अनिद्रा ने पीछा नहीं छोड़ा।

शाम ढलने लगी थी। अब तक सभी कारीगर एवं मजदूर निढाल हो चुके थे। खाना आज मैंने होटल से मंगवा लिया था। अंजु भी थक चुकी थी। बच्चे नये पुते कमरों को देखकर प्रसन्न थे।वे यहाँ-वहाँ अपना सामान लगाने लगेे थे।

अखबार में रखकर कोई बीस तन्दूरी रोटी एवं दो प्याले सब्जी मैंने बाहर बैठे मजदूरों के पास भिजवायी एवं पानी आदि की व्यवस्था करके अंदर आ गया।

हम सभी ने स्नान किया तत्पश्चात डिनर किया एवं हाथ मुँह धोकर अपने-अपने कमरों में आ गए। अब तक कमरों की साफ-सफाई भी हो चुकी थी। यकायक मुझे याद आया कि आज घर के मुख्यद्वार पर ताला तो लगाया ही नहीं। मैं बाहर आया।

मुख्य द्वार पर ताला लगाकर करके मुड़ा ही था कि आंगन के उत्तरी छोर पर एक दृश्य देखकर हैरान रह गया। सभी मजदूर खाना खाकर गहरी नींद में सो रहे थे। पास ही देशी ठर्रे की एक खाली बोतल पड़ी थी। सभी जमीन पर औंधे मुँह यूं पड़े थे मानो शरीर धरती पर पटक कर किसी और लोक में चले गए हों। उनमें से एक ने तो जूते तक नहीं खोले, एक के हाथ पाँव यूं पडे़ थे, जैसे कोई लाश हो। गर्मी के दिन थे, ठण्डी हवा चल रही थी, सभी वहीं पसर गए। नींद ने क्षणभर में उन्हें आगोश में ले लिया।

उन्हें यूं निश्चिन्त सोते देख मैं ईर्ष्या से भर उठा। एक निर्लिप्त भाव से वे सभी निशादेवी की गोद में सो रहे थे। सामान यहाँ-वहाँ बिखरा पड़ा था। न गद्दा, न चद्दर पर चेहरे पर संतोष एवं आनन्द का साम्राज्य था।

मैं भीतर आया। कमरे में एसी चल रहा था। कमरा अब तक ठण्डा हो चुका था। डबलबेड पर खूबसूरत चद्दर एवं मोटे तकिए लगे थे। अंजु भी उनींदी होने लगी थी, दिन भर के काम से वह भी थक गई थी।

मैं लेटे-लेटे सोच रहा था, किसी ने ठीक कहा है – पहला सुख निरोगी काया, दूजा सुख है धन और माया। आज मुझे पता चला भगवान ने पहले सुख से निर्धन एवं कामगारों को नवाजा है। धनी, उद्योगपतियों, प्रबन्धकों, राजनेताओं एवं तथाकथित बड़े लोगों के जीवन में तो मात्र ‘दूसरा सुख’ है। दूसरा सुख पाने की अंधी दौड़ में वे ‘पहला सुख’ भी खो देते हैं।

आज मैं थक गया था, नींद की गोली लेना भी भूल गया, फिर भी कब सोया, पता ही नहीं चला। दिन भर के श्रम ने आज मुझे भी ‘पहले सुख’ का वरदान दे दिया था।

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16.09.2002

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