पशु-मानव

कादिर भाई, पाॅकिटमार के सितारे इन दिनों ठीक नहीं थे। पिछले पाँच रोज से कोई आमदनी नहीं हुई, एक भी जेब पर हाथ नहीं मार सके। सब दिन होत न एक समान। वैसे उनकी अंगुलियों का कमाल कम नहीं था, अच्छी-अच्छी जगह उन्होंने पर्स मारे थे। रेलवे स्टेशन, सिनेमाघर, मन्दिर, बारात, मेले एवं कई भीड़ भरी जगहों में कादिर भाई की अँगुलियों ने जौहर दिखाए थे।

उनके साहस, धैर्य, चातुर्य एवं कौशल की जितनी तारीफ की जाए, कम होगी। चोरी करना बुजदिलों एवं बेवकूफों का काम नहीं है। बहुत जुगत भिड़ानी पड़ती है। भेड़ की खाल में भेड़िया होना कोई सरल कार्य नहीं है। अमावस्या की घनी अंधियारी रातों में भी चोर के मन में चाँदनी होती है। जब सब सोते है, चोर जागता है। जब सब मस्ती में होते हैं, चोर अपनी चुस्ती दिखाता है। सैकड़ों सावधान लोगों के बीच में चोर एक असावधान को ढूंढ लेता है। बड़े-बड़े राजे-महाराजे एवं पुलिस वाले भी जब चोरों से नहीं बच पाते तो सामान्य आदमी की बिसात ही क्या है। तभी तो चोरी चौंसठ प्रतिष्ठित कलाओं में एक है। सामाजिक एवं नैतिक स्तर पर चोरी का दर्जा कितना ही निम्नतर क्यों न हो, कलात्मक स्तर पर तो इसकी गिनती अन्य कलाओं के बराबर ही है।

कई ऐसे वाकये सुनने में आते हैं जहां चोरों के अद्भुत कौशल से मुग्ध होकर राजाओं ने उन्हें पुरस्कृत किया। कहते हैं उदयपुर रियासत में एक ऐसा चोर था जो छिपकली की तरह सीधी दीवार चढ़ लेता था। उदयपुर महाराणा ने पकड़े जाने पर उसे पुरस्कृत किया। जयपुर के महाराजा ने एक प्रसिद्ध चोर को अपना पहरेदार बनाया था। चोरी कोई हँसी खेल नहीं है, साहस एवं कौशल के लिए सम्मान रखने वाले हर व्यक्ति के दिल में चोरों के लिए भी कहीं सम्मान होता है।

पिछले माह रावण-दहन के समय, जब सत्य की असत्य पर जयकारों का निनाद हो रहा था, कादिर भाई ने एक रामभक्त महाजन का पर्स ऐसी मुस्तैदी से मारा कि रामभक्त को हवा भी न लगी। पर्स में सौ-सौ के पूरे दस नोट थे। घर जाकर रामभक्त महाजन ने मन-ही-मन एक बार ‘जय रावण’ अवश्य कहा होगा। कादिर भाई जैसे लोगों ने ही रावण जैसे महा पण्डित असुर को शाश्वत एवं सनातन बनाया है। उन्हीं जैसे लोग राम को हर युग में जगाये रखते हैं।

कादिर भाई ने बाल धूप में सफेद नहीं किए हैं। पैंतालीस वर्ष की उम्र में पिछले पच्चीस सालों से जेब काटने का लम्बा अनुभव है। खुदा नजर न लगाए, अब तक एक बार भी नहीं पकड़े गए। इतनी अच्छी रिपोर्ट तो शातिर चोरों की भी नहीं होती। इसीलिए नौसिखिये पाॅकिटमार उन्हें उस्ताद मानते हैं।

पतला लम्बा मुँह, दाँये गाल पर काला बड़ा तिल, कोयल-सी मीठी बोली, छोटी-छोटी तीखी नुकीली मूंछें, लोमड़ी-सी आँखें, गले में बंधा रुमाल एवं सर पर जालीदार टोपी तथा रंगे सियार-सी चाल, मजाल कोई उन्हें चोर समझे। पर सौभाग्य सदैव साथ नहीं रहता, गत दस दिनों से खाली भटक रहे हैं। भावी प्रबल है।

कादिरभाई अब पुराने चिर-परिचित स्थानों से उकता गए थे। आज सुबह से पब्लिक पार्क में घूम रहे थे, नई आजमाइश के मूड में थे। पब्लिक पार्क में बाँयी तरफ शहर का प्रसिद्ध चिड़ियाघर था एवं दाँयी तरफ अजायबघर। चिड़ियाघर में शेर, चीते, भालू, बंदर तथा अन्य कई जानवरों एवं पशु-पक्षियों के पिंजरे थे। जेठ का महीना था, पिंजरे तप रहे थे अतः कोई खास भीड़ नहीं थी। यहां वहां इक्का-दुक्का आदमी नजर आता था। कादिर भाई खड़े-खड़े सोच रहे थे कोई जानवरों को देखने में व्यस्त हो तो हाथ साफ करूं। अँगुलियाँ कई दिनों से जौहर दिखाने को तरस रही थी। अभी वो शेर के पिंजरे के आस-पास घूम रहे थे। गिद्ध की आँख बहुत दूर तक देखती है।

भाग (2)

रामबाबू शर्मा की उम्र अब पचास के पार होगी। सर पर बाल काले कम और सफेद ज्यादा हैं। गालों पर दस्तक देती हल्की झुर्रियाँ, आँखों के नीचे हल्के काले गड्ढे एवं चश्मे का मोटा काँच बताते हैं कि बुढ़ापा अब द्वार पर ही खड़ा है। गत पच्चीस वर्षों से चिड़ियाघर में इलेक्ट्रीशियन का काम कर रहे हैं। जानवरों के पिंजरे में बिजली, पंखे, कूलर ठीक रखने की जिम्मेदारी इन्हीं की है। ऐसे कर्मठ कार्यकर्ता बिरले ही होते हैं। कार्य जिनकी पूजा हो एवं ईमानदारी पूँजी, शर्माजी की गिनती ऐसे ही लोगों में है। शर्माजी अपना काम इतनी मुस्तैदी से करते थे कि सर्वत्र उनकी सराहना होती। चिड़ियाघर की सुरक्षा व्यवस्थाओं से वे भली भाँति परिचित थे। किस तरह पक्षियों, जानवरों से पेश आना है, खतरनाक जानवर जैसे शेर, चीते, भालू आदि के पिंजरे किस तरह कार्य प्रारंभ करने के पहले लीवर खींच कर बीच में से बंद करने हैं आदि-आदि। हिंसक जानवरों के पिंजरे के बीच एक छोटा पिंजरा होता है जिसे काम करने के पहले बंद करना जरूरी होता है ताकि जानवर पिंजरे के एक तरफ रह सके। सारे इलेक्ट्रिक स्विच आदि दूसरी तरफ लगे होते हैं। इन सुरक्षा तरीकों से अब तक वो अभ्यस्त हो चुके थे। निस्संकोच पिंजरों में आते-जाते थे, कभी कोई दुर्घटना नहीं हुई।

रोजमर्रा के काम करते करते आदमी में एक विशिष्ट तरह का आत्मविश्वास आ जाता है। शेर के पिंजरे में मांस डालने वाला आदमी शेर की दहाड़ से नहीं डरता। जो कार्य जीवन का हिस्सा बन जाते हैं उनसे डर कैसा ?

आज शर्माजी को शेर के पिंजरे का कूलर ठीक करना था। गत दो वर्ष से इसी शेर के पिंजरे में वो कई बार बिजली का कार्य देखने आ चुके थे। वैसे शर्माजी अक्सर प्रसन्नचित्त नजर आते पर आज वे अन्यमनस्क थे। कल शाम ही उनके बेटे गौरव का सीढ़ियों से उतरते हुए पाँव फिसल गया था। गिरते ही वह जोर से चीखा। टखने में जोर की लगी थी हालांकि कोई फ्रेक्चर नहीं था फिर भी डाॅक्टर ने सावधानी के तौर पर कच्चा प्लास्टर लगा दिया था। रात होते वापस घर भी ले आए थे।

आज सुबह वह घर से निकले तब गौरव कराह रहा था। डाॅक्टर ने कहा भी था दो-चार रोज दर्द रहेगा। गौरव उनका इकलौता बेटा था, शर्माजी उसे बेहद प्यार करते थे। आज घर से निकलते समय उन्होंने बेटे को नई जीन्स की पेंट एवं टी-शर्ट लाने का वायदा किया था। पिता के वादे ने उसके दर्द पर मरहम का असर किया, आँखों में चमक आ गई। शर्माजी ने पर्स में पन्द्रह सौ रुपये रखे, पर्स बैक पाॅकेट में रखा एवं चिड़ियाघर की राह ली, सोचा वापस आते हुए तसल्ली से खरीद लेंगे।

शेर के पिंजरे वाले कूलर को ठीक करना आज जरूरी था। अधीक्षक ने उन्हें देखते ही कहा, ‘‘सारी रात शेर दहाड़ता रहा! आज उसके खाने के समय से पहले कूलर ठीक कर दो। कल शाम भी उसने गर्मी के मारे मांस छोड़ दिया। कल भी कूलर बन्द थे।’’

शर्माजी ने शेर के पिंजरे के कोने वाला छोटा दरवाजा चाबी से खोला, तुरन्त वापस अन्दर से बन्द किया एवं सीधे कूलर के पास आ गए। बच्चे की चोट को लेकर मन उदास था, आज बीच का लीवर खींचना ही भूल गए, बेधड़क अन्दर आकर कूलर ठीक करने लगे।

एकाएक उन्हें ध्यान आया कि आज वह लीवर खींचना भूल गए हैं। लीवर खींचने से शेर के पिंजरे के बीच एक छोटा पिंजरा बंद हो जाता था ताकि काम आसानी से किया जा सके। अक्ल पर पर्दा पड़ गया, बच्चे के तनाव में भेजा घूम गया। उनका कलेजा धक-धक करने लगा जैसे पैरों तले जमीन सरक रही हो। दम खुश्क होने लगा जैसे छाती फट रही हो। भावी की कल्पना से ही वो दिल थाम कर रह गए।

दबे पाँव वह पुनः दरवाजा खोलने को बढ़े ही थे कि उनकी ऊपर की सांस ऊपर व नीचे की नीचे रह गई। शेर अब तक बीच वाले खुले पिंजरे से उनके पिंजरे में प्रविष्ट कर चुका था। शर्माजी चुपचाप वहीं सहम गए। पैरों में आगे बढ़ने की शक्ति ही नहीं रही, खून सर्द हो गया, सारी क्रिया शक्ति ही लुप्त हो गई। मृत्यु धीरे- धीरे उनकी ओर आ रही थी।

भागने का अर्थ मृत्यु सुनिश्चित थी। वो भय से थरथराने लगे, सारा शरीर पीपल के पत्ते की तरह काँपने लगा। कोई उपाय न देखकर वह कूलर ठीक करने में लग गए। उन्हें मालूम था शेर भूखा है एवं आज मौत निश्चित है। उनके कमरे में शेर नहीं यमराज ही घुसा था। हाथ-पाँव, पिण्डलियाँ भय से काँप रहे थे। हे राम! आज बचा लो, पीछे परिवार का क्या होगा। शेर की तरफ देखने की तो उनकी हिम्मत ही नहीं थी। शुतुरमुर्ग की तरह उन्होंने अपना ध्यान कूलर में व्यस्त किया पर ज्यों-ज्यों शेर उनके करीब आता गया उन्हें लगा मृत्यु करीब आती जा रही है। जान सुई की नोक पर थी। आज वहां खड़ा होना अंगारों पर खड़ा होने जैसा था। कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। आँखों के आगे अँधेरी आने लगी थी। इधर कुआँ उधर खाई वाली हालत थी। आत्मरक्षा का अन्तिम हथियार स्क्रू ड्राइवर था, सोच रहे थे शेर के हमला करते ही उसकी आँख में घुसेड़ दूंगा, शायद घायल होकर भाग जाए। पर यह सोच मात्र मन बहलाने की असफल चेष्टा के अतिरिक्त कुछ न था। शेर का एक पंजा उनके अंजर पंजर ढीले कर सकता था।

शेर शर्माजी के करीब आया, और करीब आया, यहाँ तक की उनके पास आकर खड़ा हो गया। शर्माजी ऊपर से नीचे पसीने से तरबतर हो गए जैसे प्राण कुछ पल के लिए ही रह गए हों। बदन बर्फ की तरह ठण्डा पड़ गया। चेहरा ऐसे मुर्झा गया जैसे संध्या के समय कमल। शेर अब भी खड़ा था। वे चोर आँखों से कभी शेर को देखते तो कभी स्क्रू ड्राइवर हाथ में लिये कूलर को। भीगी बिल्ली की तरह उनका शरीर काँप रहा था। मन-ही-मन जल्दी-जल्दी हनुमान चालीसा पढे़ जा रहे थे, ‘‘हे बजरंग बली! आज इस बला को टाल दो, आपकी सवामणी करूंगा।’’ उन्होंने जीवन में भी नहीं सोचा था कि उनके साथ ऐसा दर्दनाक एवं खौफनाक हादसा होगा। चिड़ियाघर में काम करने के लम्बे अनुभव से उन्हें मालूम था कि भूखा शेर किसी का सगा नहीं होता। इस विप्लवकारी विचार के आते ही उनके हाथ-पाँव फूल गए। उनके रुधिर एवं हृदय की दुःसह जलन का बयान नहीं किया जा सकता। उन्हें लगा जैसे उनकी कमर टूट रही है। शेर उन्हें छोड़ने वाला नहीं, आज कुर्बानी निश्चित है।

आश्चर्य ! शेर ने मुँह झुकाकर शर्माजी को सूंघा एवं धीरे-धीरे अपनी जीभ से उनके तलवे चाटने लगा। जैसे कह रहा हो, ‘‘आप इतने दिनों से मेरा पिंजरा ठंडा कर रहे हो, इन प्रचण्ड गर्मियों में मुझे कितना सुकून मिलता है। कल क्या नाराज हो गए थे? कोई बात नहीं! आज ठीक कर दीजिए। कल गर्मी ने मेरे प्राण ले लिए थे, मैं शाम खाना भी नहीं खा सका। आप अकारण ही इतना भयभीत हो रहे हो। हम पशु भले सही पर कृतघ्न नहीं है। आपका उपकार अविस्मरणीय है।’’ स्वाभाविक प्रेम एवं अनुराग से भरे जानवर क्या-क्या नहीं समझ लेते।

भाग (3)

पिंजरे के बाहर खड़ा कादिर भाई यह सब नजारा देख रहा था। उसके शातिर दिमाग ने यह अनुमान लगा लिया कि आज शर्माजी फँस गए हैं, पर वह यह सोचकर चुप रहा कि चिल्लाने से जानवर बिगड़ सकता है। वंचक अपनी गणित लगा रहा था।

कृतज्ञता प्रगट करके शेर पुनः अन्दर के पिंजरे में चला गया। शर्माजी बदहवाश पिंजरे से बाहर आए। जान बची लाखों पाए। मानो मुर्दे को प्राण मिल गए हो। ऐसे छूटे जैसे जन्म का दरिद्र खजाना पा गया हो। बाहर आकर पारे की तरह बिखर गए। उन्हें मूूर्छा आने को ही थी।

बाहर खड़े कादिर भाई ने उन्हें सहारा दिया। वह कादिर भाई को जानते तक नहीं थे, पर उससे बेतहाशा ऐसे लिपटे जैसे डूबते को तिनके का सहारा मिला हो। इस भीषण विपत्ति में कादिर भाई ही उन्हें प्रथम अवलम्ब लगा।

धीरे-धीरे शर्माजी शांत हुए। अब वह एक पल भी यहां नहीं रुकना चाहते थे। उन्होंने सीधा स्कूटर उठाया एवं घर की राह ली। बच्चे के कपड़े खरीदने का विचार धरा रह गया।
घर उन्हें कपड़े बदलते वक्त पता चला कि उनका पर्स गायब था।

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17.01.2002

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