हवेलियाँ

विदेशी सैलानियों से भरी वातानुकूलित लक्ज़री बस ’सम’ गाँव की ओर भागी जा रही थी।

‘डेविड स्मिथ’ दूसरी कतार में दायें खिड़की के पास बैठा मीलों पसरे रेगिस्तान को निहार रहा था। चारों और मिट्टी का समुद्र फैला था। जब-तब रास्ते में कुछ कंटीले पेड़ या हल्के हरे रंग के कंटीले पौधे दिखाई दे जाते। क्षितिज तक एक भी बड़ा पेड़ दृष्टिगोचर नहीं होता था। बस गाँवों के समीप होकर गुजरती तो फूस के छप्पर वाली नुकीली झोंपड़ियांँ एवं मिट्टी से बने मकान भी दिख जाते। ‘जेन’ भी उसके पास बैठी इन नजारों का आनन्द ले रही थी। 

जेन उसकी दूसरी पत्नी थी। गत वर्ष ही उसने जेन से विवाह किया था। उसकी पहली पत्नी ‘नेली’ उसके साथ सात वर्ष रही। वर्षों उसने उसके खर्रांटे बर्दाश्त किये, शराब में डूबे रहने की आदत को सहा, पर अंततः तलाक दे ही दिया। नेली क्रोधी भी थी। बात-बात में बिगड़ जाती। खुद जलती उसे भी जलाती। तलाक के कई महीनों तक वह खोया-खोया, उदास एवं अवसाद में रहा पर अपने निर्णय का उसे कोई गम नहीं था। डेविड जानता था उसने सही निर्णय लिया है। क्रोधी का संग अंगारों की तरह होता है। जलते हैं तो तन जलाते हैं एवं बुझते हैं तो कपड़े स्याह कर जाते हैं। जिसके साथ जीने में आनन्द ही न रहे, जीवन पल-पल बोझ बन जाये, सांस-सांस पर समझौता करना पड़े, उससे पल्ला झाड़ना अच्छा। अभी तो वह मात्र तीस वर्ष का था, आगे सारी उम्र पड़ी थी,फिर शिकागो जैसे विकसित शहर में यह सभी बातें आम थी। समाज एवं संस्कृति परमिसिव हो तो आदमी अपने स्वातंत्र्य से क्यूँ न जिये।

जेन उसी के साथ मेग्नेट स्कूल में टीचर थी। दोनों एक दूसरे के रूप-रंग, बुद्धि के कायल थे। वह जेन के ब्लोंड हेयर एवं गहरी आँखों का दीवाना था। जेन उसके शांत स्वभाव एवं हल्की नीली आँखों की प्रशंसक थी। ‘क्रेब्स’ एवं ‘बीफ’ दोनों का पसंदीदा आहार था।

खिड़की से आती ठण्डी हवा में डेविड के हल्के भूरे बाल लहरा रहे थे। देशाटन उसका प्रिय शौक था एवं इण्डिया देखना चिर-स्वप्न। उसने इण्डिया के बारे में बहुत पढ़ा-सुना था। यहाँ की गरीबी, भुखमरी के बारे में उसने बहुत सुन रखा था पर यहाँ की संस्कृति एवं आध्यात्मिक ऊँचाइयाँ उसे सदैव आकर्षित करती। इण्डिया आये उसे दस दिन हो चुके थे। अब तक उसने मुम्बई, आगरा, अजंता एवं अन्य कई स्थान देख लिये थे पर रेगिस्तान देखने की उत्कट इच्छा बरकरार थी। कल शाम ही वे जैसलमेर आये थे। इस शहर में कदम रखते ही उसे विचित्र तरह के अनुभव हो रहे थे। न जाने क्यों सारा शहर उसे परिचित, देखा-भाला नजर आता था। कल डिनर  के बाद उसे सिगरेट की तलब हुई तो वह खुद बाहर आया एवं न जाने किस गली में जाकर सिगरेट ले आया। बाद में वह खुद हैरान हुआ। वह वहाँ पहुँचा कैसे ?

सम के रेगिस्तान पर अब वह जेन के साथ लेटा था। बार-बार बालू को मुट्ठी में लेकर गिराते हुए वह रोमांचित हो रहा था। ओह ! कितनी नर्म, कितनी मुलायम मिट्टी है थार की। सुना है यहाँ के लोग भी उतने ही नरम दिल है। दिखने में लम्बे, गोरे-चिट्टे, सूरमा, पर हृदय से नवनीत। वह स्वयं ज्योग्राफी का टीचर था एवं उसने कहीं पढ़ा भी था कि किसी भी स्थान के लोग उतने ही गहरे होते हैं जितना गहरा वहां पानी मिलता है। गाइड ने उन्हें बस में बताया था कि यहाँ कभी इस देश की प्रसिद्ध नदी सरस्वती बहती थी जो सदियों पहले विलुप्त हो गयी। वह मन-ही-मन सोचने लगा तब यहां मिट्टी सोना उगलती होगी।

शाम ढलने लगी थी। मिट्टी में अब ठण्ड का अहसास होने लगा था पर डेविड को तो यह और भी अच्छा लग रहा था। शिकागो की ठण्ड के मुकाबले यहाँ की ठण्ड कुछ भी नहीं। सैलानियो को यहाँ की गर्मी सहन नहीं होती इसीलिये अधिकतर सैलानी  नवम्बर-दिसम्बर में आते थे। एक दो बार उसने खड़े होकर जेन के साथ दौड़ने का भी प्रयास किया पर यहाँ फर्राटेदार दौड़ कहाँ सम्भव थी? पाँव हर बार मिट्टी में धँस जाते मानो मिट्टी मेहमानों को छोड़ने को तैयार ही नहीं। जिस देश में अतिथि देवता हो, जिसके इंतजार में पलक-पाँवड़े बिछते हो भला वहाँ की मिट्टी अपने मेहमानों को यूँ कैसे छोड़ेगी? दोनों हाँफते हुए फिर आकर पसर गये। वह बरमूडा, टी-शर्ट पहने था एवं जेन शार्ट्स एवं टाॅप। अब उसे लगा मानो मिट्टी उसके पाँवों को पिण्डलियों तक पखार रही है। उसने एक मुट्टी बालू उठाई एवं जेन की गोरी जाँघों पर डालने लगा। जेन मुट्ठियाँ भींचे खिलखिला रही थी। ओह! वह कितना उत्तेजक, नर्म, गुदगुदा अहसास था। बाद में सभी सैलानियों के साथ उसने एवं जेन ने ऊँट की सवारी की। आज उन्हें पूरे ग्रुप के साथ यहीं कैम्प करना था पर फिलहाल दोनों डूबते हुए सूर्य के गोले को निहार रहे थे। यकायक उसे लगा अभी अमेरिका में सुबह होगी। वहाँ सूर्योदय हो रहा होगा। एक ही सूर्य एक ही समय में कहीं सूर्योदय का आनन्द देता है तो कहीं सूर्यास्त का। वस्तुतः सूर्य न तो उदय होता है न अस्त, यह तो मात्र मनुष्य का भ्रम है, अज्ञान है। 

रात डिनर के बाद उसने जेन के साथ ब्लैक काॅफी में रम ली एवं दोनों फिर मिट्टी पर आकर लेट गये। ऊपर तारों भरा खुला आसमान चमक रहा था। ग्रह, नक्षत्र एवं तारों से घिरा चन्द्रमा ऐसे लग रहा था मानो बुद्धिमानों की गोष्ठी में किसी ब्रह्मर्षि का व्याख्यान हो रहा हो। वह जेन को बता रहा था कि रेगिस्तान के लोग बहुत अच्छे एस्ट्रोलोजर होते हैं क्योंकि रेगिस्तान में खुला आसमान होने से तारों की चमक बढ़ जाती है एवं ग्रह-नक्षत्रों का अध्ययन सरल हो जाता है। खुले आसमान में ही तारों को देखा-पढ़ा जा सकता हैं। सदियों पहले  ऊँटों के काफिलों पर चलते यहाँ के लोगों ने ग्रहों का ज्ञान हासिल कर लिया था। इण्डिया में ही नहीं संसार भर में जहाँ-जहाँ रेगिस्तान है वहाँ अच्छे एस्ट्रोलोजर होते हैं। ईसा के पैदा होते ही तारों को देखकर एस्ट्रोलोजर उनके जन्मस्थल तक आ गये थे। ज्योग्राफी के व्यापक ज्ञान ने डेविड को एक नया जीवन दर्शन दिया था। वस्तुतः संसार के सारे धर्म, संस्कार एवं प्रथाओं का जनक भूगोल ही है। सारी व्यवस्थाएँ ज्योग्रफी की बनायी हुई है, मनुष्य के मन में व्यवस्थाओं की अनुपालना का भय रहे अतः धर्म की छाप लगा दी गई। अरब में मुर्दों को दफनाने की प्रथा प्रारंभ हुई क्योंकि वहाँ जलाने को लकड़ियाँ ही कहाँ थी? लोग इसकी अनुपालना करे अतः धर्म की तदनुरूप व्याख्या हुई। भारत वनों से आच्छादित था अतः खेती करने के लिए यहाँ वनों को काटना अपरिहार्य था। यहाँ धर्म ने देह को पंचतत्त्वों में विलीन करने की बात समझायी तो अरब में कयामत के दिन खुदा के न्याय की। उत्तरी यूरोप में बड़े-बड़े गिद्ध बच्चों को उठा ले जाते थे, वहाँ मुर्दो को वल्चर्स को डालने की प्रथा बनायी गयी। धर्म का निर्माण धर्मवेत्ताओं ने नहीं, समय, काल एवं परिस्थितियों ने किया। धर्मवेत्ता तो मात्र व्यवस्थापक थे जिन्होंने परमात्मा के नाम पर भय की मोहर लगायी। धर्म का उद्भव परिस्थितियों ने किया एवं धर्म का प्रसार धर्मांधता ने। जन्म से मृत्यु तक की सारी व्यवस्थाएँ ज्योग्राफी ने ही निर्धारित की।

डेविड को लगा उसका मन अब खुले आसमान की तरह दार्शनिक फैलाव ले रहा है। पास ही लेटी जेन को उसने अपनी ओर खींचा एवं उसके गालों पर अंगुलियाँ फेरने  लगा।  रफ्ता-रफ्ता उसकी जादुई अंगुलियाँ उसके कानों के सिरों तक पहुँचने लगी थी। जेन जानती थी अब वह उसके बालों को सहलायेगा एवं फिर धीरे से उसके गर्दन के पिछले हिस्से को दबायेगा। डेविड ने आँखें नीचे कर उसके ब्राॅ-लेस टाॅप को देखा। वह अब जेन की ज्योग्राफी पढ़ रहा था। थार की हल्की ठण्डी बयार शराब और शबाब दोनों के नशे को द्विगुणित कर रही थी। दोनों की आँखों में शरारत नाचने लगी। दोनों कैम्प में चले आये।

सुबह पूरा ग्रुप नगरसेठ की हवेलियों के आगे खड़ा था। यहाँ पहुंचने के लिये उन्हें कुछ दूर पैदल भी चलना पड़ा। पार्किंग फासले पर थी। पूरे रास्ते गाइड एवं उनके साथ-साथ भिखारियों का झुण्ड साथ चलता रहा। बच्चे, बड़े, अधेड़ स्त्री-पुरूष सभी प्रकार के भिखारी। फटे, चिथड़े पहने अर्धनग्न बच्चे कई बार उनके कपड़े खींच लेते। याचना, करुणा एवं दीनता भरी निगाहों से देख, हाथ आगे बढ़ाकर कहते, डाॅलर सर! जिस देश के भिखारी भी डाॅलर का मूल्य समझते हो, वहाँ की राजनीति डाॅलर के आगे पंगु हो जाये तो आश्चर्य क्या है ? यह सब देखकर डेविड को अमेरिकन होने पर गर्व हुआ, जहाँ हर बच्चे को शिक्षित कर स्वाभिमानी बनाना सरकार का कर्तव्य है। उसे यहाँ के राजनेताओं पर भी गुस्सा आया जिन्होंने आजादी के दशकों बाद भी इनकी सुध नहीं ली। मुम्बई में उसने एक बच्चे पर रहम कर एक डाॅलर दिया भी, तब सौ और भिखारी उसके पीछे पड़ गए। तब ग्रुप लीडर ’बिल’ ने पूरे ग्रुप को हिदायत दी कि भारत प्रवास के दरम्यान कोई भीख नहीं देगा। उसे सर्वाधिक क्रोध युवा भिखारियों पर आया जिन्होंने शक्ति एवं क्षमताएँ होते हुए भी इस पेशे को अपनाया। स्वाभिमान का उनके लिए कोई मूल्य नहीं। रास्ते में कई जगह चौपालों पर बतियाते लोग उन पर छींटाकशी भी करते। समय की यहाँ कोई कमी नही, अनुशासन का कोई महत्त्व नहीं। डेविड सोचने लगा गरीब राष्ट्रों की गरीबी का कारण वे स्वयं भी है। समय एवं अनुुशासन का महत्त्व समझे बिना कोई भी राष्ट्र प्रगति के सोपान नहीं छू सकता। ब्रिटिश राज्य का सूर्य एक समय शायद इसीलिए अस्त नहीं होता था। जिन्हें सोना बनना है उन्हें तपना भी पड़ेगा।

पाँच हवेलियाँ एक कतार में खड़ी थी। हवेलियों के छज्जों एवं झरोखों की नक्काशी देखते ही बनती थी। हवेलियों का शिल्प वैभव आज की उत्कृष्ट इंजीनियरिंग को भी बौना कर रहा था। डेविड ने सर उठाकर देखा तो दंग रह गया। तभी उसे बिजली के करंट की तरह एक झटका-सा लगा। 

यकायक वह एक अलौकिक अनुभूति से भर गया, सारे शरीर में एक विद्युत प्रवाह-सा बह गया। सिर से पैर तक वह पसीने में नहा गया। उसे इन हवेलियों का एक-एक पत्थर जाना पहचाना-सा लगने लगा। अभी वह हवेली के भीतर प्रविष्ट नहीं हुआ था पर उसे भीतर के सारे रास्ते, कमरों की लोकेशन याद थी। उसे फिर एक झटका लगा। वर्षों पूर्व की कोई स्मृति उघड़ आयी, जिह्वा मौन हो गयी। पल भर के लिये वह आँख मूंदकर खड़ा हो गया। एक दिव्य प्रकाश से आती एक हल्की आवाज को सुनकर वह सहम गया, ‘सेठ किरोड़ीलाल ! क्या अपनी बनायी इन हवेलियों को नहीं पहचानते ?’ वह यंत्रचालित-सा जेन के साथ हवेली के अंदर प्रविष्ट हुआ। 

भीतर आते ही उसके स्मृति-नेत्र खुल गये। गाइड पूरे ग्रुप को इन हवेलियों के बारे में समझा रहा था लेकिन डेविड उससे हटकर स्मृतियाँ बटोरने लगा था। यह चौक जहाँ वह सपरिवार बैठा करता था। सामने दो बड़े-बड़े स्टोर जहाँ अनाज के भण्डार भरे रहते थे। मुख्य द्वार के सामने वाला कमरा जहाँ बैठकर वह अनाज का कारोबार करता था। कमरे में रखे गद्दे, मसक अब पुराने हो चुके थे। इन्हीं के सामने ग्राहक बैठा करते थे। पास ही एक चाँदी की पुरानी डिब्बी रखी थी। तब इसमें अफीम भरी रहती थी। वह चाँदी की सींक से व्यापारियों, ग्राहकों एवं अतिथियों की अफीम से मनुहार करता था। ऊपर उसका बेडरूम, आगे दालान जिसकी छतों पर उसने हाथी दाँत का काम करवाया था। ऐसी एक नहीं पाँच हवेलियाँ उसने एक साथ बनायी ताकि उसकी सात पीढ़ियों तक तकलीफ नहीं हो पर मात्र पच्चास वर्षों में ही उसकी पीढ़ियाँ कहाँ चली गयी?

डेविड की स्मृतियों के पन्ने एक-एक कर उघड़ने लगे। ग्रुप से हटकर वह पुनः दालान में आया। जेन उसके इस व्यवहार से हैरान थी पर ग्रुप के साथ ही खड़ी रही। अब वह दालान में अकेला था। कोने से उसने एक पत्थर हटाया फिर उसके बायें हाथ डालकर एक पत्थर और हटाया। वह हैरान रह गया…..सोने की ईंटे एवं जेवरात जो उसने कभी गुप्त स्थान पर छुपाये थे, अब भी वहीं पड़े थे। यह जगह उसने किसी को नहीं बतायी थी। इसलिए शायद उसके मरने के बाद किसी ने इस जगह  की थाह नहीं ली। उसने वापस गुप्त स्थान को बंद किया एवं इधर- उधर देखने लगा। अब उसकी सारी स्मृतियाँ सजीव हो उठी। 

सेठ किरोड़ीलाल तब जैसलमेर के नगरसेठ थे। पाँच पुत्र, दो पुत्रियाँ, पत्नी पार्वती एवं उसके चार भाई जो उससे कुछ दूरी पर रहते थे। सारा शहर यहाँ तक कि शहर का राजा भी किरोड़ीमल की मिल्कियत का लोहा मानता। वह अक्सर राजा के यहाँ नजराना भिजवाता रहता। राजभय का प्रयोग कर वह असंख्य मजदूरों, कामगारों एवं साथी व्यापारियों का शोषण करता। हवेलियों के निर्माण में पसीने बहाने वाले कई मजदूरों को तो उसने बिना मेहनताना दिये ही भगा दिया था। यह पाँचों हवेलियाँ उसने एक-एक पुत्र के लिए बनवायी थी एवं हवेलियाँ पूरी होने पर उसने पार्वती से कहा था, भाग्यवान ! मैंने सात पीढ़ियों तक का इंतजाम कर दिया है। मात्र छोटे से अंतराल में यही हवेलियाँ सूनी पड़ी थी एवं कमरों की छतों पर चमगादड़ें लटक रही थी।

डेविड रात कैम्प में पड़ा अतीत के पन्ने उलट रहा था। आज थकी होने से जेन तो जल्दी सो गई पर डेविड की आँखों में नींद कहाँ थी। वह तो किसी ओर समय को ढूंढ रहा था। उसे एक-एक कर सब कुछ याद आ रहा था। 

पिछले जन्म में उसकी पार्वती से जरा भी नहीं बनी, लेकिन समाज के भय से वह उसे सहन करता रहा। रात अक्सर वह हीराबाई के यहाँ अपने मित्रों के साथ होता। घण्टों मुजरे का कार्यक्रम होता, कभी-कभी वह वहीं सो जाता। काश ! उसे आज की तरह तलाक का विकल्प होता तो वह यूँ सड़-सड़ कर नहीं मरता। नगर सेठ होते हुए भी वह समाज का कानून तोड़ने की हिम्मत नहीं कर सका। अमेरिका में जीने की कितनी स्वायत्तता है। उसकी नेली से नहीं बनी तो उसने जेन से विवाह कर लिया। 

पिछले जन्म में उसने गरीबों एवं किसानों का शोषण कर अकूत धन सम्पदा जोड़ी। बैठे, सोते, टहलते, भोजन करते उसका चित्त धन जोड़ने का ही अहर्निश चिंतन करता। तब उसे क्या पता था कि यह सारी माया अनित्य है। रस्सी से नथे हुए बैल की तरह वह माया की डोरी से बँधा था। यह मंदमति इंसान स्वयं को नित्य मानकर संग्रहण करता है एवं अंततः पाप-पथ पर अकेला जाता है। काल उसके सारे संग्रहण को पल भर में मिटा देता है। अगले पल की खबर नहीं, अगली पीढ़ी का पता नहीं फिर भी इंसान क्या-क्या बसा लेता है? काश! उस धन से उसने विद्यालय, धर्मार्थ संस्थाएँ बनवायी होती, पुण्य किया होता तो उसका यश अमर होता। आज शाम उसने पता कर लिया था कि उसकी मृत्यु के बाद उसके पुत्रों में धन के बँटवारे को लेकर भारी कलह हुई एवं इसी कलह में उसका परिवार वैसे ही नष्ट हो गया जैसे अपनी ही रगड़ से लगी आग से सारा जंगल भस्म हो जाता है। बाद में उसके पुत्रों ने सारी धन-सम्पदा जुए में उड़ा दी एवं आज उसके वंशज अत्यन्त निर्धन अवस्था में जीवन यापन कर रहे थे। काश ! उसने अपने पुत्रों को धन की जगह विरासत में ज्ञान एवं जिम्मेदारी का अहसास दिया होता तो उसकी पीढ़ियों की यह दुर्दशा नहीं होती। तब के कई निर्धन परिवार संघर्ष कर अब वैभवशाली बन गए थे।

उसे उन मित्रों, रिश्तेदारों की भी याद आई जिनसे वह अकारण कलह करता रहता था। काश! उसे अहसास होता कि इस जन्म की संगति फिर नहीं होती। जहाँ आते ही कूच का नगाड़ा बज जाता है, इस छोटे-से अंतराल वाले संसार में भी हम प्रीत की रीत नहीं निभा पाते। 

उसे अपने मृत्यु के अंतिम क्षण भी याद आये। वह दमा के रोग से मरा था। राजवैद्य उसका इलाज कर रहे थे पर उन्हें भी क्या पता था कि गतायु पुरुष की चिकित्सा व्यर्थ होती है। मरणांतक वह मोह-माया को पकड़े था। जीवन को इतना पकड़ने पर भी मृत्युपाश ने उसे नहीं छोड़ा। अंतिम समय में वह कितना भयभीत था। तब उसे क्या पता था कि मृत्यु हमें नहीं मारती, मृत्यु उसे मारती है जो हम नहीं है। समय से फल लगता है एवं समय से ही झड़ जाता है। काश! उसे पता होता तो वह परमशांत होकर शरीर छोड़ता। तब मृत्यु उत्सव बन जाती। वह कितना आत्मघाती था, हाय ! हाय ! वह ठगा गया। जबतक मनुष्य की देहात्म बुद्धि का हेतुभूत अज्ञान निवृत्त नहीं होता तब तक वह परमशांत हो भी नहीं सकता। जब तक अज्ञान ग्रंथि का छेदन करने वाले ज्ञान की थाह नहीं मिल जाती तब तक इंसान देह एवं उससे जुड़े सुखों को ही सर्वोपरि मान लेता है। परमार्थ तत्त्व का प्रकाश ही उसे इस दुस्तर संसार से पार कर सकता है।

डेविड के जीवन में आज एक नये ज्ञान-सूर्य का उदय हुआ था। अज्ञान के कोहरे को मिटाकर यह नया ज्ञान उसकी आत्मा को नवप्रकाश से आलोकित कर रहा था। उसकी स्मृतियाँ अब भी उघड़ रही थी। ग्रीष्म में जल जैसे प्रकाश किरणों में चला जाता है, दृष्टिगोचर नहीं होता, उसी तरह आत्मा परमात्मा में विलीन होकर पुनः प्रगट हो जाती है। जगत प्रपंच एवं माया से आच्छादित होने के कारण ही आत्मस्वरूप विस्मृत है। सारी उम्र साथ रहने पर भी आत्मा से उसका परिचय नहीं होता।

दहकते हुए लोहे के बाण की तरह पूर्वजन्म की यादें उसका पीछा करने लगी थी। तब वह पक्का शाकाहारी था। गो-हत्या को वह जघन्य पाप मानता था। आज ‘बीफ’ उसका पसंदीदा आहार था। तब वह वैष्णव महाजन था एवं ईसाइयों का कट्टर विरोधी था। आज वह स्वयं क्रिस्चियन था। तब शहर में चर्च बनने पर उसने पुरजोर विरोध किया था एवं उसी के प्रयासों से यहाँ चर्च नहीं बन पाया था। तब वह कट्टर हिन्दू था, आज कट्टर ईसाई। तब उसने विधवा विवाह का पुरजोर विरोध किया था जबकि आज उसी ने विधवा जेन से विवाह किया। तब वह यौनिक कुण्ठा के साथ जिया जबकि आज उसे पूरी स्वायत्तता थी। इंसान के खान-पान, विश्वास एवं धर्म पर इंसान का क्या वश है ?यह पंचभौतिक शरीर काल, कर्म, स्थान एवं गुणों के अधीन है फिर हम विभिन्न व्यवहारों की तुलना कैसे करें ? कैसे जस्टीफाई करें ?

विचारों के एक तेज झंझावत ने डेविड को घेर लिया था। वह सोच रहा था कि हम कहाँ पैदा होते हैं, यह क्या हमारा चयन है? एक ही बात एक समाज में पाप है दूसरे में पुण्य। एक ही कार्य एक समाज में प्रशंसनीय है, दूसरे में निंदनीय? एक ही बात एक समाज में बुद्धिमता, विवेक एवं चरित्र का आईना है तो दूसरे में मूर्खता, मूढ़ता एवं चरित्रहीनता का मापक है? वह तब पापी था अथवा अब? क्या विश्व स्तर पर हम पाप-पुण्य की सीमा-रेखाएँ खींच सकेंगे ? क्या हम धर्म एवं प्रचलित व्यवस्थाओं का व्यापक अर्थ ढूंढ सकेंगे ? क्या हम संस्कृतियों, व्यवस्थाओं एवं धर्म के सार-तात्पर्य का वैश्वीकरण कर सकेंगे ? क्या हम अपने ही चश्मे से देखने के आदि नहीं हो गये हैं ? क्या हमारी आत्मा पर अंतिम सत्य की दस्तक होगी ? क्या हम जीवन का यर्थाथ दर्शन समझ सकेंगे ? 

इसी उधेड़बुन में डेविड को फिर एक झटका लगा। उसे फिर एक प्रकाशपुंज दिखायी दिया एवं देखते-देखते, क्षणभर में, वह नींद के आगोश में चला गया। 

सुबह उठा तो वह मात्र वर्तमान की स्मृति में था। कल का अलौकिक घटनाक्रम अब उसकी स्मृति से विस्मृत हो चुका था। जेन पास ही उसके सीने पर सर रखकर सो रही थी। उसे लगा वह देरी से उठा है। उसने जेन को जगाया। अलसाई जेन उठकर बिस्तर पर बैठ गयी। वेटर अब दरवाजे पर दस्तक दे रहा था।

दोनों कमरे के बाहर बैठे मोर्निंग टी का लुत्फ ले रहे थे। इण्डिया में यह उनका अन्तिम पड़ाव था। कल रात उन्हें शिकागो वापसी की फ्लाइट पकड़नी थी।

जैसलमेर की नीरव सड़कों से एक टूरिस्ट बस पुनः लौट रही थी। पीछे यादों के गुबार उड़ रहे थे।

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11.04.2003

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