फ्रैण्ड्स काॅलोनी, अलवर की सड़कों पर एक जवान पागल अक्सर घूमता-दौड़ता नजर आता। फटे कपड़े, कृशकाय शरीर एवं बिखरे बाल उसके उन्माद में और इजाफा करते। सर्दी, गर्मी अथवा बारिश, कोई मौसम हो, वो रोज रात ग्यारह बजे के पास पूरी काॅलोनी में चीखता हुआ एक गीत गाते हुए निकलता – ‘‘मेरे सपनों की रानी कब आएगी तू………..।’’ उसकी आवाज सुनकर पनवाड़ी की दुकान पर खड़े मनचले फबती कसते, ‘‘आ भी जाएगी, रघुवीर! एक दिन जरूर आएगी।’’ फिर एक संयुक्त अट्टहास गूंजता पर रघुवीर पल भर भी रुकता न था, बेतहाशा दौड़ा जाता। उनींदे बच्चे खिड़की से झाँककर उसके कौतुक को देखते। बड़े-बूढ़े उस पर रहम खाते, नियति की विडंबना एवं ललाट के लेख के आगे बलात् नतमस्तक हो जाते।
बिस्तर पर पड़े-पड़े अपनी पत्नी रश्मि से अक्सर मैं कुटिल विनोद करता ‘‘देखा! औरतों के मारों की यही दशा होती है।’’ रश्मि नहले पर दहला रखती, ‘‘जो हकीकत छोड़ सपनों के पीछे भागते है, उनकी यही गत होती है।’’ उसके सटीक उत्तर से मैं निरुत्तर हो जाता। विजित, सगर्व नेत्रों से वह मुझे देखती, मैं चादर तानकर सो जाता। उसके तर्कसिद्ध उत्तरों का यही एक अवलंब मुझे नजर आता। पुरुष का दंभ माने या न माने, स्त्री की बुद्धि के आगे वह आज भी बौना है। युग बीत गए, इस अगम्य रहस्य को पुरुष अभी तक नहीं सुलझा पाया।
रघुवीर फ्रैण्ड्स काॅलोनी के अन्तिम छोर पर अपने बड़े भाई द्वारकानाथ रस्तौगी के साथ रहता था। कोई दो साल पहले द्वारकानाथजी उसे दिल्ली से लाए थे। घर के बाहर गैरेज पर बना कमरा उसी का था। वहीं उसका खाना-पीना पहुँचा दिया जाता। घर का नौकर कभी-कभी उसकी देखभाल कर लेता। वैसे रोजमर्रा के बहुत से काम वह खुद भी कर लेता था। पागल भी अपनी एक दिनचर्या में ढल जाते हैं।
रोज रात ग्यारह बजे उसे हूक उठती एवं वह बेतहाशा सड़कों पर भागता। प्रारम्भ में उसे बांधकर रखा गया तो वह आपे से बाहर हो गया। बाद में जब देखा गया कि वह घूम फिरकर पुनः घर लौट आता है, काॅलोनी में किसी को नुकसान नहीं करता है तो उसे खुला छोड़ दिया गया।
मेरी इसी शहर में स्टेशनरी की दुकान थी एवं गत बीस वर्षों से इसी काॅलोनी में रश्मि एवं तीन बच्चों के साथ रह रहा था। इन दिनों जब भी मैं काॅलोनी से गुजरता, रघुवीर अक्सर दिख जाता। कभी वह मुझे देखकर मुस्कुराता, कभी रुआंसा हो जाता, कभी सलाम करता, कभी दाँत दिखाता। रात कई बार जब मैं देरी से आता तो वो अपने घर के बाहर खड़ा ऐसे हंसता जैसे कोई भूत खड़ा हो। उसके मैले शरीर में धवल दंत पंक्ति एक विचित्र-सी सिरहन पैदा करती। कभी-कभी वह अट्टहास करता, तो मैं भयभीत हो उठता, जैसे काले बादलों के बीच कोई बिजली कौंधी हो। उसकी दुर्दशा मेरी आत्मा को कहीं व्यथित करती। मैं अक्सर उसको देखकर संवेदनशील हो जाता, सोचता पागलों की भी कैसी दुनिया है? क्या सोचते हैं आखिर ये लोग? क्यों इनका व्यवहार इस प्रकार का होता है? क्या इन्हें ठीक नहीं किया जा सकता? लोग समाज के इस कमजोर हिस्से के प्रति अपनी जिम्मेदारी क्यों नहीं महसूस करते? दुनिया दुर्बल, असहाय आदमी पर बाज की तरह क्यों झपटती है? क्या पागल अपने आप में भी दुःखी या प्रसन्न होते हैं या सिर्फ अपने घर वालों के लिए बोझ होते हैं? क्यों रघुवीर रोज रात को एक ही गीत गाते हुए निकलता है? कहीं किसी ने उसका अन्तर्मन इतना आहत तो नहीं कर दिया कि उसे गहरा सदमा लगा हो। मैं उसकी कहानी जानने को आतुर हो उठता। मनुष्य अगर मनुष्य की पीड़ा को ही समझने का प्रयास न करे तो मनुष्य किन अर्थों में पशु से उच्चतर है? एक बार रश्मि से भी मैंने रघुवीर के बारे में जानने का प्रयास किया, पर वह क्या सारी काॅलोनी उसकी कहानी से बेखबर थी। दुनिया जब अपने दुःखों से ही निजात नहीं पा रही हो तो कोई पराई पीर में क्यूँ उलझे! हम दावा तो तथाकथित सभ्य समाज में रहने का करते हैं पर कितने संवेदनशून्य हो गए हैं ? सबकी तपन को दरकिनार कर सभी अपने घोड़े को ही छाया में खड़े करने की जल्दी में हैं।
इस रविवार को, मैं चाय पीने के बहाने द्वारकानाथजी के घर गया। हम दोनों वर्षों से एक-दूसरे को जानते थे। द्वारकानाथजी का वर्षों से यहीं अनाज का कारोबार था। काॅलोनी में अक्सर उनकी शालीनता के चर्चे होते। रघुवीर से होने वाले विषाद की रेखा भी उनके चेहरे पर कभी नजर नहीं आती थी। चाय की चुस्कियाँ लेते-लेते, बात ही बात में मैंने द्वारकानाथजी से रघुवीर के बारे में पूछा, ‘‘क्या यह बचपन से ऐसा था अथवा बाद में हो गया? आखिर क्या हो गया है रघुवीर को? क्या उसका इलाज संभव है?’’ मेरे आतुर एवं अधीर मन ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी। द्वारकानाथजी ने एक गहरी सांस ली तत्पश्चात् व्यथित कंठ से रघुवीर की दास्तां सुनाई तो दिल दहल गया।
वो काॅलेज के दिन थे। रघुवीर तब बी. ई., इलेक्ट्रोनिक्स कर रहा था। उन्हीं दिनों रघुवीर की मुलाकात उसकी एक सहपाठी कामिनी से हुई। दो चार मुलाकातों में ही दोनों एक दूसरे के करीब आ गए। रघुवीर साफगो इंसान था, दिखने में बेहद स्मार्ट एवं पढ़ने में सदैव अव्वल आता। कामिनी भी उतनी ही सुंदर एवं सुसंस्कृत थी। दरअसल दोनों में गोल्डमेडल को लेकर सीधी प्रतिस्पर्धा थी। सारी क्लास जानती थी कि दोनों में से एक को ही गोल्डमेडल मिलेगा। अंतिम वर्ष होते-होते दोनों की मुलाकात प्रेम में तब्दील हो गई, जैसे दोनों के पूर्व संस्कार जागृत हो गए हों। दोनों एक दूसरे पर जान देते थे, एक-दूसरे की आँखों का नूर एवं दिल का करार थे। यह समय दोनों के जीवन का बसन्त था। सच्चे हृदय से प्रेम करने वालों के लिए प्रेम एक अलौकिक अनुभूति बन जाता है। लगता है ईश्वर रोम-रोम में आ बसा हो। यही दशा रघुवीर एवं कामिनी की थी। दोनों अब एक दूसरे के बिना रह ही नहीं सकते थे। काॅलेज में आते ही दोनों चकवा-चकवी की तरह एक दूसरे को ढूंढते। परीक्षा-परिणाम में रघुवीर ने बाजी मारी। गोल्डमेडल रघुवीर को मिला पर जीत का गर्व कामिनी के मुख पर था। उसने गलबइयां डालते हुए यही कहा था, ‘‘तुम्हें गोल्डमेडल मिला है एवं मुझे गोल्ड मेडलिस्ट।’’ कामिनी के उत्तर ने रघुवीर की उत्तेजना एवं हौसले को द्विगुनित कर दिया था।
बी.ई. करने के बाद रघुवीर एक बड़ी फैक्ट्री में इंजीनियर बन गया। बस इसी दिन का इंतजार था, दोनों परिणय सूत्र में बंध गए। कामिनी के पिता दिल्ली के प्रसिद्ध व्यापारी थे, बड़ी धूमधाम से दोनों की शादी हुई। दोनों की चिर प्रतीक्षित मुराद पूरी हुई। रघुवीर को तो जैसे पंख लग गए। मनभावन अर्धांगिनी ईश्वर की सबसे बड़ी नेमत है। मनुष्य का अधूरा मन उसी से पूर्णता प्राप्त करता है।
शादी के बाद रघुवीर ने श्रीनगर में हनीमून मनाने का निश्चय किया। उसकी शुरू से इच्छा थी कि हनीमून श्रीनगर में हो। उस समय श्रीनगर एक शांत शहर नहीं था, आए दिनों कत्लेआम की खबरें आती रहती थी। कामिनी ने मना भी किया पर रघुवीर ने जिद पकड़ ली, ‘‘मेरे सपनों की रानी को मैं पृथ्वी का स्वर्ग दिखाऊंगा।’’ बहुत जिद करने पर कामिनी राजी हुई, दोनों हवाई यात्रा से जम्मू आए, फिर श्रीनगर।
श्रीनगर का सौन्दर्य जन्नत की कल्पना से भी ऊपर था। बर्फ की ढकी वादियां, स्वच्छ झीलें, कालीन की तरह बिछे बाग एवं फूलों से लदी घाटियाँ शहर की मनोहरता में चार चांद लगा रही थी। किसी ने ठीक ही कहा था, पृथ्वी पर अगर स्वर्ग है तो बस यहीं है। दो दिन तो वे वहीं, स्थानीय दर्शनीय स्थान देखते रहे। तीसरे दिन उन्होंने पहलगाम जाने की सोची। वे बस में चढ़ ही रहे थे कि एक सफेद अंबेसेडर टैक्सी वाले ने उन्हें कहा ‘‘बाबूजी, आप हमारी टैक्सी में आ जाइए। देखिए एक जोड़ा तो पहले से ही बैठा है, आपको घूमने, अपने मन पसन्द की जगह ठहरने में आनन्द आ जाएगा। मैं आपको वो जगहें बताऊंगा जहां बस जाती ही नहीं। आप जहाँ चाहे टैक्सी रुक जाएगी। दो पैसे ज्यादा लगेंगे पर हनीमून बार-बार थोड़े ही आता है, हमारी भी आज की रोजी बन जाएगी।’’ टैक्सी ड्राइवर उम्र में पचास से उपर ही होगा। रघुवीर को उसकी बात जंच गई। दोनों बस से टैक्सी में शिफ्ट हो गए।
पहलगाम का रास्ता पहलगाम से भी सुंदर है। टैक्सी ड्राइवर ‘असलम’ रास्ते भर शायरी एवं चुटकले सुनाता रहा। दोनों जोड़ों का पूरे रास्ते मनोरंजन करता रहा, थोड़ी ही देर में अपने वाक्चातुर्य से नवदंपति के मन में उसने भरोसा बना लिया। एक दो बार रास्ते में उसने चाय के पैसे तक नहीं लिए, कहा, ‘‘ऐश करो बाबूजी, आप ही से कमाते है।’’ किसे पता था बगुला एक पांव पर खड़ा है।
पहलगाम देखते-देखते शाम हो गई, सभी बसें भी निकल गई। रघुवीर एवं कामिनी दोनों पहलगाम के सौन्दर्य को देखकर अभिभूत हो गए। रात होते-होते कामिनी ने तुरन्त चलने को कहां। दोनों टैक्सी में बैठे एवं टैक्सी चल पड़ी। दूसरा जोड़ा पहले से वहां पहुँच चुका था।
निष्पाप हृदय दूसरों के मन में छिपे पाप से अज्ञात होता है। चमन की बहारों में झूमता हुआ ताजा फूल, कागज के फूल की कल्पना ही नहीं कर सकता। जिनकी साँसों में मोहब्बत व वफा बसी होती है, नफरत एवं जफ़ा उनके लिए अकल्पनीय हो जाती है। गाड़ी के पीछे बैठे रघुवीर एवं कामिनी एक दूसरे को पाकर ईश्वर को धन्यवाद दे रहे थे। तब उन्हें क्या पता था कि दुर्भाग्य के घने काले बादल उनके सर पर मंडरा रहे हैं। दुर्भाग्य बिना पावों के कब किधर से चलकर आता है, कोई नहीं जानता।
यकायक रास्ते में कहीं गाड़ी रुकी। रात घनी अंधेरी हो चुकी थी। गाड़ी में आगे बैठे दूसरे जोड़े के आदमी ने रघुवीर के सर पर पिस्तौल तान दी एवं असलम को गाड़ी छोटे रास्ते पर लेने को कहा। वह तेज आवाज में गुर्राया, जरा भी होशियारी की तो जान से हाथ धो बैठोगे। असलम और साथ बैठा जोड़ा, तीनो आतंककारी हत्यारे थे। असलम ने एक अर्थपूर्ण मुस्कराहट के साथ गाड़ी छोटे राह पर मोड़ ली। रघुवीर एवं कामिनी दोनों हतप्रभ थे, पांव तले जमीन सरक गई। नियति का यह घिनौना रूप उनकी कल्पना से भी परे था।
जब हर हाल में इंसान को मृत्यु ही नजर आती है तो इंसान की हिम्मत अंधी हो जाती है। तब वह मृत्यु की सीमाओं को भी लांघ जाता है। रघुवीर ने तपाक से पिस्तौल पकड़कर आगे की तरफ उसके हाथ को घुमाया पर तब तक असलम ने बाहर आकर गाड़ी का फाटक खोलकर रघुवीर को बाहर फेंक दिया। तीनों कामिनी को जबरन गाड़ी में लेकर तेजी से चले गए। रघुवीर को कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। उसने घड़ी देखी, रात ग्यारह बजे थे। कोई रावण उसके सपनों की रानी को हर ले गया था। रघुवीर बदहवास जोर-जोर से चिल्लाने लगा।
इत्तफाक से उसी समय पुलिस की एक जीप जो मुख्य मार्ग पर जा रही थी, चिल्लाहट सुनकर छोटे रास्ते पर आई । बदहवास रघुवीर ने सारी दास्तां सुनाई। पुलिस की गाड़ी में बैठकर रघुवीर उस रास्ते पर चला तो आगे वहां गाड़ी तो थी, पर अन्दर कोई न था। तब पुलिस को सारा माजरा समझ में आया। रघुवीर खाली गाड़ी देखकर स्तब्ध रह गया। दिलों दिमाग पर लगे आघात से वह वही बेहोश हो गया।
होश आने पर चार दिन तक पुलिस ने रघुवीर को साथ लेकर कामिनी को कहां-कहां नहीं ढूंढा पर रघुवीर के सौभाग्य का सूर्य अस्त हो चुका था। चार रोज बाद पहलगाम के रास्ते पर कामिनी की लाश मिली। दरिन्दों ने उसे कहीं का न छोड़ा। रघुवीर ने जब कामिनी की लाश देखी तो अपना पूरा संतुलन खो बैठा। पहले तो कई देर तक वह बोल नहीं पाया फिर चीख-चीख कर रोने लगा। यकायक सबने देखा कि वह जोर-जोर से अट्टहास कर रहा है एवं अपने कपड़े फाड़कर चिल्ला रहा है, ‘‘मेरे सपनों की रानी कब आएगी तूं…….।’’ अब तक सभी समझ गए कि रघुवीर पागल हो गया है। देखने वालों के हृदय विदीर्ण हो गए एवं जैसा कि बहुधा देखा गया है खुदाई ने अटूट प्रेम में बंधे दो प्रेमियों को सदा के लिए अलग कर दिया। पुलिस ने तुरन्त रघुवीर के घर पर सूचना भिजवाई। कामिनी के अभागे पिता एवं व्यथित द्वारकानाथजी कामिनी के शव तथा पागल रघुवीर को लेकर दिल्ली आए। कठोर से कठोर एवं मत्सर से मत्सर हृदय भी कांप उठा। रघुवीर-कामिनी का हनीमून उनके जीवन का श्राप बन गया। नियति के निष्ठुर हाथों ने उनके समस्त जीवन का उत्साह, आनंद और माधुर्य पलभर में छीन लिया। ख्वाब, अजाब बन गए।
इस हादसे के बाद रघुवीर का बहुत इलाज करवाया गया पर वह ठीक नहीं हुआ। कामिनी उसकी रूह में बसी थी, उसके बिना उसकी आत्मा को चैन कैसे मिलता। दिल्ली की सड़कों पर बेतहाशा घूमता कई बार मरते-मरते बचा। अन्त में द्वारकानाथजी ही उसे अलवर ले आए।
जिन्हें हम पागल कहते हैं, उनके मन की व्यथा एवं वेदना से कई बार सर्वथा अपरिचित होते हैं। आदमी अच्छे होते हैं पर वक्त बुरा होता है। शायद हमारे भीतर के पागलपन को कोई समझ न ले, हम दूसरों को पागल कहकर तथाकथित सुसंस्कृत लोगों की भीड़ में खड़े हो जाना चाहते हैं। किसी का ‘आघात’ यहाँ किसी का कौतुक बन जाता है।
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07.03.2002