तमाम प्रयासों के बावजूद मेरा कारोबार इन दिनों ठप्प पड़ा था।
दुख और तकलीफों के दौर इंसान की जिन्दगी में पहाड़ की तरह आते हैं। कभी-कभी इनसे पार जाने का जरिया भी नहीं होता। आर्थिक तंगी ने मुझे त्रस्त कर रखा था। कठोर श्रम कर जैसे-तैसे गुजर होती। घर में कमाने वाला मैं अकेला था। परिवार में दो अविवाहित बहनें, एक छोटा भाई, बूढे़ माँ-बाप, दादी एवं मेरे स्वयं का पत्नी एवं दो बच्चों सहित चार लोगों का परिवार यानि कुल मिलाकर दस लोग।
मेरे साइकिल पार्ट्स एवं साइकल मरम्मत करने की दुकान घर से कुछ दूरी पर थी। कुछ वर्ष पहले तक तो दुकान अच्छी चलती थी पर जबसे सामने एक और दुकान खुली, मेरी हालत कमजोर हो गई। कमाई का एक चौथाई तो दुकान एवं मकान के किराये में ही चला जाता, एक चौथाई मिस्त्री ले जाता एवं बाकी बची आमदनी से जैसे-तैसे घर चलता। कभी बनिये का उधार, कभी कारोबार का, कभी गृहस्थी के खर्चे बस खींचातान मची रहती। भगवान जाने वे कौनसे घर होते हैं जहाँ कंचन बरसता है , यहाँ तो फाके पड़ते थे। कई दफे तो लगता बस जीवन ढो रहा हूँ। उधार माँगने वाले सरेआम जलील करते, मैं जब्त कर जाता। दस डिब्बों को चलाने वाला मैं अकेला इंजन था। इज्जत तो बड़े लोगों की होती है, यूँ दरिद्र जीवन यापन करने वालों के लिए तो इज्जत-मर्यादा सब ढोंग है।
इन दिनों स्थितियाँ अत्यन्त प्रतिकूल थी हालांकि परिवार के सभी सदस्य मुझे जी-जान से चाहते। विपत्ति के इन कठोर क्षणों में मेरे परिवार का स्नेह मेरा सबसे बड़ा सहारा था। माँ, बहिनें पापड़ तक बेलती, पर मुझे यह सब उन पर घोर अन्याय लगता। महीनों परिवार में नये कपड़े नहीं आते। निर्धनता हमारे स्वप्नों को गिद्ध की तरह नोंचती। बस समय कट रहा था।
मन की दुर्बल दशा एवं दुःख में ज्योतिषियों का ही अवलम्ब है। दुर्भाग्य के अथाह महासागर में वही तिनके के सहारे का काम करता है। नंग-धड़ंग, जंगलों में विचरने वाले पारलौकिक यात्रा पर अग्रसर साधु-संत भी जब अपना भविष्य जानने को उत्सुक रहते हैं तो लौकिक संसार में रहने वाले सामान्य आदमी की तो बिसात ही क्या है ? संसार में जब तक दुःख जिन्दा है, मनुष्य के मन में भविष्य को जानने की उत्कंठा रहेगी ही, इसीलिये ज्योतिषी की महत्ता कभी कम नहीं हो सकती।
पं. गौरीशंकर चतुर्वेदी हमारे शहर के गणमान्य ज्योतिषाचार्य थे। उनका घर शहर से करीब दस किमी दूर वीराने में था। सुबह से शाम उनके घर लोगों का ताँता लगा रहता। कोई कहता वह त्रिकालज्ञ हैं, हथेली में रखे आँवले की तरह लोगों का भविष्य देख लेते हैं। कोई कहता उन्होंने कर्ण पिशाचिनी नाम की साधना सिद्ध कर रखी है। देवी कर्ण पिशाचिनी उनके कानों में आकर सब कुछ बता देती है। कोई कहता उन्हें कोई गुप्त इष्ट है। जितने मुँह उतनी बातें, पर एक बात तय थी कि जनता उनकी अंध भक्त थी। शहर में कितने ही डाॅक्टर हों, पर रोगी के लिए तो वही डाॅक्टर श्रेष्ठ है जिस पर उसे विश्वास हो। लोग घण्टों इन्तजार करते, पर जाते वहीं।
आज सुबह आठ बजे मैं भी उनके निवास पर पहुँच गया। वहाँ पहले से टोकन लिये आठ-दस पुरुष एवं स्त्रियाँ बैठे थे। कुछ तो सुबह छः बजे ही आ गए थे। मैं चुपचाप इन सबके पीछे बैठ गया। सोच रहा था यह कैसी दुनियाँ है? क्या दुनियाँ में इतना दुःख है? यहाँ तो आँवा का आँवा बिगड़ा हुआ है। क्या संसार में इतनी अतृप्त लालसाएँ हैं? क्या सारा संसार शोक.-समुद्र में डूबा हुआ है? धीरे-धीरे और भी कई लोग आए और मेरे पीछे बैठते गए। मुझे तो सिर्फ एक ही बात जाननी थी, क्या मैं आर्थिक त्रस्तता से उबर पाऊँगा? क्या मेरे भाग्य में भी धनी होना लिखा है? धन के अतिरिक्त मुझे कोई दुःख न था, पर यह दुःख तो सबसे बड़ा है। आज के युग में धन ही महत्त्वपूर्ण है। कीर्ति, यश, मर्यादा, मित्र, रिश्तेदार यहाँ तक कि विद्या भी धन का ही अनुगमन करती है। धन हो तो फीस भरें, अच्छी स्कूलों में बच्चों को पढाएँ अन्यथा वही सरकारी स्कूलों की टाटपट्टियों पर बैठो। अंग्रेजी स्कूल से निकले बच्चे कैसे स्मार्ट लगते हैं, सब अफसर बनते हैं। धन हो तो अच्छे कपड़े पहनें, अच्छा खाएं, बंगलों में रहें एवं गाड़ियों में घूमें। दरिद्र तो पृथ्वी पर बोझ है। काश! मुझे कोई कल्पवृक्ष दिख जाता तो मैं सबसे पहले धन ही मांँगता।
पं. गौरीशंकर पूजा आदि समाप्त कर हर दिन सुबह दस बजे अपना कार्य प्रारम्भ करते थे। वह चाहते तो लोगों को समयबद्ध अपाॅइण्टमेन्ट भी दे सकते थे पर यहां तो जो जितना इंतजार करवाए, उतना ही महान है। हमारे यहाँ जीवन दर्शन की ऊँचाई प्रदर्शन के अनुपात में आँकी जाती है। सभी आतुरता से पण्डितजी की ऐसे प्रतीक्षा कर रहे थे, मानो मंगला दर्शन हेतु बैठे हों।
पण्डितजी दस बजे तक नहीं आए। आज लोगों को आधा घण्टा और इन्तजार करना पड़ा। ठीक साढे़ दस बजे पं. गौरीशंकर झक रेशम की धोती एवं चोला पहने, माथे पर भस्म लगाये अपने छुटपटियों, चमचों के साथ पधारे एवं आसन जमा कर बैठ गए। बैठते ही उन्होंने आँखें मूंद कर अपने इष्ट का स्मरण किया, हाथ कानों के पास ले गए जैसे कुछ सुनने का प्रयास कर रहे हों। उनके एक-एक अंगुली में एक-एक अंगूठी थी, किसी में हीरा, किसी में नीलम मानो सभी ग्रह उनकी मुट्ठी में हो। हाॅल में घुसर-फुसर हुई। कुछ लोगों ने कहा देवी पण्डितजी के कानों में कुछ कह रही है। दूसरे यह सुनकर सहम गए। छुटपुटियों ने उनके आगे पंचाग, कुछ यंत्र जो कि ताम्रपत्रों पर बने थे एवं विभिन्न प्रकार की वास्तु दोष निवारण सामग्री रखी। उसके बाद वे सब चले गए। पण्डितजी के आगे लकड़ी की एक छोटी डेस्क रखी थी जिसके ड्रावर में पैसे रखने की व्यवस्था थी।
अब एक-एक कर लोग जन्मपत्री बताने लगे। सबसे पहले एक स्त्री आगे आई। उसके पति भी उसके साथ थे। स्त्री के पहनावे एवं आभूषणों से उनके सुसम्पन्न होने का आभास होता था। बाहर उनकी चमकती फोर्ड गाड़ी खड़ी थी जिसमें उनका ड्राइवर बैठा था। दोनों के माथे पर चिंता एवं विषाद की गहरी लकीरें थीं। स्त्री ने पत्री पण्डितजी के हाथ में दी एवं कुछ कहने ही वाली थी कि उसके पति की आँखों में झरझर आँसू बह निकले। वह तड़प कर बोला, ‘‘पण्डितजी, मेरी आँखें तो बच जाएगीं? डाॅक्टर कहते हैं आँखों के पीछे कैंसर हो गया है, पाँच-छः मास में रोशनी चली जाएगी।’’
‘‘तुम्हारी जन्मपत्री में कालसर्प योग है। यह बड़ा खतरनाक, जानलेवा योग है। इसका निदान तुरन्त आवश्यक है।’’ पण्डित ने नस पकड़ते हुए कहा।
‘‘तो तुरन्त उपचार प्रारम्भ करिए, पण्डितजी! अगर मेरी रोशनी ही नहीं रही तो मैं करोड़ों रुपयों का क्या करूंगा ? किन नेत्रों से अपने बच्चों को देखूंगा ? किन नेत्रों से इस संसार को भोगूंगा ?’’
‘‘आप चिंता न करें। सब ठीक हो जाएगा। इस दुर्योग के उपचार में करीब दस हजार का खर्च होगा। सोने का साँप मंगवाना होगा एवं कुछ यंत्रों को प्राण प्रतिष्ठित करना होगा।’’
साथ आई स्त्री ने तुरन्त पाँच सौ के बीस नोट पण्डितजी को अर्पण किए फिर याचना भरे स्वर में दीन आँखों से देखते हुए बोली, ‘‘पण्डितजी, यह ठीक तो हो जाएंगे?’’
‘‘सब कुछ ईश्वराधीन है। मैं राहू बिठाने का प्रयास करूंगा। आप मुझसे सम्पर्क करते रहें।’’ इतना कहकर पण्डितजी ने आँखें घुमा ली।
इससे अधिक समय एक आदमी के लिए पण्डितजी के पास नहीं था। उनका मुखचन्द्र खिला जाता था, सुबह-सुबह अच्छा बकरा मिल गया। उसके बाद अगले सज्जन ने पत्री बताई। वह आयकर कमिश्नर थे एवं हृदय रोग से पीड़ित थे। नमक, घी एवं वसायुक्त भोजन पर प्रतिबन्ध था। अब कोरोनरी बाईपास करवाने दिल्ली जा रहे थे। ऑपरेशन की गंभीरता के मद्देनजर उनका हृदय फटा जाता था। पण्डितजी ने पत्री देखकर इसका कारण पितृश्राप योग बताया एवं इसके निवारण हेतु प्राण प्रतिष्ठित किये महामृत्युंजय यंत्र आदि दिए। उन्होंने भी पण्डितजी को एक हजार नजर किये। सूखी रोटी, रूखा भोजन करने के कारण उनके कपोल, आँखें धँसी नजर आती थी। सच ही है, रोगी शरीर के लिए नाना प्रकार के भोग व्यर्थ हैं।
यूँ एक-एक कर लोग जन्मपत्री दिखाते गए। पण्डित अपना उल्लू सीधा करने में माहिर था। अपने वाक्चातुर्य से ऐसी-ऐसी बातें करता कि लोगों की आँखे फैल जाती। रुपये तो लोगों की जेबों से ऐसे निकलवाता जैसे कोई उड़ती चिड़िया पकड़ लेता है। वह निदान भी लोगों की सामर्थ्य के अनुरूप बताता। वह भी कहाँ गलत था, जैसे देवता होते हैं वैसी ही पूजा होती है।
मेरा नंबर आने के पहले एक प्रौढा स्त्री आई। उसके साथ उसकी बेटी भी आई थी। लड़की की उम्र कोई बाईस-तेईस होगी। उसकीशादी छः माह पूर्व हुई थी पर शादी के तीन माह बाद ही उसके पति का एक दुर्घटना में निधन हो गया। लड़की के पिता शहर के माने हुए उद्योगपति थे। शादी के पहले उसकी पत्री भी मिलवा ली थी फिर भी यह हादसा हो गया। प्रौढ़ा स्त्री ने लड़की की जन्मपत्री बताई एवं उसका भविष्य जानना चाहा। पण्डितजी भृकुटियाँ ऊँची कर बोले, ‘‘माना कि पत्री मिलवा ली गई थी पर इसके ग्रह इतने कठोर हैं कि मिलवाने के बाद भी सही फल नहीं दिया। केतु की दशा ऊपर से आ गई। केतु की दशा, व्यक्ति की श्री, सम्पत्ति का ऐसे नाश करती है जैसे पाला खेती का। इसके बाद उन्होंने ‘रामचरित मानस’ की एक चौपाई सुनाई ‘दुष्ट उदय जग आरत हेतू, जथा प्रसिद्ध अधम ग्रह केतु।’ स्त्री की दशा देखकर उन्होंने कहा, ‘‘अगले दो वर्ष में इसका फिर विवाह होगा एवं इसे राजकुमार-सा लड़का मिलेगा।’’ प्रौढ़ा की आँखों में आशा की चमक फैल गई। इसके बाद पण्डितजी उसे तरह-तरह के यंत्र दिखाने में मशगूल हो गए।
बीच-बीच में पण्डितजी का एक लड़का भी आ-जा रहा था। वह करीब पन्द्रह वर्ष का होगा। अपनी ढीली गर्दन आसमान की ओर करके हर बार एक ही बात पूछता, ‘‘पापा मेरी जन्मपत्री कब देखोगे?’’ उसके बार-बार आने से पण्डितजी खीज उठते पर पागल पर उनका भी क्या वश था ? क्या उसे ठीक करने के लिए कोई यंत्र न था?
मेरा नम्बर आने में अब कुछ ही समय था। लोगों के दुःख सुनते-सुनते मेरे ज्ञान-चक्षु खुल गए। मुझे लगा मेरे आगे आए सभी व्यक्तियों में, मैं सर्वाधिक सुखी थीं। जिसके पास देखने को दो आँखें हो, जिसका हृदय ठीक से धड़कता हो, जिसके दो हाथ श्रमरत हों, जो चुपड़ी रोटी खा सकता हो एवं जिसका ऐसा स्नेहमय परिवार हो, उससे सुखी एवं धनी और कौन हो सकता है? प्रभु का मुझ पर कैसा अगाध स्नेह है। प्रभु ने मुझे अमूल्य नेमतें बख्शी, पर मैं उनका मूल्य नहीं समझ पाया। क्या इतनी दरिद्रता में भी मैं अपनी दोनों आँखों को असंख्य धन लेकर बेच दूंगा? क्या धन के बदले ईश्वर मुझे अन्य दुख दें तो क्या मैं स्वीकार कर लूंगा? मैं कितना कृतघ्न हूँ। अभी तो मैंने उसके अमूल्य उपहारों, उसकी बेशकीमती नेमतों के लिए उसका शुक्रिया भी अदा नहीं किया।
अनायास मेरे हाथ ऊपर उठ गए। हृदय आभार से भर गया, तुम्हारा लख-लख शुक्रिया प्रभु, मैं जहाँ हूँ वहीं ठीक हूँ। मुझे कृपा कर वहीं रखियो। मुझे अब कुछ भी नहीं चाहिए। मेरी आँखे कृतज्ञता से आर्द्र हो गई।
मेरा नम्बर आता, उसके पहले मैं चुपचाप वहाँ से उठकर चला आया।
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14.12.2002