वर्षों हो गए, रात्रि भोजन के पश्चात् मैं और निधि नित्य इवनिंग वाॅक पर निकलते हैं। पत्नी के साथ बतियाते हुए नरम घास पर टहलना, उसे दिन भर के क्रियाकलापों का लेखा-जोखा देना एवं उसके साथ मन का रेचन करने के पश्चात् जो आत्मिक आनंद मिलता है उसके आगे स्वर्ग के सुख भी फीके हैं। मन अनजाने ही एक विचित्र उल्लास से भर जाता है। बात सुख की हो अथवा दुःख की, हृदय में पीड़ा हो, प्रसन्नता हो अथवा अन्य किसी प्रकार की अनुभूति क्यों न हो, मन बंटते ही प्रफुल्लता से ऐसे झूमने लगता है जैसे ठण्डी बयार में वृक्ष। दुःख बाँटने से आधा हो जाता है एवं सुख दूना। मानव मनोविज्ञान का यह अबूझ रहस्य है। वे लोग कितने अभागे हैं जो अपना मन नहीं बाँट पाते। परिस्थितिजन्य ऐसा हो जाये तो बात समझ भी आती है, लेकिन ऐसे लोग भी हैं जो आदतन अथवा अहंकारवश अपने मन की गाँठे नहीं खोलते। इनमें से अधिकांश मनोचिकित्सकों के ग्राहक बन जाते हैं।
गांधी पार्क हमारे घर से आधे फर्लांग की दूरी पर है। हम अक्सर यहीं घूमने आते हैं। अभी यहां टहलते हुए हमें आधा घण्टा से ऊपर हो चुका है। मैंने निधि को सब कुछ बता दिया है, आज ऑफिस में क्या-क्या हुआ, किस-किस से झगड़ा हुआ, किसको मैंने पटखनी दी एवं किसने मुझे। मैं उसे यह भी कहता रहता हूँ कि मैं एक स्मार्ट वर्कर हूँ एवं अब तक वह यह भी जानती है कि त्रिवेदी एवं परमार से इनकी बिल्कुल नहीं बनती, दोनों कामचोर हैं। उन दोनों को तो मैं आज तक नहीं कह पाया, हाँ, पत्नी को कहकर मन की भड़ास जरूर निकाल लेता हूँ।
निधि भी अब मेरे स्वभाव को जानती है। वह अक्सर कहती है कि सभी पुरुष एक से होते हैं, भाप के इंजिन की तरह, उन्हें अतिरिक्त स्टीम बाहर फेंकने के लिए अवसर चाहिए। वह यह भी मानती है कि ऐसा करना इंजिन एवं यात्री दोनों के लिए हितकर है। कई बार मुझे उसकी बातें अच्छी लगती है तो कई बार इतनी उलझन भरी कि मैं झुंझला उठता हूँ। तब मुझे वह ऐसी पहेली लगती है जिसका उत्तर जानने के बाद भी मुझे लगता है उत्तर सही नहीं है।
मेरी पत्नी में कुछ विशिष्ट गुण हैं, ठीक वैसे ही जैसे मुझमें भी कुछ खास गुण हैं। उसकी याद्दाश्त बहुत तेज है , घर का हिसाब उसकी अंगुलियों पर रहता है, सभी रिश्तेदारों की बर्थ-डे तक उसे याद है। हिसाब दूध वाले का हो, सब्जी वाले का अथवा किराने का, अंततः सभी जानते हैं निधि को हिसाब में गच्चा नहीं दिया जा सकता। मुझे इन बातों पर सर खपाना बेवकूफी लगती है। वह अक्सर अलापती है कि जो घर का हिसाब नहीं रख सकते, वे जगत् का क्या रखेंगे। बहरहाल इन छोटे-छोटे युद्धों के मध्य हम सुखी दंपती है। मनुष्य का दाम्पत्य जीवन सुखी हो तो समझो उसने किला फतह कर लिया। जिन पति-पत्नियों में आपसी विश्वास एवं सद्भाव नहीं होता, वहाँ सम्बन्ध कितने बेरूह हो जाते हैं। कभी-कभी तो ऐसी अप्रत्याशित घटनाएँ घट जाती हैं जिनकी कल्पना भी नहीं की जा सकती ।
वाॅक करते हुए मैं चलता कम, सोचता अधिक हूँ। शायद इसीलिए मेरे कदम खोपड़ी के साथ तालमेल नहीं बिठा पाते। बिना कारण कभीे इतना तेज चलता हूँ जैसे हिरण कुलांचें भर रहा हो, तो कभी इतना धीरे जैसे हाथी झूमते हुए चल रहा हो।
वापस लौटते हुए हम काबरा के घर के आगे से निकल रहे हैं। यकायक मैं एवं निधि थोड़ा गंभीर हो गये हैं।
‘‘ओह, आज 13 मई है, पूरे पाँच वर्ष हो गये।’’ कहते-कहते निधि का दिल भर आया है।
‘‘समय हवा की तरह सन्न से निकल जाता है।’’ एक गहरी श्वास लेकर मैंने उत्तर दिया।
हमारी चाल की गति अब धीमी पड़ गई है। दोनों जाने किन स्मृतियों में खो गये हैं। काबरा के घर से मेरा घर सौ कदम के फासले पर है, पर घर पहुँचते- पहुँचते मैंने मात्र मेरे अथवा निधि की पदचाप सुनी है। एक नीरव सन्नाटा मेरे भीतर उतर आया है। हम दोनों चुपचाप भीतर चले आए हैं।
अपनी दोनों हथेलियाँ सर के नीचे रखे मैं पलंग पर लेटा हूँ। निधि ने अभी-अभी स्विच आफ किया है। कमरे में घुप्प अंधेरा है। निधि चादर तानकर लेट गई है। काबरा की यादें शनैः शनैः मेरे हृदय पटल पर ऐसे दस्तक देने लगी हैं जैसे न चाहते हुए भी चोर दबे पाँव घर में चला आता है।
मन के खुले आकाश पर स्मृति-मेघों को उमड़ने से कौन रोक पाया है ? यह मेघ अकेले भी तो नहीं उमड़ते, इनके साथ ही कड़कती है उन अहसासों की बिजलियाँ जो अनेक बार मन-वृक्ष को आमूलचूल हिला देती हैं।
यकायक मैं ऊपर से नीचे तक सिहर उठा हूँ।
काबरा जैसा बिंदास आदमी मेरे जीवन में पहले कभी नहीं आया। उसकी पत्नी दीपिका भी वैसे ही मस्त एवं हरफनमौला थी। वैसे उसका पूरा नाम हरवंश काबरा था, प्रारंभ में मैं उसे हरवंश ही कहता था पर बाद में हमारी अंतरंगताओं के चलते जाने क्यों काबरा नाम मेरे मुँह पर चढ़ गया। तब वह मेरी उम्र से 3-4 वर्ष छोटा अर्थात् 35 के आसपास रहा होगा। गठा बदन, अपेक्षाकृत नाटा, गोल चेहरा, हल्के घुंघराले बाल एवं पैनी आँखें उसको एक विशिष्ट पहचान देती। दीपिका के साथ चलते हुए कई बार मुझे भ्रम होता कि दीपिका अधिक लम्बी है पर ऐसा था नहीं। पुरुष एवं स्त्री की लम्बाई बराबर हो, तो पुरुष अपेक्षाकृत ठिगना दिखता है।
सात वर्ष पूर्व काबरा दंपती इसी काॅलोनी में किरायेदार बनकर आये थे। हमारी उनसे भेंट इवनिंग वाॅक के दरम्यान गांधी पार्क में हुई। उस दिन मैंने ही पहल कर पूछा था, ‘‘शायद आप हमारी काॅलानी में नये आये हैं।’’
‘‘जी हाँ, दो रोज पहले ही हमने सारा सामान शिफ्ट किया है।’’ काबरा ने पहल कर उत्तर दिया।
‘‘आप कहाँ काम करते हैं?’’ मैंने बात आगे बढ़ायी।
‘‘कैनेरा बैंक में। इसके पहले तीन साल कानपुर में था।’’ कहते-कहते वह कुछ पल के लिए रुका, फिर मुस्कराकर बोला, ‘‘बैंक अधिकारी एवं गडरिया लुहारों (एक घुमक्कड़ जाति) में कोई अंतर नहीं होता, दोनों कुछ समय में अपनी गठरी बाँध लेते हैं।’’ उसका उत्तर दार्शनिकता से लबरेज़ था।
‘‘अंततः सभी को एक न एक दिन गठरी बांधनी होती है। नौकरी वालों को कम से कम प्रेक्टिस तो हो जाती है।’’ मैंने सुर में सुर मिलाया।
‘‘क्या पते की बात कही है, तिवारी साहब!’’ कहते-कहते काबरा ने मेरे दाँये कन्धे पर हाथ रखा।
पहली ही मुलाकात में काबरा ने बिल्ली मार ली। उसकी आँखों एवं बात करने के अंदाज़ में ऐसा सम्मोहन था कि मैंने स्वयं को उसकी ओर खिंचता हुआ महसूस किया। उस दिन काबराजी ने लौटते हुए हमें काॅफी पीकर जाने को कहा। उसके एवं दीपिका दोनों के निमंत्रण का तरीका इतना प्रभावी था कि मैं ना नहीं कर सका। उनके ड्राइंग रूम में उस रोज हम आधा घंटे बैठ रहेे। दीपिका ट्रे लेकर आती उसके पहले ही काबरा बोल पड़ा, काॅफी तैयार है! जैसे काॅफी दीपिका ने नहीं उसने बनायी हो।
इसके पश्चात् कुछ देर तक हम इधर-उधर की बातें करते रहे जैसे इसके पहले आप कहाँ-कहाँ पोस्टेड थे, आप मूलतः कहाँ के हैं, आदि-आदि। मैंने भी उन्हें मेरे परिवार एवं व्यवसाय के बारे में संक्षिप्त परिचय दिया। मि. काबरा बात करते-करते कई बार बेतकल्लुफ हँसते। शायद इस तरह हँसना उनकी आदत थी। दीपिका भी उनकी हर हँसी के साथ अपनी मुस्कराहट जोड़ती। अंततः जब हम उठने लगे तो दीपिका ने बोल ही दिया, ‘‘बातें करते हुए हँसना-हँसाना इनकी आदत में शुुमार है।’’
कुल मिलाकर वह शाम अच्छी बीती।
एक छोटी-सी मुलाकात में काबरा ने हमारा मन जीत लिया। कुछ दिन पश्चात् मैंने भी उसे ब्रेकफास्ट पर बुलाया एवं उसके बाद तो हमारा मिलना एक क्रम हो गया।
काबरा में अनेक खूबियाँ थी, एक तो वह लतीफे इतने जानदार सुनाता कि सभी हँस-हँस कर लोटपोट हो जाते। दूसरे वह हर काम में बढ़-चढ़कर मदद करता। उसके पास हर समस्या का समाधान था। हमें कुक की जरूरत थी तो उसने तुरन्त अपने घर रहने वाले रामदीन काका से कहा, ‘‘कल से इनके घर भी चले जाना। तुम्हारी आय डबल हो जायेगी एवं इनका काम बन जायेगा।’’ वह इन कार्यों को उत्साह से अंजाम देता।
उसकी तीसरी और सबसे महत्त्वपूर्ण खूबी जिसने मुझे सर्वाधिक आश्चर्यमुग्ध किया वह थी उसकी गंध शक्ति। उसके सूंघने की शक्ति अतिरेक पर अर्थात् असाधारण थी। घ्राण शक्ति कुदरतन सबमें होती है, कई व्यक्तियों में अधिक भी होती है पर इस शक्ति का काबरा में यूँ शिखर पर होना मुझे चकित कर देता था।
वह जब भी आता, घुसते ही कह देता, आज क्या सब्जी बनी है, आलू, दाल अथवा करेले की। यहाँ तक कि निधि छत पर होती तो बता देता कि भाभी छत पर लगती हैं। इतना ही नहीं, अनेक बार व्यक्ति घर के बाहर बेल बजाता उसके पूर्व ही काबरा कह देता, फलां व्यक्ति आया है। मैंने अगर दो दिन पूर्व भी शराब ली हो तो वह बता देता, बरखुरदार! आजकल जाम छलक रहे हैं। मैं उसे इशारे से समझाता, अपनी भाभी को नहीं बताना।
वह वस्तु ही नहीं व्यक्तियों को भी गंध से पहचान लेता। इतना ही नहीं, उसे सबकी गंध याद भी रहती। इस अद्भुत शक्ति पर उसे नाज़ था।
उसके इस गुण से अनेक बार मुझे कोफ्त होती। कई बार वह हैरान कर देता। फ्रीज में रखे फलों तक के नाम बता देता। एक बार तो मैंने मजाक में उसे कहा भी, ‘‘यार, तुम काबरा हो या कोबरा अथवा पूर्व जन्म में श्वान तो नहीं थे!’’ तब वह ठठाकर हँस पड़ा। वह इतना खुशमिजाज था कि किसी बात का बुरा नहीं मानता।
यह संसार कितनी विचित्रताओं से भरा है। कई बार लोगों की विशिष्ट प्रतिभाएँ, हुनर, शौक अथवा जुनून देखकर आश्चर्य होता है। पता नहीं ये असाधारण लोग होते हैं अथवा असामान्य? क्या मनुष्य अपनी किसी भी शक्ति को अतिरेक तक ले जा सकता है? क्या यह संभावनाएँ हम सबमें है अथवा परिस्थितिजन्य बन जाती है? मनुष्य की कर्मेन्द्रियाँ एवं ज्ञानेन्द्रियाँ, क्या असीम संभावनाओं से भरी होती हैं?
इसी संदर्भ में मैंने एक मनोवैज्ञानिक से भी चर्चा की थी। उनसे वार्ता करते हुए मेरी आँखों में कौतुक उतर आया था। उन्होंने बताया कि परिस्थितिवश अथवा अभ्यास से भी अनेक बार हमारी शक्तियाँ अतिरेक छू लेती हैं। सारा खेल ऊर्जा के ध्रुवीकरण का है। अगर ध्रुवीकरण सकारात्मक है तो मनुष्य असाधारण बन जाता है। यही ऊर्जा नकारात्मक राह पकड़ ले तो मनुष्य असामान्य बन जाता है। इस असामान्यता के अनेक रूप एवं अनेक वर्ग भी हैं। इन सभी रोगों की चिकित्सा संभव है, पर लोग संकोच के मारे हमारे पास नहीं आते एवं अंततः यही रोग हिस्टीरिया, फोबिया एवं सिजोफ्रेनिया जैसे गंभीर पागलपनों में परिणत हो जाते हैं।’’
उनकी बातें सुनकर एकबारगी लगा जैसे यह सभी असामान्यताएँ थोड़ी-थोड़ी मुझमें भी है। उनका रोगी न बन जाऊं, अतः मैंने किनारा करना उचित समझा। जाने लगा तो एकाएक याद आया कि जिस खास कार्य के लिए उनसे मिलने आया हूँ वह तो भूल ही गया। जाते-जाते मैंने काबरा की असाधारण घ्राण शक्ति के बारे में पूछा, तो उन्होंने इसे ‘हाईपेरेस्थेसिया’ अर्थात् ‘अतिसंवेदनशीलता’ का रोग बताया।
मैंने मन ही मन काबरा को डाॅक्टर से मिलवाने की भी सोची, पर निधि ने स्पष्ट मना कर दिया, ‘‘उड़ता तीर न लो, कल को वह और दीपिका भड़क गये तो सारा रिश्ता बिखर जायेगा।’’
मैं भी जाने क्या सोचकर टाल गया।
आज मैं एवं निधि काबरा के यहाँ रात्रिभोज पर आमंत्रित थे। डाईनिंग टेबल पर लगे डोंगों पर ढ़क्कन लगे थे। काबरा बिना ढक्कन उठाये सूंघ-सूंघ कर बता रहा था, इस डोंगे में चावल है, इसमें राजमां और इस छोटे डोंगे में धनिये की चटनी रखी है। उसने यहां तक बता दिया कि रायता फ्रीज में है एवं डीपफ्रीजर में आईसक्रीम रखी है। यह सभी बातें वह चाव से बता रहा था। इतना ही नहीं यह बताते हुए वह इतना प्रसन्न था मानो किसी विशिष्ट इंस्टिंक्ट अथवा अपनी आंतरिक, अतृप्त भूख को तुष्ट कर रहा हो।
यकायक वह चिल्लाया, ‘‘अरविन्द आया है!’’ उसने बात खत्म ही की थी कि दरवाजे पर बेल बजी। वह तेजी से दरवाजे तक गया। अरविंद को देखते ही बोला, ‘‘कैसा रहा आज का प्रशिक्षण?’’
बाद में मेरा परिचय करवाते हुए उसने बताया कि अरविंद उसके ससुराल का पड़ौसी है। वहाँ बिजलीघर में इंजीनियर है, इधर कुछ रोज प्रशिक्षण के लिए आया है। दीपिका एवं अरविंद दोनों साथ-साथ पढ़े हैं। फिर जाने क्या सोचकर ठठाकर हंसा और बोला, ‘‘सारी दुनिया एक तरफ एवं ससुराल वाले एक तरफ। मुझे तो अरविंद की खातिरदारी करनी ही पड़ेगी। पहले तो ससुराल वाला, फिर पड़ौसी एवं तिस पर दीपिका का सहपाठी भी। भई मैं तो कोई जोखिम नहीं लूंगा।’’ उस दिन वह कितना खुश था! हाल ही में उसका प्रमोशन हुआ था। यह भोज इसी खुशी में रखा गया था। उस दिन खाना तो लजी़ज़ था ही, उसके द्वारा सुनाये जाने वाले लतीफे भी उतने ही लजीज थे। सभी हँसते-हँसते लोटपोट हो गये।
इसके पश्चात् कुछ रोज तक काबरा से मेरा मिलना नहीं हुआ। मैंने निधि को एक-दो बार कहा भी तो वह टाल गई, ‘‘अभी अरविंदजी आये हुए हैं, बार-बार जाना उचित नहीं है।’’ हाँ, रामदीन से मुझे अवश्य उसकी खैर-खबर मिल जाती।
इन्हीं दिनों अचानक व्यावसायिक कार्यों से दस रोज के लिए मुझे अमृतसर जाना पड़ा। जाने से पूर्व काबरा से मिलने की तीव्र इच्छा थी, लेकिन व्यस्तता के चलते नहीं मिल पाया। अमृतसर जब भी कार्य से खाली होता अथवा होटल में अकेला होता, मुझे काबरा एवं उसके लतीफों की याद हो आती। मैं मन ही मन मुस्करा उठता। सुखद समय की स्मृतियाँ चिरजीवी होती है। एकाकीपन के खाली प्याले में यही स्मृतियाँ शराब का सुरूर देती हैं।
मैं वापस लौटा तो घर में मातम छाया था। निधि के चेहरे पर तनाव एवं दुःख के चिन्ह स्पष्ट थे। मुझे देखते ही उसकी घिग्घी बंध गई, आँखों से आँसू बह निकले। मैं हैरान था। रामदीन काका रसोई में ही खड़े थे। मैंने चीखकर पूछा, ‘‘क्या हो गया?’’
काका धीरे-धीरे रसोई से बाहर आये एवं मेरा हाथ पकड़कर हाॅल के दूसरी तरफ ले गये। बोलने के पहले उनका गला रुंध आया, ‘‘बाबूजी! बहुत बुरी खबर है। कल सुबह काबरा साहब का स्वर्गवास हो गया। हमने आपको सूचित करने का प्रयास भी किया, लेकिन तब तक आप अमृतसर छोड़ चुके थे।’’ मेरे ऊपर की सांस ऊपर एवं नीचे की नीचे रह गई। नसों में लहू जम गया। मैं संयत हुआ तो रामदीन ने सारी बात विस्तार से बताई, ‘‘परसों रात काबराजी थोड़ी देरी से आये। उस दिन उन्हें अरविंदजी को छोड़ने स्टेशन जाना था, पर किसी आवश्यक बैठक में मशगूल होने के कारण वे नहीं जा पाये। रात घर पहुँचे तब तक अरविंदजी जा चुके थे। उस रात मैं घर पर ही था। वे खाना खाकर आये थे, अतः तुरंत सोने के लिए चले गए।”
कुछ देर पश्चात् काबराजी के कमरे से जोर-जोर की आवाजें आने लगी। उनमें एवं बीबीजी में किसी बात को लेकर झगड़ा हो रहा था। काबराजी तेज आवाज में कहे जा रहे थे , ‘‘तुमने मुझे कहीं का नहीं छोड़ा, ऐसा करने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई…???’’ बरामदें में लेटा मैं सब कुछ सुन रहा था। यकायक कमरे की चिटखनी खुली, काबराजी बाहर आये एवं धम्म से फर्श पर गिर पड़े। शायद उन्हें तीव्र हृदयाघात हुआ था। मैं डाॅक्टर बुलाने के लिए भागा, लौटकर आया तब तक उनके प्राण पखेरू उड़ चुके थे।’’ कहते हुये रामदीन की आँखें गीली हो गई।
गमछे से आँखों की कोर पोंछते हुए उसने जब असली बात बताई तो मेरे होश उड़ गये। बाबूजी! उस रात कमरे में जाने के पश्चात् काबराजी बीवीजी के साथ लेटे तो उन्हें दीपिकाजी के शरीर में एक विशेष गंध लगी। वे उसे सूंघते ही गये। सूंघते-सूंघते वे पागल हो उठेे, उनका होश जाता रहा। कुछ रुककर रामदीन ने जब अंतिम बात का खुलासा किया तो मैं हैरान रह गया, ‘‘बाबूजी! उस रात घर छोड़ने के पूर्व अरविंदजी बीबीजी के साथ हमबिस्तर हुए थे। मैंने स्वयं उन्हें बीवीजी के कमरे में जाते हुए देखा था।’’
कैसी विडंबना है, जिस शक्ति पर काबरा सर्वाधिक गर्व करता था, अंततः वही उसके लिए जानलेवा सिद्ध हुई।
……………………………….
31.03.2008