दुआ

भले आदमी तो दुनियाँ में बहुत देखे, पर सूर्यनारायण बिस्सा जैसा शायद ही कोई होगा।

उनकी दिनचर्या नियमित थी। रोज सुबह पाँच बजे उठ जाते, तैयार होकर सीधे ‘मोर्निंग वाॅक’ पर निकलते। सरपट घूमकर आधे घण्टे में वापस घर होतेे। उसके बाद स्नान कर कुछ समय ध्यान में बैठते। ध्यान से उठते ही वे सीधे रसोई में जाते जहाँ खुद आटा गूंथते। इसी आटे को थेपकर बड़े-बड़े टुक्कड़ बनाते। टुकड़ों को थेले में भरकर, सीधे पहाड़ी के नीचे पसरे गोल मैदान पहुँच जाते जहाँ अनेक बन्दर, कुत्ते, गायें, बकरियाँ एवं अन्य पालतू जानवर उनकी राह तक रहे होते। इसके पश्चात् कार्यो की एक अनन्त श्रृंखला प्रारंभ हो जाती। गाय, बकरियों को चारा डालना, पक्षियों को दाने डालना, कुत्तों को टुक्कड़, बंदरों को चना खिलाना आदि-आदि। चने, चारा, दाना वहीं मैदान के कोने स्थित दुकानों पर मिल जाता। इसके बाद फल खरीदकर वे पुनः बंदरों के पास आते एवं इन्हें छीलकर एक-एक कर सबको खिलाते। कई छोटे बन्दर उनके कंधों पर चढ़ जाते। निश्चिंत, वहीं बैठे, हाथ ऊपर कर वे उन्हें भी तृप्त करते। बड़े बन्दर उनके समीप अनुशासित बुजुर्गों की तरह बैठकर फल लेते रहते। वे अपनी ही तरह दूसरों के लिए सोचते। लोग पूछते, ‘बिस्साजी ! भला फल छीलकर बंदरों को क्यों खिलाते हो ?’ बिस्साजी जवाब देते, ‘अगर हम बिना छीले फल नहीं खा सकते तो पशु कैसे खाएंगे।’ इसी तरह वे अच्छी तरह से बीनकर दाना डालतेे। यह कार्य पूरा होते ही मैदान से थोड़ी दूर बने कुष्ठ आश्रम में जाकर कोढ़ियों का हालचाल पूछते, उनकी सेवा करते। यही उनके वर्षों का क्रम था एवं इसे ही वे जीवन की सच्ची कमाई मानते थे।

बिस्साजी पचास पार अभी भी पूरे स्वस्थ थे। इस उम्र के लोगों को बहुधा उच्च रक्तचाप, तनाव आदि रोग घेर लेते हैं पर बिस्साजी साइकल पर यूँ दौड़ते नजर आते। उनके यहां दो स्कूटर थे पर मजाल बिस्साजी उन्हें छू लें। उन्हें तो अपनी दो पाँवों की गाड़ी एवं दो पहियों की साइकल पर ही भरोसा था। यहाँ-वहाँ जहां भी जाना होता, साइकल से जाते। पेडल मारते, पसीने से तर हो जाते लेकिन सदैव संतुष्ट नजर आते। उनकी आँखों की चमक मुँह चढकर बोलती। सदैव प्रफुल्लित लगते। संतोष उनके सत्कार्यों का श्रीफल था एवं सुस्वास्थ्य उनकी जमा पूंजी। सुपथ्य का सेवन करने वाले को रोग कैसे वश में कर सकते हैं? एक तंदुरुस्ती हजार नियामत।

बिस्साजी इसी शहर में आयकर विभाग में काम करते थे। विभाग में यूडीसी थे। चपरासी से लेकर ऊपर तक सभी की चाँदी थी। बहुधा सरकारी कर्मचारी ना-नुकर के आदि होते हैं। बाद में पैसा लेकर ऐसे स्फूर्त होते हैं मानो संजीवनी मिल गयी हो। वे समस्त कार्य जो पहले कठिन होते हैं, रिश्वत लेते ही सुगम बन जाते हैं। लेकिन बिस्साजी तीन लोक से मथुरा न्यारी की तरह सबसे अलग थे। उनका उसूल था, रिश्वत कभी मत लो लेकिन काम ऐसे करो जैसे रिश्वत ले ली हो। इसी कारण विभाग में जनता उन्हें घेरे रहती। भला ऐसा आदमी कहाँ मिलेगा जो रिश्वत जरा भी न ले और काम बढ़-चढ़ कर करे ? विभाग के कर्मचारी उन्हें मूर्ख कहते, लेकिन पब्लिक के लिए वे देवता थे। लोगों का काम होते ही उनका चेहरा यूं खिल जाता मानो खुद उनका कार्य पूरा हुआ हो। एक बार एक वृद्ध व्यापारी उनके पास किसी काम से आया। जून की झुलसा देने वाली गर्मी के दिन थे। बिस्साजी स्वयं उठकर उसके लिए ठण्डा पानी लेकर आये, उसे पूरे आदर से बिठाया। काम पूरा होने पर वृद्ध की आँखें सजल हो उठी, उपकृत हृदय वाचाल हो उठा। बोले, ‘बिस्साजी! आप साक्षात् देवता है। आप जैसे सज्जन जहाँ भी होते हैं वे स्थान तीर्थ हैं।’ इतनी ऊँची प्रशंसा सुनकर बिस्साजी संकोच से गड गये, बोले, ‘मैं तो बस प्रभु का काम कर रहा हूँ मेरी बिसात ही क्या है।’ 

बिस्साजी के एकमात्र मित्र उनके सहपाठी हरीश महाजन थे। उनकी इसी शहर में साबुन बनाने की फैक्ट्री थी। गत बीस वर्षों से इसी फैक्ट्री से उनका गुजारा होता था। 

फैक्ट्री की माली हालत खराब ही कहना चाहिये, बस जस-तस गृहस्थी चल जाती थी। फैक्ट्री अथवा घर में जब कभी कोई समस्या आती, हरीश बिस्साजी से ही सलाह लेते। उनकी आधी समस्या तो बिस्साजी को बताने भर से समाप्त हो जाती। भड़ास निकालकर वे हल्का महसूस करते। दिन में एक बार जब तक बिस्साजी को देख नहीं लेते, उन्हें चैन नहीं होता।

बिस्साजी इसके ठीक विपरीत अंतर्मुखी व्यक्ति थे, अपना दर्द अपने मन में रखते। ऐसा नहीं कि उनके जीवन में समस्याएं नहीं थी पर उनका स्वभाव ही कुछ ऐसा था कि किसी को कोई कष्ट नहीं देते, यहाँ तक कि अपना दुख सुनाने तक का भी। उनके एक पुत्री एवं एक पुत्र था। परिवार बड़ा नहीं था, लेकिन घर में समस्याएँ पर्वत जैसी थी।

गत वर्ष बेटी की शादी धूमधाम से की थी। जिन्दगी भर की गाढ़ी कमाई खर्च कर डाली लेकिन दामाद नितान्त अहंकारी एवं तुनक मिजाज निकला। जब-तब बेटी को घर छोड़ जाता, महिनों लेने तक नहीं आता। पत्नी तुनक कर कहती, ‘यूँ भोले भण्डारी बनकर बैठने से समस्याएं खत्म नहीं होगी। इसके ससुराल वालों की खबर लो। मेरी फूल-सी बेटी को कांटा बना दिया। आज के जमाने में भला बनने से काम नहीं होता। लातों के भूत बातों से कब माने है ?’ बिस्साजी चुपचाप सुन लेते, बस एक ही उत्तर देते, ‘ईश्वर पर भरोसा रख। एक दिन सब ठीक हो जायेगा।’ उनका उत्तर जले पर नमक का कार्य करता।  वह क्रोध से दहक उठती, ‘अरे तुम्हें पशु-पक्षियों को चुगाने से फुरसत हो तो घर की सोचो। दूसरा मर्द होता तो इसके ससुराल वालों के मत्थे चढ़ बैठता।’ बिस्साजी के पास मौन रहने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं होता। हाँ, उनके पुत्र से उन्हें अवश्य संतोष था, जो इस वर्ष मेहनत कर एमबीबीएस प्रथम वर्ष में आया था। 

हरीश के भी दो संतानों में बड़ी बेटी थी। उसकी हालत बिस्साजी की बेटी जैसी तो नहीं थी पर उसका पति आवारा एवं शराबी था। जब-तब लड़की को पीटता रहता। पुत्र से भी हरीश नाउम्मीद  था, वह भी पढ़ाई में फिसड्डी था। राम-राम करते हुए पिछले साल ही उसने हाई स्कूल पास की थी।

हरीश अक्सर बिस्साजी से अपनी समस्याओं का जिक्र करता। दिमाग में फिक्र हो तो जिक्र हो ही जाता है। हर व्यक्ति दिल में बोझ लेकर नहीं बैठ सकता। बिस्साजी एक सच्चे मित्र की तरह उसे हितप्रद सलाह देते। अपने लिए समय नहीं  होता पर हरीश की समस्याओं के समाधान में बढ़-चढ़ कर उत्साह बताते। कभी उसके दामाद को सुधारने की जुगत बिठाते तो कभी उसके पुत्र को पढ़ने-लिखने के लिए समझाते।  हरीश को भी बिस्साजी जैसा मित्र पाकर गर्व था। भला ऐसा मित्र कहाँ मिलेगा जो अपनी तकलीफ तो कभी न बताये पर मित्र के दुःख में बढ़ चढ़ कर काम आये। जो मित्र अपने पर्वत के समान दुःख को रजकण जितना बताये एवं मित्र के रजकण बराबर दुख को पर्वत समान माने, वही तो सच्चा मित्र है। 

दोनों मित्रों में स्वभावगत भी बहुत अंतर था। जहाँ हरीश वाचाल था एवं शीघ्र  घबरा जाता, वहीं बिस्साजी आपत्तिकाल में भी अपना धैर्य बनाये रखते। एक बार हरीश  की  फैक्ट्री में पुलिस का छापा पड़ा तो हरीश के हाथ पाँव फूल गये। अधिक लाभ कमाने की जुगत में हरीश एक ऐसे केमिकल का प्रयोग करता जिससे साबुन का वजन बढ़ जाता एवं जिसका प्रयोग भी अवैधानिक था। 

बिस्साजी खबर मिलते ही सीधे हरीश की फैक्ट्री पहुँचे। संयोग से थानेदार उनके विभाग में आने वाले एक व्यापारी का मित्र था। बिस्साजी ने इस व्यापारी के कितने ही काम निकाले थे, अक्सर कहता, बिस्साजी हमें भी कभी सेवा का मौका दिया करो। हरीश के भाग्य का छींका टूटा। थानेदार हिदायत देकर चला गया। बिस्साजी ने हरीश को आगे से ध्यान रखकर काम करने को कहा। हरीश कृतज्ञता प्रगट करता उसके पहले उन्होंने काम का बहाना बनाया एवं वहां सेे चलते बने।

एक शाम बिस्साजी ऑफिस से घर आ रहे थे। भादो के दिन थे। कुछ समय पहले  बारिश होकर रुकी थी। यहाँ-वहाँ गड्ढे होने के कारण साइकल चलाना मुश्किल हो रहा था।साईकिल हाथ में पकड़े वे पैदल चल रहे थे। यकायक एक कुत्ता आया एवं बिस्साजी को काटने दौड़ा। वे तुरन्त सम्हले, कुत्ते ने पूरा प्रयास किया, पर वे बच निकले। उन्हें क्रोध कम ही आता था पर उस दिन जाने क्यों उनके मुख से निकल गया, ‘मुझे अस्पताल पहुँचा देता ! कभी गाड़ी के नीचे आकर मरेगा।’

दूसरे दिन वे ऑफिस जा रहे थे तो उन्होंने देखा कुत्ता सड़क के किनारे मरा पड़ा है। कल रात एक ट्रक वाले ने उसे कुचल दिया था। बिस्साजी को सदमा लगा। उन्हें यह सोचकर दुःख हुआ कि उनके दिमाग में ऐसा संकल्प आया ही क्यूँ ? उन्हें इस बात का आश्चर्य भी हुआ कि क्या संकल्प मात्र से ऐसा हो सकता है ? बाद में जाने क्या सोचकर वे इस विचार से किनारा कर गये। विचारों का क्या है, इंसान के मस्तिष्क में हर तरह के विचार आते रहते हैं ?

इसके कुछ रोज बाद एक और घटना घटी। उन्हीं के पड़ौस में रहने वाले श्यामनाथजी एक शाम अपनी पुत्री रेनु के साथ इवनिंग वाॅक पर निकले थे कि बिस्साजी को देखकर उनकी ओर मुड़े। रेनु अट्ठाईस वर्ष की कुँवारी थी, श्यामनाथजी को आठ पहर चौबीस घड़ी उसके ब्याह की चिंता रहती। उन्होंने प्रयास भी बहुत किये पर सभी व्यर्थ सिद्ध हुए। श्यामनाथजी ने बिस्साजी को देखकर नमस्कार किया। रेनु ने उनके पाँव छुए। बिस्साजी जानते थे कि रेनु के विवाह की समस्या श्यामनाथजी के लिए विकराल होती जा रही है। अपने पड़ौसी की पीड़ा का अहसास कर उनका हृदय पिघल गया। हृदय सरोवर से जैसे एक लहर उठी, सहज ही उनके मुँह से दुआ निकली, ‘सौभाग्यवती भव! चन्द्रमौलि आशुतोष तुम्हारा कल्याण करे। शीघ्र ही तुम्हें मनवांछित वर मिल जाये। बस तेरे हाथों में मेहन्दी रच जाये।’ आश्चर्य ! इस बात के मात्र एक माह बाद उसकी शादी एक डाॅक्टर से हो गयी। लड़का हजारों में एक था।

इस बार बिस्साजी चौंके। उन्हें यकायक एक अलौकिक अनुभूति हुयी कि उनकी दुआओं में सीधा असर है। उनकी वाणी गोली की तरह असर करती है। इसके बाद उन्होंने कुछ प्रयोग भी किये। टेकरी वाले मंदिर में जाकर कभी किसी के रोग ठीक होने की, तो कभी किसी के प्रमोशन की तो कभी अन्य बात के लिए दुआ की। जिस-जिस के लिए वे प्रार्थना करते, उनके कार्य पूरे होते पर उन्होंने पाया कि उनकी दुआएँ उनके एवं उनके परिवार पर असर नहीं करती। फिर वे खुद ही अपने विचारों पर हँसने लगे, ‘क्या मैं मिडास हूँ और क्या मुझे मिडास बनना भी चाहिये ?’ जो ईश्वर से मात्र अपने सुख के लिए याचना करता है वह तो निरा बनिया है। ईश्वर के पास महाजनी गणित नहीं है। अपने सच्चे भक्तों को तो ईश्वर कई बार दुख के दावानल में तपाता है। इतना ही नहीं कई बार उनके अर्थ, काम सम्बन्धी प्रयास व्यर्थ कर देता है ताकि उनकी अनुभवगम्यता बढ़े, वे मोहातीत बनें, उन्हें सत्चित आनन्द मिले, वे मोक्षारूढ हों। अग्नि में तपने से सोने का सही स्वरूप निखरता है। दुखों की भट्टी में तपा कर ईश्वर अपने भक्तों को उनके निज स्वरूप से परिचय करवाता है।

अपनी इस अलौकिक शक्ति को पहचान कर बिस्साजी ने प्रण किया कि वे ईश्वर से अपने लिये कभी कुछ नहीं मांगेंगे एवं न ही कभी किसी को बद्दुआ देंगे। बहुधा जिनकी दुआओं में असर होता है, उनकी बद्दुआएँ भी उतनी ही असर लिये होेती है। बहुत विचार कर उन्होंने यह भी निर्णय लिया कि वे अपनी दुआएँ भी बहुत सोच समझकर, पात्रता देखकर ही देंगे। कुपात्र को दान एवं आशीर्वाद पाप का ही एक रूप है। अपनी इस शक्ति के बारे में उन्होंने मौन रहना ही उचित समझा। प्रभुकृपा एवं देवताओं का रहस्य जितना गोपनीय हो, उतना अच्छा है।

इन दिनों हरीश जब भी उनके पास आता, उदास-सा होता। उसका मायूस, पिटा हुआ चेहरा देखते ही बिस्साजी समझ जाते कि उसका व्यापार प्रतिकूल परिस्थितियों में घिर चुका है। उनकी सोच उचित भी थी। इन दिनों प्रतिस्पर्धी बहुत बढ़ चले थे, दिन-रात मेहनत करता पर कमाई नहीं निकलती थी ? व्यापार को सम्हालने की उसने पूरी कोशिश की पर भाग्य  प्रतिकूल हो तो अनुकूल बात कैसे बने? उसकी आर्थिक स्थिति दिन-ब-दिन खराब होती गयी, यहाँ तक कि अब तो फाके पड़ने लगे। बिस्साजी यथासंभव मदद करते पर उनकी भी सीमा थी। इन दिनों वह हरीश के घर जाते तो उसके परिवार वालों की हालत देखकर पसीज जाते। कई बार तो हरीश बात करते-करते रो पड़ता।

एक  शाम  दोनों  दोस्त बगीचे में घूम रहे थे। हरीश अन्यमनस्क, इधर- उधर झाँक रहा था। अपना मन हल्का करने के लिए बिस्साजी से बोला, ‘इस जीवन से तो मौत भली। लोई उतर गयी। अब क्या जीना? सारा व्यापार चौपट हो गया। इस उम्र में जायें तो जायें कहाँ ?’ बिस्साजी चुपचाप सुनते रहे। इससे अधिक हरीश की दुरवस्था देखना बिस्साजी की सहन शक्ति के परे था। हृदय में भावनाओं का ज्वार उमड़ पड़ा। मित्र के दुख में दुखी न होने वाला इंसान पशु से भी गया गुजरा है। विदा होने के बाद वे सीधे टेकरी वाले मंदिर गये एवं याचक बनकर भगवान के आगे खड़े हो गये, ‘प्रभु! हरीश के दिन बदल दो। मुझसे देखा नहीं जाता।’ उनकी आँखें सजल हो उठी। जगत् पिता ने उनकी दुआ को अपने आगोश में ले लिया।

एक दैविक चमत्कार हुआ। हरीश का व्यापार बढ़ने लगा, इतना ही नहीं, चंद महीनों में इतने बड़ेे सरकारी आर्डर्स मिले कि उसकी चाँदी हो गयी। कल का फकीर आज छत्र धारण कर चलने लगा। अब उसके यहाँ कई मुलाजिम थे, नई कोठी थी एवं कई गाड़िया थी। मित्र की दुआ ने नारायण कवच की तरह उसके प्रतिकूल ग्रहों का शमन कर लिया। सत्पुरुष लोक कल्याण के लिए क्या कुछ न्यौछावर नहीं करते ? 

हरीश का व्यापार दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करने लगा। अब हरीश को बिस्साजी के लिए फुरसत कहाँ थी ? कई बार तो बिस्साजी उसे फोन कर मिलने को कहते, पर उसकी तो दुनियाँ ही बदल गयी। यहाँ तक कि अब बिस्साजी से मिलने एवं उनके घर तक आने में वह खुद को छोटा समझने लगा। माया ने उसे मदांध बना दिया। बैलगाड़ी के नीचे चलने वाला कुत्ता कई बार इस भ्रम में चलता है कि बैलगाड़ी वह चला रहा है । धन, ऐश्वर्य एवं वैभव ईश्वर कृपा के रूप नहीं है, ईश्वर कृपा का रूप है इन्हें पाकर अहंकार शून्य होना।

 एक बार बिस्साजी साइकल पर बाजार जा रहे थे, तभी उन्हें सामने से हरीश की कार आते दिखायी दी। गाड़ी हरीश स्वयं चला रहा था। गाड़ी में उसके साथ कुछ लोग बैठे थे। ये सभी उसके नये मित्र थे। तकलीफ के दिनों में एकमात्र मित्र बिस्साजी थे, वैभव के दिनों में इतने मित्र ? चिकने मुँह सभी चूमते हैं। हरीश ने बिस्साजी को सामने से आते हुए देख लिया था पर वह नहीं चाहता था कि उसके नये मित्र इस फकीर से उसकी दोस्ती के बारे में जाने। उसने देखकर भी किनारा कर लिया। गाँठ में माल आते ही नजर बदल गयी। यही नहीं, इन्हीं दिनों बिस्साजी बीस रोज तेज बुखार एवं निमोनिया से पीड़ित रहे, हरीश मिलने तक नहीं आया। 

अपने मित्र का बदला रूप समझने में बिस्साजी को देर नहीं लगी। इतना होने पर भी उन्होंने हृदय में दुर्भाव का अंकुर पैदा नहीं होने दिया। वे तो बस यही सोचते, नेकी कर दरिया में डाल। संसार में बस साधुता इसी का नाम है कि बदला लेने की शक्ति होने पर भी दूसरों का दुर्व्यवहार सहन कर लिया जाय। अपने हाथ से लगाया वृक्ष भी अगर कालान्तर में विषवृक्ष निकल जाए तो काटना मुश्किल है।

बिस्साजी इन दिनों अन्यमनस्क रहते। उन्हें उदास देखकर पत्नी चटकारे लेती, ‘और करो ऐसे लोगों से दोस्ती! दिवालिया हो रहा था तब तुम्हीं उसके यहाँ रुपये देने गये थे। अभी तक तो वे रुपये भी उसने नहीं लौटाये। जगत का जहर पीकर बस तुम्हें ही महादेव बनना है। अरे इतना तो गँवार भी समझता है कि दिया पहले घर में जलाकर फिर मंदिर में जलाया जाता है।’ कहते-कहते उसने बिस्साजी की ओर ऐसे देखा मानो कह रही हो, भोलेनाथ! एक तुम्हीं लिखे थे मेरे भाग्य में !

बिस्साजी इन दिनों हालात एवं बीमारी से दुखी थे, पत्नी के तानों ने जले पर नमक का कार्य किया। पत्नी का गँवार बोलना उन्हें गवारा नहीं हुआ, तैश में आकर बोले, ‘पैसे क्या तुम्हारे बाप ने भिजवाये थे ? अपनी खरी कमाई के पैसे दोस्त को दिये थे।’

‘दोस्त! क्या ऐसे लोगों को दोस्त कहते हैं ? आपने तो गधे को गुलकंद चटा दी। अब आगे से तो सबक लो। टके की हाँडी गयी पर कुत्ते की जात तो पहचानी गयी।’ वह तेजी से चलकर रसोई में चली आयी।

बिस्साजी पर मानो किसी ने ब्रह्मास्त्र का संधान किया। वे आपे से बाहर हो गये, सहसा उनके मुँह से निकल पड़ा, ‘अपनी करनी खुद भोगेगा। अंत बुरे का बुरा।’ बिस्साजी को तुरन्त अपनी भूल का अहसास हुआ लेकिन तब तक तीर कमान से निकल चुका था। 

इंसान को उसका पाप ही खा जाता है। कुछ रोज बाद हरीश फैक्ट्री से घर लौट रहा था कि रास्ते में उसकी गाड़ी एक पेड़ से टकरा गयी। सर पर गंभीर चोटें आई एवं उसके नीचे आधे शरीर को लकवा मार गया। पानी की तरह पैसा बहाया पर कोई असर नहीं हुआ। उधर मालिक के फैक्ट्री में न होने का मुलाजिमों ने भरपूर फायदा उठाया। कर्मचारी दीमक की तरह व्यापार को खाने लगे। शरीर एवं व्यापार की दुरवस्था ने हरीश को कहीं का नहीं छोड़ा। कल उसके चेहरे पर अहंकार का दर्प था, आज दुर्भाग्य ने अंडे ढीले कर दिये। 

कुछ दिन तक तो बिस्साजी उससे मिलने नहीं गये पर अंततः मित्र की बिगड़ती हालत सुनकर पिघल गये। बादलों में बिजली चमकती है तो बादल मेह भी बरसाते हैं।

वे दिन रात मित्र की सेवा में लग गये। उनके निष्कपट सेवाभाव को देख हरीश का हृदय प्रायश्चित की अग्नि में जलने लगा। मन ही मन सोचता, यही मेरा सच्चा मित्र है। इतना दुराव रखने पर भी उसका प्रेम निष्कपट है। मित्र के उपकार को याद कर उसके नेत्रों से आँसू उमड़ आये। 

एक रोज बिस्साजी उसके लिए फल लेकर गये तो हरीश ने अपनी दोनों हथेलियाँ आँखों पर रख ली। बिस्साजी उसका हाथ हटाते तब तक वह फफक कर रो पड़ा। प्रायश्चित के आँसुओं में उसका पूरा मुँह भीग गया। रोते-रोते बोला, ‘मित्र! यह सब तुम्हारे जैसे सज्जन मित्रों के अनादर का फल है। तुमने मुझे हर विपत्ति में सहारा दिया पर मैं अभागा जरा-सा धन पाकर अहंकार के समुद्र में डूब गया। मुझे धिक्कार है। ईश्वर मुझे कभी क्षमा न करे।’

अपने मित्र का ऐसा करुण विलाप देख बिस्साजी के नेत्रों में आँसुओं की लड़ी लग गयी। कुछ देर चुप रहे फिर संयत होकर बोले, ‘ऐसा न कहो मित्र! तुम्हारे बिना मेरा जीवन  अधूरा है।’ इतना कहकर वे तेजी से अस्पताल केेे बाहर चले आये। सज्जनों का मन मक्खन की तरह मुलायम होता है।

उसी शाम वे फिर टेकरी वाले मंदिर में खड़े किसी के रोगमुक्त होने की दुआ कर रहे थे।

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14.10.2003

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