उज्जैन नगर में शिप्रा नदी के तट पर बैठे चार भूत आपस में बतिया रहे थे। गहन अंधेरी रात्रि का एक प्रहर बीत चुका था। कोई एक बजा होगा। दिसम्बर मासांत की कड़कड़ाती सर्दी में हवाओं की सांय-सांय के अतिरिक्त वहां कुछ भी सुनायी नहीं देता था। कंपकंपाती ठण्ड में मानो पाषाण भी जम गए थे। महाकाल की शयन-प्रार्थना कब की हुई किंतु नदी में पड़ने वाले द्वितीया के चन्द्र की परछाई अब भी उनकी अगोचर उपस्थिति का आभास दे रही थी। समूचे तट को एक भयानक निस्तब्धता ने कैद कर लिया था।
निर्जन सन्नाटों में पसरे स्थान भूतों के प्रिय प्रश्रय स्थान होते हैं।
इन चारों भूतों की मुक्ति में अब मात्र कुछ प्रहर शेष थे। धर्मदण्ड के अनुसार आज भोर की प्रथम किरण के साथ चारों इस कठोर योनि से मुक्त होकर पुनः मनुष्य जन्म लेने के दुर्लभ संयोग को प्राप्त करने वाले थे। वर्षों भटकते-भटकते, निर्जन स्थानों, कूप-बावड़ियों, वीरान जंगलों एवं श्मशान इत्यादि में रहते-रहते वे थक गए थे। सुबह होने में अभी तीन प्रहर शेष थे अतः सभी वहां बैठे एक दूसरे को अपनी कथा सुना रहे थे। इनमें सबसे बुजर्ग एवं वरिष्ठ भूत का नाम श्वेतकेतु एवं बाकी तीनों के वयक्रम में नाम गोकर्ण, कैलाशनाथ एवं भैरवसिंह थे। सर्वप्रथम श्वेतकेतु ने अपनी दीर्घ भूत यात्रा की कथा अन्य भूतगणों को बताई। जगत की आंखों से अदृश्य लेकिन अपने जाति भाइयों को देखने-सुनने में सक्षम अन्य भूत उसे ध्यान से सुनने लगे।
कथा प्रारंभ करने के पूर्व श्वेतकेतु ने एक लंबी आह भरी एवं इस आह के साथ ही वह उस युग में खो गया जब उसका भूत योनि में प्रादुर्भाव हुआ था।
‘मैं सतयुग का भूत हूँ। मुझे भटकते दिन, महीने, वर्ष एवं दशक नहीं, शताब्दियां बीत गई हैं। अपने जीवनकाल में मैं अयोध्या नगरी में रहता था। उस समय हमारे राजा हरिश्चन्द्र थे। ओह! वह राजा साक्षात् सत्य का अवतार थे। उनकी भार्या तारामती अत्यंत धर्मपरायणा एवं रूपवती स्त्री थी। देवताओं के छल एवं परीक्षा लेने के कारण उस राजा ने मरणांतक कष्ट भोगे। नगर श्रेष्ठियों के यहां उसने एवं उसकी भार्या ने गुलामों-सा कार्य किया। वर्षों दोनों पति-पत्नी अलग भी रहे। हरिश्चन्द्र ने तो श्मसान के डोम तक का कार्य किया एवं अपने पुत्र का शव लेकर आई पत्नी तक से मालिक धर्म निबाहते हुए कर मांगा। अहो! दुर्भाग्य! ऐसे राजा के राज्य में होते हुए भी मैं सदैव तामसी व्यसनों से ग्रस्त रहा। सुरापान एवं वेश्यागमन मेरी जीवनचर्या के अंग थे। मेरी पत्नी नित्य की प्रताड़ना एवं मेरे दुर्व्यवहार से अत्यंत दुःखी थी एवं मजदूरी करके हमारे चार बच्चों का जीवन-यापन करती थी। पराई स्त्रियों के मोह में बंधा मैंने परिवार की सुध तक नहीं ली। एक रात दूसरे प्रहर बीतने पर घर लौटा। मैं नशे में धुत था। उस दिन मेरी पत्नी ने क्रोधवश दरवाजा नहीं खोला। उसका यह दुस्साहस देख मैंने लात मारकर दरवाजा तोड़ा एवं भीतर आया। मेरे इस कृत्य को देख वह सहम गई। उन दिनों मेरे दो पुत्र ज्वर से पीड़ित थे एवं उनकी सेवा-शुश्रूषा करतेे वह अभागिन थक गई थी। घर में घुसकर मैंने अपनी पत्नी को दरवाजा नहीं खोलने के लिए न सिर्फ लताड़ा, बुरी तरह पीटा भी। गृहस्थी के भार एवं मेरी मार से विकल उस अबला ने तब फुफकार कर कहा, इससे अच्छा तो यही होगा कि आप मेरा और बच्चों का वध कर दो। तुम जैसे पति की जीवित भार्या होने से तो मैं मरी अच्छी। मैं नशे में उन्मत्त था। उसकी बातों एवं साहस सेे मेरे अहंकार की अग्नि भड़क उठी। मैं आग बबूला हो उठा एवं देखते ही देखते मैंने उसकी तथा चारों बच्चों की हत्या कर दी। बाद में नशा उतरा तो मुझे मेरे किए का पछतावा हुआ, लेकिन इससे मेरा परिवार वापस आने वाला नहीं था। सुबह राज्य के सिपाहियों ने पकड़कर मुझे सूली पर लटका दिया। एक निरपराध पत्नी एवं अबोध बच्चों का हत्यारा होने के कारण मैं सहस्राब्दियों से भटक रहा हूँ। धर्मदण्ड के अनुसार ऐसे जघन्य अपराधों के लिए सहस्रों वर्ष भटकने के पश्चात् ही भूतयोनि से मुक्ति संभव है। अलसुबह भोर की प्रथम किरण के साथ इस योनि से मुक्त होकर मैं पुनः मानव योनि में जन्म लूंगा। इस जन्म में वही स्त्री पुनः जन्म लेकर सेठ बनेगी एवं मेरे चारों बच्चे इस सेठ के पुत्र होंगे। लेकिन मेरी दशा इनसे सर्वथा भिन्न होगी। अत्यंत निर्धन परिवार में जन्म लेने एवं अनपढ़ होने के कारण मुझे ताउम्र इनकी मजदूरी करनी होगी। उनके अधीन होने के कारण वे मुझे भांति-भांति से प्रताड़ित करेंगे। नियति की डोरी से बंधा, विवश बैल की तरह मैं ताउम्र इनके निर्देशों की परिधि में घूमता रहूंगा। ओह! मनुष्य के कर्म चिरकाल तक उसका पीछा करते हैं। काश! मैं अपने कर्तव्य को समझता तो मेरी यह दुर्दशा न होती। स्त्री की हाय सात जन्मों तक पीछा करती है। पाप का घड़ा अवश्य फूटता है। सहस्राब्दियों से भटकते-भटकते थक गया हूं। यह जघन्य कृत्य चिरकाल तक आत्मा का नासूर बनकर मुझे जलाता रहा है।’ कहते-कहते श्वेतकेतु की आंखों से आंसुओं की अविच्छिन्न धारा बह गई।
इस कथा को सुनने के पश्चात् गोकर्ण अपनी कथा कह रहा था। कथा कहने के पूर्व एक विचित्र विषाद उसके चेहरे पर फैल गया। भृकुटियों एवं ललाट पर पश्चाताप एवं गांभीर्य के चिह्न उभर आए। ‘मित्रो! मैं त्रेतायुग का भूत हूँ। श्वेतकेतु की तरह मैं भी अयोध्या में ही निवास करता था। राजा राम मेरे ही जीवनकाल में आए थे। मुझे दशरथनंदन के दर्शन का सौभाग्य अनेक बार मिला। पिता के दो वरदानों को कृतार्थ करने, देवी सीता एवं अनुज लक्ष्मण के साथ जब वे वनगमन पर निकले तो सारी अयोध्या उन्हें विदाई देने उमड़ पड़ी। उस जनसमूह में मैं भी था। लोग उन्हें छोड़ना ही नहीं चाहते थे। उनका दर्प, मुख लावण्य एवं मुस्कुराहट अनंत कामदेवों की शोभा के समान थी। बड़ी-बड़ी आंखें कमल के फूल जैसी लगती थी। उनके रूप-माधुर्य का निर्निमेष नयनों से पान करने पर भी नेत्र तृप्त नहीं होते थे। लोग उन्हें एकटक देखते रहते। प्रभु नदी तट पर यदि हमें सोता हुआ छोड़कर न जाते तो शायद हम उनके साथ ही चलते रहते। रावण को मारने के पश्चात जब वे पुष्पक विमान पर देवी जानकी, सौमित्र एवं अन्य साथियों के साथ अयोध्या लौटे तो सभी नगरवासियों ने घी के दीपक जलाए। दुर्भाग्य! उस काल में भी अपनी मूढ़ता से गिरा मैं ऐसा पाप कर बैठा जिसका फल आज तक भोग रहा हूँ। उन दिनों मेरे घर मेरा एक परम मित्र रेवतीरमण आया करता था। हम दोनों में गहन मित्रता थी। वह निष्कपट, सहृदय मित्र सदैव मेरा तथा मेरे परिवार का शुभाकांक्षी था। वह नगर का मान्य श्रेष्ठी एवं मैं अत्यंत निर्धन था। ऐसा होते हुए भी मेरे अहंकार को हत किए बिना वह बखूबी मित्रता निबाहता था। उसकी पत्नी अनुराधा अत्यंत रूपवती एवं पतिप्रिया थी। उसके दो छोटे पुत्र भी थे। एक बार व्यावसायिक कार्य हेतु उसे वर्षभर के लिए देशाटन पर जाना पड़ा। जाते समय अपना कारोबार, परिवार की देखरेख तथा सहस्रों स्वर्णमुद्राएं वह मेरी देखरेख में छोड़ गया। मुझसे अधिक उसका विश्वासपात्र था भी कौन ? उसके जाने के पश्चात् उस अथाह संपदा एवं कारोबार को देख मेरे मन में लोभ उमड़ आया। मैंने चातुर्य से धीरे-धीरे उसका सारा धन हड़प लिया। वह लौटकर आया तो उसे तथा उसके परिवार को मैं छल से एक घने जंगल में लेकर गया। वहां सब की हत्या कर मैंने उन्हें वहीं गाड़ दिया। नगर में आकर मैंने यह अफवाह फैला दी कि वह अपने परिवार को लेकर अन्यत्र चला गया है। लेकिन तब रामराज्य था। असत्य के बीज बरगद बनकर अपनी विशाल लताओं से पापियों का गला घोंट देते थे। इस घटना के महज एक माह बाद मैं एक दुर्घटना में मारा गया। मेरी मृत्यु के पश्चात् मेरा पाप भी उजागर हो गया। मेरा परिवार नगरवासियों एवं राजकर्मियों के कोप के कारण दर-दर का भिखारी बन गया। मित्रो! लोभ एवं विश्वासघात ऐसे पाप हैं जो जीते जी हमारी आत्मा का हनन तो करते ही हैं, मरणोपरांत भी जीव को सुख से नहीं बैठने देते। लोभ एवं लिप्सा ने मेरा सब कुछ लील लिया। धर्मदण्ड ने मुझे अनंतकाल तक भटकने की सजा सुनाई। इतनी दीर्घावधि तक इस दण्ड को भोग कर आज मेरा प्रायश्चित पूरा हुआ है। सुबह इस योनि से मुक्त होकर मैं पुनः मनुष्ययोनि में जन्म लूंगा जहां रेवतीरमण मेरी पत्नी बनकर एवं उसकी पत्नी तथा दोनों पुत्र मेरी संतति बनेंगे। अपने कड़े पुरुषार्थ से धनार्जन कर मैं उनका लालन-पालन करूंगा लेकिन अंत में वे सभी विश्वासघात कर मुझे मार डालेंगे। स्वर्ग से वे आत्माएं शीघ्र ही अवतरित होकर मेरे पश्चात् क्रमशः जन्म लेंगी।’
कथा कहते-कहते गोकर्ण का मुख सूख गया, हृदय कांपने लगा एवं नेत्रों से आंसू छलक आए।
अब कैलाशनाथ अपनी कथा कह रहा था। ‘मित्रो! मुझे मरे मात्र कुछ दशक हुए हैं। भारत विभाजन के समय मैं लुधियाना शहर में निवास करता था। उस समय हिन्दू-मुस्लिम दंगों से दोनों मुल्कों में जन-धन की भीषण तबाही हुई थी। मेरे शहर में हिन्दु धर्मावलंबियों को भड़काकर मैंने एक मुस्लिम परिवार के मुखिया, उसकी पत्नी एवं तीन बच्चों का कत्ल करवा दिया। हम इतने बेरहम हो गए कि हमने महिलाओं एवं बच्चों तक को नहीं छोड़ा। कुछ समय पश्चात् मुसलमानों ने भी मेरा तथा मेरे परिवार का कत्ल कर दिया। मैंने जीते जी तो अपनी करनी भोगी ही, धर्मदण्ड के अनुसार भोर होने के पश्चात् मुझे एक मुस्लिम परिवार में जन्म लेना है, जहां मेरे द्वारा कत्ल करवाए सभी व्यक्ति मेरे परिवारजन बनेंगे। ताउम्र कठोर श्रम कर मैं उनकी परवरिश करूंगा। इतना होते हुए भी वे अंततः मुझे भांति-भांति के दुःख देंगे। पूर्वजन्म का प्रतिशोध उनकी आंखों पर पट्टियां बांध देगा। मैं उन्हें फूटी आंखों नहीं सुहाऊंगा। धर्मदण्ड ने दण्ड देते समय मुझे यही कहा – संसार के सभी लोग एक ही नूर से पैदा हुए हैं। कौन कहां पैदा होता है, यह महज इत्तफाक है। पृथ्वी पर इंसानियत से बड़ा कोई धर्म नहीं। जो व्यक्ति फिरकापरस्ती में अंधा होकर साम्प्रदायिक विद्वेष फैलाता है उसे मेरे कठोर दण्ड का भाजक बनना पड़ता है। मूर्ख! मानव जन्म लेकर क्या तू इतना भी नहीं समझ पाया कि विभिन्न धर्म तो उन असंख्य नदियों की तरह हैं जो अंततः एक समुद्ररूपी परमात्मा में मिल जाती है। हे उद्दण्ड! सागर का फिर क्या कोई धर्म रह जाता है ? मित्रो! मैं इतने समय कूपों, कंदराओं में भटकता रहा। अब भोर होने के पश्चात् पुनः मानव योनि में जन्म लेकर अपने पूर्व पापों का विमोचन करूंगा।’
अपनी कथा कहते-कहते कैलाशनाथ बिलख पड़ा।
अब भैरवसिंह की बारी थी। अपनी कथा कहने के पूर्व वह एक विचित्रलोक में खो गया। उसकी ललाट पर त्रिवली खिंच गई। ‘मित्रो! मुझे मरे मात्र तीस वर्ष हुए हैं। तीस वर्ष पूर्व मैं आर्यावर्त की वर्तमान राजधानी दिल्ली शहर के सार्वजनिक निर्माण विभाग में मुख्य अभियन्ता पद पर कार्यरत था। मेरे घर में सातों सुख थे। सुलक्षणा पत्नी थी, योग्य बच्चे थे एवं पुरखों द्वारा छोड़ी अकूत संपत्ति भी थी। सब कुछ होते हुए भी मैं सदैव धन को दो दूनी चार करने में लगा रहता। बीवी-बच्चों की तो मुझे सुध ही कहां थी। मैं धन को मानव सुख का प्रथम एवं अंतिम सोपान समझता था। जैसे उल्लू को अंधकार से सहज स्नेह होता है, धन का लोभ मेरी सांसों में बसा था। इसी हवश में मेरे विभाग में कार्य कर रहे ठेकेदारों से मैंने बेशुमार रिश्वत बटोरी। निर्माण कार्य की गुणवत्ता पर मैं कभी ध्यान नहीं देता। मेरे अधीनस्थ कर्मचारियों में मात्र वे कर्मचारी मुझे प्रिय थे जो रिश्वत बटोर कर मुझे हिस्सा पहुंचाते। ईमानदार अधिकारी मुझे फूटी आंख न सुहाते, उन्हें मैं तरह-तरह के दण्ड देता। कभी उनकी वार्षिक रिपोर्ट खराब कर देता तो कभी उनकी तैनाती दूरस्थ जगहों पर कर उन्हें एवं उनके परिवार को प्रताड़ित करता। अपने पद-मद में मैं इस तरह खोया कि मेरे और मेरे परिवार दोनों के सर अहंकार चढ़ बैठा। रिश्वत मिलते ही मैं नियमों-आदर्शों की धज्जियां उड़ा देता। धन के वशीभूत आला अफसर मेरी चुटकियों पर नाचते। मेरे व्यवहार में सौजन्य का अणुमात्र शेष न रहा। राज्य की धारा ऊपर से नीचे की ओर बहती है। उच्चाधिकारियों की सरपरस्ती ने मुझे बेखौफ बना दिया। एक दिन मैं अपने परिवार के साथ एक ठेकेदार द्वारा भेंट की गई नयी कार में बैठकर भ्रमण के लिए निकला। हम थोड़ी दूर ही चले थे कि यकायक एक पुल के तड़तड़ाकर टूटने की आवाज आई। यह पुल कुछ समय पूर्व मेरे विभाग द्वारा ही बनवाया गया था। पलक झपकते वह पुल हमारी कार पर गिरा एवं मुझे एवं मेरे परिवार को लील गया। किसी ने ठीक ही कहा है रिश्वत से पलने वाला परिवार भी वही दुःख भोगता है जो रिश्वत लेने वाला भोगता है। धर्मदण्ड के अनुसार मुझे दस वर्ष तक नीम के पेड़ में एक कीड़ा बनकर रहना पड़ा जहां दूसरे शक्तिशाली कीड़े मुझे वैसे ही चाटते रहते थे जैसे मैं अपने जीवनकाल में जनता के धन एवं व्यवस्थाओं को चाटता रहा। उस जन्म से मुक्त होने के पश्चात् पुनः बीस वर्षों से घने जंगलों, सुनसान स्थानों में भटक रहा हूँ। सुबह मुक्त होने के पश्चात् मुझे एक ऐसे समाजसेवी का जन्म लेना है जो जीवनपर्यंत रिश्वत के खिलाफ बिगुल बजाएगा। मेरे पापों का आचमन तभी संभव है। ओह! विवेक सम्मत मनुष्य का जन्म लेकर एवं पढ़ा लिखा होकर भी मैं यह नहीं समझ पाया कि दुष्कर्म एवं गलत राहों से आने वाला धन एक दिन स्वयं दुराचारी के गले का फंदा बनता है। मेरा दुश्चिंतन मेरे अनर्थ एवं पतन का कारण बन गया। इन्हीं आंखों से मैंने अपने दुर्भाग्य की रक्तक्रीड़ा देखी। मृत्यु की हिंसक बाघिन सामने खड़ी गुर्रा रही थी लेकिन मैं कुछ भी नहीं देख पाया। ओह, मैं कैसे प्रमाद वन में विचर रहा था? मेरा लोभ-पाश ही मेरा मृत्यु-पाश बन गया। मैंने स्वयं अपना ही मर्सिया पढ़ लिया। हाय! धन की बजाय इतनी लौ ईश्वर से लगाता तो मेरा तथा परिवार दोनों का कल्याण हो जाता।’
कथा कहते-कहते भैरवसिंह की सिसकियां बंध गई। संयत हुआ तो उसने श्वेतकेतु से पूछा, ‘बुजुर्गवर! आप तो चिर-यात्रा से यहां पहुंचे हैं। क्या मनुष्य को उसके द्वारा किये हर पाप का सिला मिलता है?’
‘अवश्य! लोकहितार्थ कार्यों को छोड़कर मनुष्य का हर पाप, हर दुष्कर्म कर्मबंधन बनकर मनुष्य के भाग्य से चिपक जाता है। उसके विमोचन किये बिना जीव को गति कहां! जीवन के खेत में मनुष्य जैसा बोता है वैसा ही काटता है। मनुष्य का भाग्य उसके शुभकर्मों की पूंजी ही है। शुभभावना, शुभ संकल्प एवं निस्वार्थ कर्म ही हमारी शांति के स्रोत हैं। स्वर्ग-नरक ऊपर अंतरिक्ष में नहीं हैं। हमारे सत्कर्म हमारे स्वर्ग का सृजन करते हैं एवं दुष्कर्म जीते जी एवं मरणोपरान्त भी हमें दुःखों के अग्निकुण्ड में जलाते हैं। इन कर्मबंधनों से मुक्त होने में जीव को अनेक जन्म तक लेने पड़ते हैं। इस अनादि, अनंत कालचक्र की माला धर्म-मणियों से ही गूंथी गई है।’ कहते-कहते श्वेतकेतु की आखों में उतर आया गांभीर्य उसके चिर अनुभव को बयां करने लगा था।
इसी बीच गोकर्ण ने पूछा, ‘बुजर्गवर! मेरे भी एक प्रश्न का समाधान करें। आपका जन्म सतयुग में हुआ। उस जन्म में राजा हरिश्चन्द्र को आततायियों ने इतना कष्ट दिया। स्वयं आप द्वारा इतने पाप हुए। मैंने तो सुना है सतयुग में सर्वत्र सत्य एवं सत्कर्मों का प्रसार था।’
‘तुम्हारा प्रश्न अत्यंत गूढ़ है पुत्र! वस्तुतः यह युग विभाजन मात्र काल विभाजन है। अच्छे-बुरे मनुष्य हर युग में रहे हैं। सतयुग में भी मेरे जैसे पापी थे। त्रेता में राम थे तो रावण भी था, द्वापर में कृष्ण थे तो कंस भी था। कलियुग में भी अच्छे लोगों की कमी नहीं है। सत्, रज एवं तम प्रधान मनुष्य हर युग में समान मात्रा में रहे हैं। यह युग विभाजन तो वस्तुतः मनुष्य के आत्म उन्नयन की सीढ़ियां है। जब मनुष्य तम से सत् की यात्रा करता है, दुष्कर्मों से सत्कर्मों में प्रवृत्त होता है, अंधेरे से उजाले की ओर बढ़ता है तो वह कलियुग से सतयुग की यात्रा करता है। ये युग काल के हिस्सों पर नहीं, हमारे भीतर घटित होते हैं। इस यात्रा की पूर्णाहुति मोक्ष है।’
श्वेतकेतु के उत्तर के पश्चात् सभी भूत आसमान के पूर्वी छोर की ओर तकने लगे थे।
महाकाल की मंगला आरती के साथ ही पूर्वांचल पर लालिमा फैलने लगी। भोर की प्रथम किरण के फूटते ही चारों जीव अनंत के उस महान रहस्य में विलीन हो गए जिसकी थाह नहीं मिल पाने के कारण तपस्वी एवं ब्रह्मर्षिजन इस संसार को ‘नेति-नेति’ कहकर चले गए हैं।
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02-08-2010