निशिनाथ

मैं निशिनाथ हूँ। 

मेरा यही एक नाम नहीं है। मेरे प्रशंसकों ने मुझे अनेक नाम दिये चन्द्रमा, शशि, मयंक, रजनीपति, इन्दु, कलानिधि, राकेश, विधु, सोम, सुधाकर, हिमांशु, मून, लूनार एवं जाने क्या-क्या।

अनन्त युगों से मैं रात्रि में निर्भय विचरता हूँ। नक्षत्रों का राजा हूँ मैं। जिस नक्षत्र समूह से गुजरता हूँं, उन नक्षत्रों को भी राशि नाम देकर अमर किया है मैंने यथा मेष, वृषभ, मिथुन आदि-आदि। 

मैं अधिपति हूँ इन्सान के मन का। मुझ ही से चंचलता है उसके मन की, मुझ ही से वश में है मन उसका। एकाधिकार है मेरा मनुष्य की संवेदनाओं एवं संवेगों पर। पंचतत्वों में जलतत्व पर मेरा ही आधिपत्य है। सौम्यता, सज्जनता, शील, संकोच, लज्जा, भावुकता एवं सुन्दरता जैसे मनुष्य के दिव्य गुणों में मैं ही निवास करता हूँ। मात्र मन ही नहीं, जगत की सारी औषधियाँं, सुगन्धित द्रव्य, समुद्र के जीव, दुर्लभ मोती एवं इंसानी यात्राएँ मेरे ही अधीन हैं। 

समुद्र मेरे जनक हैं। समुद्र मंथन से मैं पैदा हुआ। लोग कहते हैं समुद्र में ज्वार मेरी कलाओं से उठते हैं पर मैं उसमें छिपे गूढ़ रहस्य को जानता हूँँ, दरअसल ज्यों-ज्यों मैं बढ़ता हूँ, समुद्र उतना ही प्रफुल्लित होकर अपना ज्वार ऊँचा करता है। किस पिता का सिर अपने पुत्र को बढता देखकर ऊँचा नहीं होता ?

मैं कवियों के मन की कल्पना हूँ। चित्रकारों की तूलिका से रंगों को सजीव करने वाला भी मैं ही हूँ। मेरी गोद में ही समस्त जगत विश्राम करता है। 

सदियों से मैं गगन मण्डल में विचर रहा हूँ। इस चिरयात्रा में मैंने क्या-क्या नहीं देखा ! अनंत प्रेम कथायें अनेक विरह कथाएं मेरे आगोश में छुपी पड़ी हैं। देखा है मैंने मजनू-लैला, शीरी-फरहाद, ढोला-मारु एवं अनेक प्रेमियों के मद-प्रणय को। देखा है मैंने अहर्निश अश्रु बहाती अनेक वियोगिनियों के विरह को। 

मेरी ही साक्षी में शाहजहाॅं ने मुमताज की नर्गिसी आँखों में झाँकते हुए वादा किया था एक भव्य ताजमहल बनाने का। उनके प्रणय की वो मादक रातें आज भी भुलाये नहीं भूलती, लेकिन इस दुनियाँ में क्या चिरस्थायी रहा है। वे हसीन मंजर भी नहीं रहे। याद है मुझे वो रात जब मुमताज के निधन का समाचार सुनकर बादशाह पर गाज गिरी थी। उस रात उन्होंने इतना विलाप किया कि एक ही रात में उनके काले भुजंग कुन्तल, झक श्वेत हो गये। कई दिनों तक उन्हें सुध-बुध नहीं रही, पर बादशाह अपने कौल को नही भूला। आज भी आगरा के ऊपर से विचरते हुए इस प्रणय स्मारक को नमन करके गुजरता हूँ। क्यों न करूँ, मैंने स्वयं महसूस किया है कि उनके प्रेम का दिव्य स्पंदन। 

ऐसी ही अनन्त प्रेम कथाओं का साक्षी हूँ मैं। देखा है मैंने प्रेम के पंख लगाकर मदहोशी के अनन्त आकाश पर उड़ने वाले दीवानों को। देखा हैं मैंने इन प्रेम पंखों को काटने वाली तलवारों को। देखा है मैंने प्रेम के लिए मुकुट ठुकरा देने वाले प्रेमियों को, प्रेम के नाम पर सहर्ष सलीबों पर टंगते दीवानों को। 

इन प्रेम कथाओं के बारे में और क्या-क्या बताऊँ ? क्या उन प्रेमियों के बारे में बताऊँ जिन्हें न भूख लगती थी न प्यास अथवा उन प्रेमियों के बारे में जिन्हें रातों नींद नहीं आती थी या फिर उनके बारे में जो प्रेम में इतने निमग्न हुए कि लौकिक मर्यादा एवं सुध-बुध तक भूल गये। 

याद है मुझे दुष्यंत के प्रेम में खोई ऋषि विश्वामित्र एवं मेनका की पुत्री शकुन्तला जिसे क्रोधी संत दुर्वासा के आगमन का भी भान न रहा। अहंकार में डूबे दुर्वासा भला क्या जानते कि प्रेम अंधा होता है, बस श्राप दे दिया कि तू जिसकी याद में खोयी है वह तुम्हें भूल जायेगा। तब उस अबोध बाला ने कैसा विलाप किया था। शुक्र है उस मछुआरे का जिसे मछली का पेट चीरते हुए शकुन्तला की अंगूठी मिली एवं जिसे देखकर दुष्यंत को शंकुतला की याद आयी। 

और भी कई प्रेम कथाएँ मुझे याद आती हैं। उस मटके बेचने वाले महिवाल एवं हीरों के सौदागर की बेटी सोहिनी की जिसने प्रेम की दिव्यता के आगे गरीबी-अमीरी के सारे भेद मिटा दिये। गरीब घर में जन्मी हीर एवं अमीर घर के रांझा ने भी सारे भेदभाव भुलाकर प्रेम किया। कैसे भुलाई जा सकती है राजकुमार सलीम एवं बांदी अनारकली की वह प्रणय-कथा जब प्रेम की दीवानगी के आगे मुकुट मिट्टी में मिल गये थे। यमन के सरदार की बेटी लैला एवं बसरा के सरदार के मजनू बेटे कैस ने प्रेम के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया। तुर्की के सुल्तान की बेटी शीरी एवं दीवानों सा घूमता फरहाद प्रेम कहानियों के अमिट पन्ने हैं। 

कृष्ण-राधा के उस दिव्य प्रेम की कथा तो मैं बताना ही भूल गया। बरसाने की उस ग्वालिन राधा के लिए कृष्ण ने क्या-क्या स्वांग नहीं किए! एक बार तो उसने कृष्ण को अपने कपड़े पहनाकर उसके सिर पर माखन की मटकी रख दी एवं कृष्ण के कपड़े उतरवाकर खुद पहन लिये। प्रेम विवश उस कृष्ण को जिसने सारे संसार को अपनी भृकुटि विलास पर नचाया, राधा अंगुलियों के इशारे पर नचाती थी। प्रेम की ताकत का इससे अधिक बखान और क्या करूँ?

आदिमानव से अब तक साक्षी हूँ मैं मनुष्य के इतिहास का। देखा है मैंने हिरोशिमा एवं नागासाकी की वो काली रातें जब मनुष्य ने हैवानियत का नंगा नाच किया था। मेरे सीने का कलंक तब और गहरा गया था।

संसार की सारी वैज्ञानिक प्रगति, आविष्कार मेरी ही साक्षी में हुए हैं। देखा है मैंने जुनून में डूबे उन आविष्कारकों को जिन्हें लोक कल्याण के मार्ग पर चलते हुए शरीर की सुध-बुध तक नहीं रही। 

सभ्यताओं का उत्थान एवं पतन मेरी ही साक्षी में हुआ है। हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, बेबिलोनिया, ग्रीस, मिश्र एवं ऐसी अनेक सभ्यताएँ काल की एक रेखा पर उभरी एवं दूसरी पर मिट गयी। सिकन्दर जैसे महान योद्धा भी यहाँ अमर नहीं हो सके। भूल नहीं पाता मैं उस विश्वविजेता नेपोलियन की जीवन कहानी जिसे अंततः वाटरलू के युद्ध में मुँह की खानी पड़ी एवं जो निर्वासित जीवन जीते हुए मरा। देखा है मैंने चंगेजखाँ की लपलपाती तलवार जो किसी पर रहम नहीं करती थी, तुगलक-जिसके सिपाही भालों की नोकों पर अबोध बच्चों के सर टांग देते थे, औरंगजेब की राज्य लोलुपता जिसने अपने तीन सगे भाइयों को मारकर राज्य हासिल किया, नादिरशाह के जुल्म जिन्हें सुनकर स्त्रियों के गर्भ गिर जाते थे।देखा है मैंने राजा रावण का अहंकार जिसके चलने से धरती काँपती थी। वे भी काल कवलित हो गये पर मनुष्य की महत्वाकांक्षाएँ अब तक नहीं मरी। 

इतिहास के पन्नों को कलंकित करने वाले लोगों की यहाँ कमी नहीं रही तो मनुष्यता का सिर ऊँचा उठाने वाले महापुरुषों की संख्या भी कम नहीं है। दीन-ए-इलाही एवं इंसानियत के पुजारी अकबर, प्रेम एवं क्षमा के नाम पर सलीब पर चढ़ जाने वाले यीसू पृथ्वी के सौन्दर्य नहीं तो और क्या थे ?

मित्रों की मित्रता याद करता हूँ तो याद आती है, कृष्ण-सुदामा की मित्रता जिसका स्मरण कर मैं रोमांचित हो उठता हूँ। तब कृष्ण द्वारिका के राजा थे। एक दिन द्वारपाल ने कृष्ण को आकर बताया कि, फटी धोती एवं चिथड़ों-सी दुपट्टी कांधे पर डाले महल के मुख्य द्वार पर एक दुर्बल द्विज खड़ा है। वह चकित होकर आपके महलों को देख रहा है, उसके पाँव में जूते भी नहीं है। दीनदयाल! आप ही के द्वार पर आकर वह आपके बारे में पूछ रहा है एवं अपना नाम सुदामा बताता है। बस इतना सुनना था कि कृष्ण सिंहासन छोड़कर सुदामा….. सुदामा….. कहते हुए भागे। पीताम्बर छूटा जा रहा था उनका। बाद में उस अकिंचन मित्र के पाँव के कांटे उन्होंने स्वयं अपने हाथों से निकाले। मित्र के पाँव धोने के लिए प्रभु ने जब उसके पाँवों को अपने हाथों में लिया तो सेवक पानी लेने दौड़े पर पानी तो आता तब तक आता, सुदामा के पाँव तो कृष्ण की आँखों से आई अश्रुओं की बाढ़ से ही नहा गये। मित्र की दुर्दशा देखकर विह्वल कृष्ण बार-बार कहे जा रहे थे, ‘हा मित्र! हा सुदामा! तुमने अकारण ही इतने दुख भोगे। तुम अब तक चले क्यों नहीं आये? उस दिन द्वारिका में करुणा एवं प्रेम की नदियाँ बह गयी। उस दिन द्वारिकानाथ तीनों लोकों का राज्य अपनी मित्रता पर न्यौछावर कर स्वयं तो अनाथ हेा गये पर मित्रता को सनाथ कर दिया। उस प्रेम विह्वल दृश्य को याद कर आज भी मेरा हृदय भीग जाता है। ऐसी एक नहीं अनेक कहानियाँ, मित्रता के दिव्य गुणों से भरी पड़ी हैं। कर्ण-दुर्योधन एवं राम-सुग्रीव की मित्रता इतिहास के अमिट लेख हैं। 

याद है मुझे त्रेतायुग का वह दिन जब प्रभु श्रीराम ने अशोक वाटिका में पहली बार सीता को देखा था। तब संध्यावंदन करते समय प्राची दिशा में मुझे उदय होते देख उन्होंने मेरी तुलना सीता के मुख से की थी। देवी जानकी से मेरी तुलना सुनकर मैं धन्य हो गया। लेकिन यह क्या ! थोड़ी देर पश्चात् प्रभु ने मेरे सौन्दर्य की चमक को जनकसुता के मुखचन्द्र की चमक के आगे फीका कर दिया। क्यों न करते, तब उनके मन में जानकी बसी थी। तब प्रभु ने मेरे अवगुण समूहों को याद कर जानकी के मुखचन्द्र की छटा को कितना गौरव दिया था। मेरी तरफ देखकर बोले, ”भला तू कहाँ और सीता कहाँ। एक तो तू खारे पानी से पैदा हुआ क्योंकि समुद्र तुम्हारा जनक है फिर तू घटता-बढ़ता रहता है, विरहनियाँ तुम्हें देखकर दुखी होती हैं, तेरा सहोदर होने से विष तुम्हारा भाई है, दिन में तू मलीन हो जाता है एवं तेरी छाती में कलंक है। मेरे अवगुण सुनाकर उन्होंने उस दिन मुझे रंक कर दिया। कैसी विडम्बना है, मैंने ही तो जनकवाटिका में उनके मन में प्रेम जगाया एवं उन्होंने मुझे ही अवगुणों की खान बता दिया। प्रभु का भी क्या दोष? प्रेम की दिव्यता के आगे भला मेरे कौन से गुण टिकते ?

न जाने यह कलंक मुझे कब लगा। यह कलंक मुझे तो दिखायी नहीं देता पर पृथ्वीवासी न जाने क्यों इसकी चर्चा करते रहते हैं। कितनी किंवदंतियाँ हैं धरती पर इस कलंक को लेकर। कोई कहता है एक काले खरगोश का बच्चा एक रोज मेरी गोदी में आकर दुबक गया, यह उसी का निशान है। कोई कहता है, यह पृथ्वी पर गरीबी, भूखमरी एवं कैदखानों में बिलखते आर्तजनों की छाया है तो कोई कहता है मैं बुध ग्रह की पत्नी को छल से हर लाया था यह उसी का कलंक है। कोई कहता है मैंने इंद्र को गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या से समागम करने में सहायता की थी, यह उसी का फल है। 

गौतम नित्य ब्रह्ममुर्हुत में स्नान करने नदी पर जाते थे। मैंने एक रात कुक्कुट बनकर ब्रह्ममुर्हुत से पूर्व बांग लगाकर गौतम को नदी स्नान पर भेज दिया। तब इन्द्र ने गौतम का रूप बदल कर छल से अहिल्या के साथ समागम किया। बाद में गौतम को पता चला तो उन्होंने अहिल्या को पत्थर बना दिया एवं मुझे सदैव सकलंक होने का श्राप दे दिया। इन्द्र तो तब ऐसे भागा कि किसी को नज़र ही नहीं आया। क्या यह सच है कि परस्त्रीगमन अथवा उसमें सहयोग करने वाले का कलंक कोई नहीं मिटा सकता?

सदियाँ बीत गयी, बुध अब भी मुझसे शत्रुता रखता है। ज्योतिषी कहते हैं अगर मेरी स्वराशि कर्क में बुध बैठ जाये तो वह जातक का मन विषाद से भर देता है पर मैं तो बुध की स्वराशियों मिथुन एवं कन्या में बैठकर जातक का कुछ नहीं बिगाड़ता। जीवन की इस भूल को सदियाँ बीत गयी, बुध आज भी मेरे पीछे लट्ठ लिये पड़ा रहता है। 

इतिहास की अनंत कथाओं के रहस्य को मैं अपने आगोश में छुपाये हुए हूँ। कितने मुमुक्षु, कितने तितिक्षु यहाँ हुए। शिवि, कर्ण, रंतिदेव जैसे लोगों के चेहरों को दान के दर्प से दमकते हुए देखा है मैंने। 

सत्य सनातन है फिर भी असत्य एवं अनाचार को जीवन के तुच्छ सुखों की प्राप्ति के लिए अंगीकार करते हुए मनुष्यों को देखा है मैंने। उन अज्ञानियों पर रहम आता है मुझे। ऐसे में याद आती है, मुझे सतयुग के राजा हरिश्चंद्र एवं उनकी पत्नी तारामती की जिन्होंने सत्य के मार्ग पर सर्वस्व अर्पण कर दिया। अपने पुत्र राहुल के शव के साथ तारामती दाह संस्कार के लियेश्मशान आयी तो डोम हरिष्चन्द्र ने मालिक धर्म का निर्वाह करते हुए उससे भी कर मांगा। तब कुछ क्षण विह्वल होकर मैं बादलों में छिप गया। बाहर आया तो देखा त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश उन्हें दर्शन देकर धन्य कर रहे हैं। सदियाँ बीत गयी, सत्य मार्ग के उस अन्वेषक का यश आज भी अक्षुण्ण है। 

याद है मुझे महात्मा बुद्ध का बोधिसत्व। तब प्रभु हाड़मांस के पिंजर बन गए थे। कैसा अलौकिक प्रकाश उनके चारों ओर फैलाथा। आज भी बुद्ध मंदिरों के ऊपर से गुजरते हुए ‘बुद्धं शरणं गच्छामि…..‘के स्वर सुनता हूँ तो मुझे उस महामानव की याद हो आती है जो अंधेरी मानवता को ज्ञान का दीपक जलाकर प्रकाश देने आया था। सम्राट के सम्राट उसके आगे नतमस्तक हो गये थे। कलिंग विजयी सम्राट अशोक ने भी उन्हीं के उपदेशो का स्मरण कर अहिंसा का मार्ग अपनाया। 

प्रभु श्रीराम ने ठीक ही कहा था मैं घटता-बढ़ता रहता हूँ। पृथ्वी की छाया राहू रूप में घटा-बढ़ाकर मुझे पीड़ित करती रहती है। अमावस्या के दिन तो राहू मुझे पूर्णतः लुप्त कर देते हैं। अमावस्या से शुक्ल पक्ष की षष्ठी एवं कृष्ण पक्ष की दशमी से चतुर्दर्शी तक मैं ‘क्षीण‘ कहलाता हूँ। राहू जब-तब मुझे ग्रहण लगाता रहता है। समुद्र मंथन के अंत में भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धरकर देवों को अमृतपान करवाया तो मैंने सूर्य के उकसाने पर अमृतपान करते हुए राहू की चुगली की। तब राहू के गले तक ही अमृत पहुँचा था। प्रभु ने मेरी बात सुनकर तुरन्त उस राक्षस का सर धड़ से अलग कर दिया। तब से अब तक राहू मुझे एवं सूर्य को ग्रहण लगाता है। क्या चुगलखोरों को ऐसा कठोर चिरदण्ड मिलता है? 

मैं शुक्रगुजार हूँ भगवान शंकर का जिन्होंने मेरे क्षीण वक्र रूप को अपने मस्तक पर धारण किया। प्रभु की इस कृपा के कारण वक्र एवं क्षीण होते हुए भी मैं जगतवंद्य बन गया। ठीक ही कहा है, महान आत्माओं की शरण में जाने एवं उनके अधीन होने से लघु एवं वक्र भी वंदित हो जाते हैं। 

मैं आभारी हूँ नबी मोहम्मद का जिन्होंने मनुष्य के कल्याण का एक मार्ग इस्लाम बताया। ओह! मुझ वक्र चन्द्रको चिन्ह रूप में लेकर उन्होंने मुझे कितना गौरव प्रदान किया। यही नहीं उन्होंने मेरे भाल पर बिंदिया लगाकर मेरी चमक बढ़ायी। मैं ऋणी हूँ मोहम्मद एवं शंकर का जिन्होंने लोक कल्याण के लिये संसार को कुर्बानी का जज्ब़ा दिया। 

सभी जानते हैं, समुद्र मंथन के समय सर्वप्रथम विष निकला। यह हलाहल जगत के सभी जीव एवं वनस्पतियों को जलाने लगा। जगत में त्राहि-त्राहि मच गयी। तब शंकर ने विषपान कर दग्ध संसार को राहत दिलायी। तब से ही उनका नाम ‘शिव‘ अर्थात् कल्याणकारी पड़ा। मैं पुनः उस अवढरदानी, आशुतोष शंकर का स्मरण कर उन्हें प्रणाम करता हूँ। शंकर एवं मोहम्मद दोनों में कितनी साम्यता थी। दोनों ने मुझ वक्र चन्द्र को आदर दिया, दोनों ने लोककल्याण के लिये जगत का जहर पीया एवं दोनों ने संसार को कुर्बानी का जज़्बा सिखाया फिर भी दोनों के अनुयायियों को अनेक बार मैंने लड़-मरते एवं एक दूसरे को काटते हुए देखा है। क्या उन्हें परमात्मा के द्वैत में छुपा अद्वैत नजर नहीं आता?

मुझे अब भी याद है, कृष्ण का वह महारास। शरद् पूर्णिमा की उस रात यमुना तीर पर मैं कुछ पल के लिए रुक गया था। ओह! उस दिन हर गोपी के साथ एक कृष्ण थे। अद्भुत, अलौकिक दृश्य था। सुध-बुध खोयी गोपियों को होश तक नहीं रहा। प्रभु ने कैसे उस दिन काम उद्दीपन कर उनका काम-क्षत कर दिया था। देहातीत गोपियाँ उस रोज कैसी कृष्णमयी हो गयी थी। कई अहंकारी वाचाल कहते हैं कि हम करें तो चोरी और कृष्ण करें तो लीला, उन्हें मैं कैसे समझाऊँ कि तब कृष्ण की उम्र गोपियों की आधी से भी कम अर्थात् मात्र बारह वर्ष की थी। भला, परमात्मा स्वयं धरती पर अवतीर्ण हो तो आत्माएँ देहातीत होकर उनके समीप नहीं जायेगी? प्रभुदर्शन का अवसर क्या बार-बार मिलता है?

देखी है मैंने मनुष्य की आदिमानव से अब तक की चिरयात्रा। सृजन करते हुए  असंख्य कर्मयोगियों को देखा है मैंने। विध्वंस करते हुए युद्धों एवं युद्धोन्मादियों को भी देखा है मैंने। देखे हैं मैंने नानक, तुलसी, कबीर जैसे महानायक। देखा है मैंने सुध-बुध भूले चैतन्य को कृष्ण रट लगाते हुए। 

देखा है मैंने क्षमा एवं सहिष्णुता का संदेश देते हुए महावीर को, स्वाधीनता एवं अहिंसा के पुजारी गांधी को। देखा है मैंने उन आततायियों एवं हत्यारों को जिन्होंने इन्हें भी नहीं छोड़ा। देखा है मैंने अहंकार एवं संकीर्णता से भरे उन नेताओं को जिन्होंने जगत में त्राहिमाम् मचा दिया। 

देखा है मैंने न्याय-अन्याय, पाप-पुण्य, धर्म-अधर्म के सच्चे और झूठे दोनों स्वरूपों को। देखा है मैंने निरंकुश भूपतियों को निरपराध लोगों को दण्ड देते हुए। चोर, लुटेरो, व्यभिचारियों एवं खूनी दरिन्दों को इन्हीं की कृपा से बच निकलते हुए भी देखा है मैंने। 

देखा है मैंने वहशी राजाओं के हरम में चीखती, चिल्लाती अबलाओं को, देवमंदिरों में विषयलोलुप पुजारियों की वासना का शिकार होती देवदासियों को, सतीत्व के नाम पर अग्नि में झौंक दी जाने वाली अभागी स्त्रियों को एवं दहेज के नाम पर जला दी जाने वाली सुहागिनों को। 

देखा है मैंने पति को परमेश्वर मानने वाली स्त्रियों को, प्रेम के नाम पर छल कपट करती व्यभिचारिणियों को। देखा है मैंने पुरुषों को स्त्रियों पर अमानुषिक जु़ल्म ढाते हुए, स्त्रियों को पुरुषों पर मानसिक संत्रास बरपाते हुए। क्या क्या मंज़र इन आंखों के आगे होकर नहीं गुजरे ?

इस जगत में पाप-पुण्य की सीमा रेखा कहाँ बनाऊॅ? ईश्वर का विधान यहाँ कुछ समझ नहीं आता। यहाँ भावी प्रबल है, भाग्यबली है। यहाँं ज्ञानी-पण्डित भीख मांगते हुए मिल जाते हैं। यहाँ मूर्ख राज्य करते हुए देखे हैं मैंने। अनेक कर्मयोगियों को विलाप करते हुए, सत्यमार्गियों को सलीबों पर चढ़ते हुए देखा है मैंने। यहां कोई निष्कर्ष अंतिम नहीं है। यहाँ भाग्यवान के हल भूत जोतते हैं। किस्मत वालों के पानी से चिराग जलते हैं एवं अभागों के तेल के दिये भी बुझ जाते हैं। जगत के इस रहस्य को पण्डित एवं विद्वद्जन भी नहीं जान पाये, नेति-नेति कहकर वे भी काल कवलित हुए। 

पृथ्वी के वैज्ञानिक मुझे मात्र भौतिक पिण्ड मानते हैं पर मैं जानता हूँ मेरे भीतर भी एक चैतन्य सत्ता का अंश है। जगत के सभी जीवों की तरह मैं भी उसके विधान के अधीन हूँ। उसी के आदेश एवं अनुशासन में विचरता हूँ मैं। 

मैं ही उठाता हूँ मनुष्य के मन-जलधि में ज्वार। पूर्णिमा के दिन तो मैं कई मनुष्यों को मतिभ्रमित कर देता हूँ। उनके उन्माद को चरम तक ले जाता हूँ मैं। मन के उत्कर्ष को बेपरवाह जीने वाले इन लोगों को मनुष्यता ने पागलों का दर्जा दिया है पर मैं जानता हूँ कि इस दुनिया में सभी पागल हैं, मात्र कम-ज्यादा का फर्क है। 

कहाँ तक कहूँ? अगर मेरी देखी सारी कथाओं को कहने लगूं तो पृथ्वी के मसि-कागद कम पड़ जायेंगे। 

आज अपने मन की कथा-व्यथा कहकर प्रफुल्लित हूँ मैं। 

मैं ‘निशिनाथ हूँ।

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12.11.2004

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