आज सुबह वह फिर मेरे साथ था।
माॅर्निंग वाॅक के आनन्द से वह अनभिज्ञ नहीं था। कालीन की तरह बिछी नरम मुलायम घास पर नंगे पाँव चलना, चहकती चिड़ियों को देखना एवं खुशबू चुराती हवा के आनन्द को उसने पहले भी महसूस किया था।
वह मुझसे साठ वर्ष छोटा था। उम्र का इतना अन्तर होने पर भी हमारा रिश्ता प्रगाढ़ था।
हम दोनों में अनुबन्ध था कि हम हर रविवार माॅर्निंग वाॅक पर साथ जायेंगे। उसे मुझ पर पूरा भरोसा था।
बाकी सुबह अपने कन्धे पर पांच किलो का बैग लादे, हाथ में वाटर बोटल लटकाये वह टेक्सी की तरफ लपकता एवं वहाँ पहले से इन्तजार करते अन्य कैदी बच्चों के साथ मिल जाता। उसे देखते ही अन्य बच्चों की बाँछें खिल जाती, ‘यह भी फँसा’।
सभी बच्चे एक ड्रेस में होते। व्हाइट शर्ट, हल्के ग्रे कलर की पेण्ट एवं कमर पर बंधी ब्लैक बेल्ट जिसके सेन्टर में बकल पर स्कूल का नाम खुदा होता। पाँवों में सफेद मोज़े जो आधे धराशायी होते एवं काले शूज जिनमें आधों की लेेसेज खुली होती। काॅलर पर ग्रे कलर की टाई जिस पर सफेद तिरछी धारियाँ होती। कई बच्चों की टाई घूमकर बाहों पर तो कइयों की कमर पर लटकी होती। एक बच्चा टैक्सी में बैठते ही टिफिन खाना प्रारंभ कर देता। दूसरे उसे आगाह कर देते ‘हम टीचर को कह देंगे। अब लंच में हमारे साथ नहीं बैठना।’
वापस लौटते वक्त उसका कन्धा सुबह से अधिक झुका होता। इस बार बैग में होमवर्क का अतिरिक्त भार होता।
उसे इस हालत में देखकर मुझे वर्तमान शिक्षा पद्धति पर कोफ्त होती। यह तो पंख फैलाकर उन्मुक्त उड़ान भरने का समय है, अगर अभी से ही इनके पंख बांध दिए तो ये पंछी उडे़ंगे कैसे ? बगीचे में बहती उन्मुक्त पवन पर पहरे लगा दिये तो कलियाँ खिलेंगी कैसे। कदाचित खिल भी गई तो क्या उनमें वो सुगंध होगी ? काश! विद्यालयों में आधे पीरियड्स गेम्स के होते। अगर पांच जमात तक परीक्षाएँ न भी करो तो क्या फर्क पड़ता है ? बच्चों का विकास तो स्वतंत्रता एवं स्वायत्तता की खुली उड़ान में ही हो सकता है। हमने तो इन्हें परीक्षाओं एवं होमवर्क की रस्सियों में जकड़ दिया है। बच्चों की नैसर्गिक प्रतिभा फिर कैसे पल्लवित होगी ? कैसे ये मेधावी एवं स्मृतिधर बनेंगे ? अब आगे कुण्ठाओं से भरी न्यूरोटिक पीढ़ी मिले तो इनका क्या दोष।
स्कूल से आते ही वह माँ के साथ कमरे में बंद हो जाता। बीच में एक-दो बार उसके रोने की आवाज भी आती। बहू की आवाजें अक्सर बाहर तक आती-‘पढ़ ले, नहीं तो गधे चराएगा।’
वह मेरा पोता था, मेरी आँख का तारा। नाम चीकू, उम्र छः वर्ष। नर्सरी एवं के.जी. पार कर अब पहली जमात में था।
ठीक सामने सीधी जाती सड़क के उस छोर से सूर्योदय हो रहा था। वह बालसूर्य की ओर सीधे भागे जा रहा था। हल्का जैसे देह में रुई भरी हो। उसका बस चलता तो बाल-हनुमान की तरह उसे निगल भी लेता।
यकायक उसके नन्हे कदम रुक गए। अपनी नन्ही अंगुलियों से वह मेरी प्रथम अंगुली पकड़ कर खड़ा हो गया एवं ऊपर गर्दन कर मेरी तरफ देखा। उसकी आँखों में असीमित चंचलता एवं चमक थी। दायीं ओर बिना बाहों का बनियान एवं आधे पाँवों तक मैली धोती पहने, उकडूं बैठा बद्री हलवाई जलेबियाँ बना रहा था।
उसे पूरा विश्वास था, दादा जलेबियाँ खिलाएंगे। गर्म-गर्म , गोल-गोल, रस से भरी। वह कल सब बच्चों को यह बात बताएगा। उसने एक बार मम्मी से पूछा था, ‘जलेबी’ में रस कैसे डालते हैं ? तब मम्मी का पल्लु सिर से उतर गया था। ‘इंजेक्शन से !’ इतना कहकर वह खिलखिलाकर रसोई में चली गई थी।
उसने एक बार फिर याचक आँखों से मेरी ओर देखा। भरे पेट मोर्निंग वाॅक करना मेरे बस में नहीं था।
मैंने रोषपूर्ण दृष्टि से उसकी ओर देखा। वह समझ गया जलेबी खाने से दाँत खराब होते हैं।
वह अब मुझसे कट्टी था। उसका बस चलता तो वह मुझे मेरी ही छड़ी से मारता।
वह कुछ दूर चलता रहा पर उसकी चाल में अब वो चपलता नहीं थी। कुछ नहीं सुझाई दिया तो उसने प्रश्नों की झड़ी लगा दी।
‘दादा! आसमान नीला क्यूँ होता है ? काला क्यों नहीं ?’
‘मुझे नहीं मालूम। मम्मी से पूछ लेना।’ उत्तर न आने से मेरी खिसियाहट देखते बनती थी।
उसकी आँखें विजय गर्व से चमक उठी। आता कुछ नहीं बस दादा बनते हैं। उसने फिर प्रश्नों का पहाड़ खड़ा कर दिया।
‘बाल काटते हुए दर्द क्यों नहीं होता ?’
‘कृष्ण भगवान काले क्यूँ थे?’
‘पिल्ले हर रंग के क्यूँ होते हैं ?’
‘रोने पर आँसू क्यों बहते हैं ?’
‘सूर्य रात को क्यूँ नहीं उगता ?’
मैं एक भी प्रश्न का उत्तर नहीं जानता था। मैंने करुण नेत्रों से उसकी ओर देखा। उसकी आँखों में अंगूर बिखरे थे। दिल बल्लियों उछल रहा था। जलेबी दिलाने में जोर आता है तो अब भुगतो !
कितना निर्मल, कितना पवित्र विरोध था उसका। इंसान तभी तक सहज है जब तक उसके भीतर का बच्चा जिंदा है। बड़े होते-होते ज्यों-ज्यों यह बच्चा दम तोड़ता है इंसान पाप, नफरत, वैमनस्य, घृणा एवं ईर्ष्या का पुतला बन जाता है। कई बच्चों की चतुर आँखें इस बात को ताड़ लेती हैं। वे फिर बड़े ही नहीं होते। मरते दम तक लोग उन्हें किड्स कहते हैं।
लौटते हुए वह फिर हलवाई की दुकान के आगे खड़ा हो गया। मैंने फिर उसे अनुशासन भरी तीखी आँखों से देखा। इस बार उसने जीवट दिखाया। पहले पाँव पटके, गाल फुलाए एवं फिर सड़क पर पसर कर दोनों टांगे आगे-पीछे करने लगा।
यह मेरे सब्र की सीमा थी।
हम दोनों लकड़ी की लम्बी बेंच पर बैठे जलेबियाँ खा रहे थे। मैं डायबिटीज का रोगी था एवं बहू ने निकलते वक्त स्पष्ट कह दिया था ,‘इसे जलेबी मत खिलाना, इसके पेट में कीड़े हैं।’
जिस दिन हम दोनों अनुशासन तोड़ते, न वह दादी को शिकायत करता न मैं उसकी मम्मी को कुछ बताता। वह छोटा था पर उसके भी अपने ‘सीक्रेट्स’ थे।
मैंने हलवाई को भुगतान किया। अब हमारी कट्टी खुल गई थी। रास्ते में उसने सभी प्रश्नों का उत्तर दिया। दादाजी कितने अच्छे हैं, उन्हें भी तो उत्तर आने चाहिए न। कल को उसके साथियों ने पूछ लिया तो यही न कहेंगे, ‘दादा बुद्धू।’
वह अपने दादा का उपहास हरगिज सहन नहीं कर सकता था। उसका पेट जलेबियों से रससिक्त था। उसने उत्तरों का पिटारा खोल दिया।
‘आसमान का रंग नीला है, क्योंकि भगवान विष्णु आसमान में रहते हैं। उनका रंग भी नीला है।’
‘बाल कटवाते हुए दर्द नहीं होता क्योंकि नाई की कैंची में डिटोल लगा होता है।’
‘कृष्ण काले थे क्योंकि उनके जन्म के समय आसमान में काले बादल छाये थे।’
‘पिल्ले हर रंग के होते हैं क्योंकि उनकी माँ के पास हर रंग के कपड़े नहीं होते।’
‘रोने पर पेट पिचकता है तो अंदर पानी की पिचकारी दब जाती है। उसी में से आँसू आते हैं।’
‘सूर्य रात को कैसे उगेगा ? फिर सोएगा कब ? ’
मैं हतप्रभ था। सभी अनछुए प्रश्नों कें कितने कोमल उत्तर थे। मैंने उसके कन्धे पर हाथ रखकर कहा,
‘शाबास!’ मेरे पास यही एक विकल्प बचा था।
अब हम दोनों इन्फोर्मल थे।
एकाएक उसने हाथ छुड़ाकर मुझे कहा, ‘नीचे बैठो’। मैं इसका मतलब समझता था कि अब वह मेरे कान में कुछ विशेष बात कहेगा। अब मैं उसके अधीन था। सभी प्रश्नों के उसने सटीक उत्तर जो दिए थे।
मैं पंजों पर बैठ गया। उसने एक नन्हा हाथ मेरे दाँये गाल पर रखा एवं दूसरे हाथ की अंगुलियों से गोला बनाकर बाँये कान के पास ले गया।
‘आपको मालूम है, हमारी मुर्गी ने दो अण्डे दिए हैं।’
मैंने विस्मय से आँखें फैलाईं, ‘सच!’
‘और नहीं तो क्या!’ उसे मालूम था दादा ट्यूबलाईट की तरह बहुत देर से जलते हैं। उसके प्रश्न सावन की लड़ियों की तरह आ रहे थे।
‘अब चूजे बाहर कैसे आएंगे ?’
‘क्या मुर्गी अण्डों को चोंच से फोड़ेगी ?’
‘अंदर चूजों की आँख फूट गई तो ?’
‘उनको खाना कौन खिलाएगा ?’
मैंने यथासंभव उसके प्रश्नों का उत्तर दिया। वह रुकने वाला कहाँ था !
‘क्या वे बड़े हो जाएंगे तब मुर्गी उन्हें चीं-चीं बोलना सिखाएगी ?’ वह उत्तर के लिए मेरी ओर तक रहा था।
अब मुझसे न रहा गया।
‘नहीं बेटा! अब जमाना बदल गया है। अब अण्डे सिखाएंगे मुर्गी को चीं-चीं करना।’
मैंने अन्तिम उत्तर दिया।
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06.06.2003